
वसंत और उसके पूरक

प्रवासी चेतना
20 फ़र॰ 2023
'बसंत पंचमी या श्री पंचमी', माँ सरस्वती के पूजन से इस पर्व का प्रारम्भ होता है।
मान्यतानुसार इस दिन माता सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ था।
सभी ऋतुओं की बात करें तो ऋतुराज बसंत का अपना अलग ही महत्व है। यदि कहें तो बसंत यौवन है, तरुणाई है, उल्लास है। बसंत नवागत का स्वागत है। बसंत जीवन का उत्सव है, बसंत बिखरने-बिखेरने का मौसम है। बसंत के आगमन पर प्रकृति एक नई करवट लेती है, क्योंकि यह मौसम ना ज्यादा गर्मी और ना ज्यादा ठंड का होता है। प्रकृति कई रंगो से भर जाती है। ऐसे कई बातें या उत्सव है जिनके उल्लेख मात्र से बसंत ऋतु की छटा, रंग परीलक्षित हो जाते है, या यु कहे तो ये बसंत के पूरक ही है।
'बसंत पंचमी या श्री पंचमी', माँ सरस्वती के पूजन से इस पर्व का प्रारम्भ होता है। मान्यतानुसार इस दिन माता सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ था। इस दिन पिले वस्त्रों का बड़ा महत्व है, जो कि शुचिता का प्रतिक है।
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
भावार्थ - "ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है।"
बसंत पंचमी का यह पर्व कला प्रेमियों के लिए बहुत विशेष है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सभी अपने दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं। माता सरस्वती की पूजा के अलावा राधा-कृष्ण की भी पूजा की जाती है। बसंत पंचमी का दिन ब्रज के लिए बहुत विषेश होता है। इसी दिन के साथ बांके बिहारी मंदिर में 45 दिनों तक चलने वाले होली के उत्सव की भी शुरुआत हो जाती है। आज ही के दिन बांके-बिहारी मंदिर में पुजारी ठाकुर जी को गुलाल लगाकर होली के पर्व की शुरुआत करते है।
होली, बस नाम मात्र से ही आँखो के आगे रंग-बिरंगी छटा झूल जाती है। होली यह बसंत का विस्तार है, तो होली की दस्तक फागुन का महीना है। बसंत के इस उत्सव से वातावरण में एक अगल सा खुमार चढ़ने लगता है जो चैत्र मास तक चलता है। बसंती मौसम में होली, धमार, काफी, जोगीरा, चौताल और चैता की स्वरलहरियां सुनाई पड़ने लगती हैं। आकाश अबीर-गुलाल सा दिखने लगता है, उत्साह और उमंग अपने शीर्ष पर रहते है। अलग-अलग प्रदेशों में होली के कई स्वरूप देखने को मिलते है जिसमें से ब्रज की लठ्ठमार होली भारत में ही नहीं अपितु विश्व में भी विख्यात है। होली के रंगो से सराबोर व्यक्ति की निजी पहचान और उसकी निजता सब मिट जाती है। समाज के साथ व्यक्ति एकाकार हो जाता है। प्रकृति के माध्यम से बसंत समूचे मन को एक साथ रंगता है। कबीरदास जी ने इसीलिए कहा भी है, ‘मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा।’ बसंत आशा करता है कि हम मन को रंगें, केवल अपने कपड़ों को नहीं।
एक मान्यतानुसार कामदेव ने भगवान शिव की तपस्या भंग करने के लिए बसंत ऋतु को प्रकट किया था। शिव जी कामदेव के इस कृत्य की वजह से बहुत क्रोधित हो गए थे। भगवान ने जैसे ही अपना तीसरा नेत्र खोला, कामदेव भस्म हो गए। ये फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि की ही घटना मानी जाती है। इस श्राप के वरदान स्वरूप शिव ने अनंग को यह विशेष वरदान दिया कि वह निराकर होकर भी साकार रहेगा।
मौसम की दृष्टी से यह नई फसल पकने का समय है। भारत एक उत्सव प्रधान देश है यहाँ फसल आने पर उत्सव मनाने की परंपरा है। गेहूं की पकी फसल से किसान भी हर्षोल्लासित रहते है और जलती हुई होली में नई फसल का कुछ भाग अर्पित करते हैं और खुशियां मनाते हैं। भारतीय संस्कृति कृतज्ञता की द्योतक है। हमें जो भी वस्तु प्राप्त होती है, उसमें से कुछ भाग भगवान को अर्पित किया जाता है। इसी वजह से नई फसल आने पर जलती हुई होली में अन्न अर्पित किया जाता है। जलती हुई होली को यज्ञ की तरह माना गया है और यज्ञ में अर्पित वस्तु सूक्ष्म रूप में आकर कई गुना होकर वातावरण में फैल जाती है। इस हर्षोल्लासित वातावरण में नीरस व्यक्ति भी सजल और चंचल हो जाता है।
'टेसू और पलाश', पलाश के बगैर ऋतुराज बसंत की छटा अपूर्ण है। यदि बसंत कामदेव का सहायक है तो पलाश के फूल बसंत का श्रृंगार है। फागुन में खिले टेसू, पलाश, कचनार का लाल केसरिया रंग प्रकृति को एक अलग आध्यात्मिक आभा से भर देता हैं। केसरिया रंग भक्ति व समर्पण का रंग है। भारतीय धर्म में केसरिया रंग को शुचिता, साधुता, पवित्रता का द्योतक माना गया है। पारंपरिक ग्राम गीतों में भी केसरिया चुनरी ही पसंद की जाती है। जहां ये फूल प्रकृति की सुंदरता बढ़ाते है तो दूसरी ओर यह फूल असाध्य चर्म रोगों में भी लाभप्रद होते है। पलाश एक सामान्य पेड़ नहीं है, इसमें तीन प्रकार के फूल होते हैं सफेद, पीला और केसरिया लाल। हमारी परंपरा में दांपत्य जीवन की शुरुआत इस पेड़ की लकड़ी के मंडप को साक्षी मानकर की जाती है। हम में से कईयों ने दोना-पत्तल पर भोजन किया होगा, ये भी इसी पेड़ की देन है। जन्म की पूजा, विवाह की पूजा, मरण की पूजा, यज्ञ की पूजा इन सभी में इसके पत्ते साक्षी रहते हैं।
होली मुख्यत: प्राकृतिक रंगो से ही खेली जाती है जिसमें टेसू और पलाश के पूलों का महत्व सर्वाधिक है। प्राकृतिक रंगों की होली खेलने से त्वचा के कई रोग ठीक हो जाते हैं। आज के परिवेश में यह वाक्य हास्यास्पद लगता है, क्योंकि प्राकृतिक रंगो के स्थान पर कृत्रिम रंगो से खेली जा रही 'होली' हमारे त्वचा के रोगों को बढ़ाने का काम कर रही है। जो होली के मूल स्वरूप तथा उद्देशों से कोसों दूर है।
'क्रांति का रंग वासंतिक है',
मेरा रंग दे बसंती चोला… शायद ही कोई हो जिसने यह गीत ना सुना हो। 1927 वह बसंत का ही मौसम था जब बलिदानी रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान और उनके कई साथी काकोरी ट्रेन एक्शन में पकड़े जाने के कारण कारागार में थे। सभी क्रांतिकारियों ने अनुरोध किया कि वे बसंत पर कुछ लिखे, क्योंकि सभी जानते थे कि बिस्मिल जी बहुत सुंदर लिखते थे और उससे भी अच्छा गाते थे। आज भी जब इस गीत के शब्द कानों पर पड़ते है तो शहीदेआजम भगत सिंग, सुखदेव, राजगुरु और सारे क्रांतिकारियों के लिए शीश सम्मान में झुक जाता है। गीत का एक एक शब्द अदम्य साहस, शौर्य और अध्यात्मिक ऊर्जा से भर देता है। वीरों का वसंत ऐसा ही होना चाहिए। साहस और ऊर्जा से भरपूर।
बसंत हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। जिन्होने विदेशी आक्रांता मोहम्मद ग़ोरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद ग़ोरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। 1192 ई की यह घटना तो जगप्रसिद्ध ही है। मोहम्मद ग़ोरी को पृथ्वीराज चौहान का शब्द भेदी बाण का कमाल देखना था। मृत्युदंड देने से पूर्व सम्राट पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर ग़ोरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। शब्दभेदी बाण का करिश्मा देख मोहम्मद ग़ोरी अचम्भीत होकर चिल्ला पड़ा तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया।
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान ॥
पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह मोहम्मद ग़ोरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया।
बसंत यह ऋतूपर्व, ऋतुराज है। भक्ति से प्रारभ्भ होकर अपने पूर्ण यौवन को प्राप्त कर, फाल्गुन और चैत्र का मिलाप कराता है। बसंत जहाँ एक ओर सुंदरता और शुचिता का प्रतिक है वही दूसरी ओर वीरता और अदम्य शौर्य का प्रतिक है। बसंत एक ओर जहाँ श्रृंगार है तो दूसरी ओर भक्ति है तभी तो बसंत सभी ऋतुओं में बड़ा अनूठा है, कदाचित् तभी भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥
आ. 10 श्लोक 35 ||
भावार्थ : गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम और छंदों में गायत्री छंद हूँ । महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत मैं हूँ॥
पूणे (महा) 82755.97698