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डिजिटल दुनिया में गुम होती मानवीय संवेदना : उर्मिला रूंगटा
नया युग, नई बातें Digital दुनिया उंगली के इशारे पर पूरा विश्व सिमट आया है।-Pad पर Mobile पर पुराने बिछुड़े मित्रों की महफिल जम गई है। चैट बाक्स पर फेसबुक पर या Whatsapp पर फैमिली ग्रुप, Office ग्रुप Business और न जाने कितने कितने ग्रुप आप के Mobile पर अड्डा जमाए बैठ गये है। सुबह से रात को सोते समय तक आपको व्यस्त कर दिया है इस Digital दुनिया ने।
अब भला कहाँ फुर्सत मिलती है दोस्तों के साथ ठहाके लगाने, बुआ मासी के आंचल में छिपकर लाड़ लड़वाने, ऑफिस के कलिग्स के साथ बैठकर बॉस के मिजाज की चर्चा करने का, लुत्फ उठाने का Whatsapp पर आए दो लाइनों के संदेश ने डाकिये का इंतजार समाप्त कर दिया, जो अपनों के लम्बे लम्बे पत्र लाता था. जिन्हें बार बार पढ़ कर हम अगले पत्र का इंतजार करते थे। उन चिट्ठियों में छिपा, प्यार, उलाहने, दर्द, खुशी इन Digital संदेशो में कहाँ समा पाया।
फेसबुक पर पसरी ढेरों फोटों क्या आमने सामने बैठे भाई “नों कजिन, मामा, चाचा के रिश्तों की उष्मा का स्पर्श करवा सकती हैं?
विदेश गये हमारे साथियों को वहाँ के समस्त भौतिक सुख सुविधायों में भी भारत के आत्मीय रिश्तों की उष्मा का अभाव
सालता रहा है, लेकिन अब तो इसके लिये विदेश जाने की भी जरुरत नहीं हैं। महानगरों की समस्त सुख सुविधाओं के बीच हमने स्वयं ही इस उष्मा को एक औपचारिक ठंडी में बदल दिया हैं।
घर से आँगन क्या गायब हुआ, परिवार का Meeting Spot ही चला गया। अपने अपने कमरे, अपनी अपनी Digital दुनिया। पहले एक मोहल्ला हुआ करता था जो हमारी पहचान बनती थी, मोहल्ले के हर परिवार ही नहीं उनके सदस्यों से भी परिचित रहते थे और अब तो मल्टी स्टोरी टॉवर में नीचे ऊपर कौन रहता है, वह तो जानना दूर की बात है, पड़ोस के फ्लैट में कौन है, ये भी नहीं मालूम।
मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा गया, क्यों कि उसका स्वभाव समाज में रहना था। लेकिन Digital दुनिया ने उसे व्यक्तिपरक बना दिया है। अन्य लोगों से कटा छिटका व्यक्ति क्या मनुष्य की परिभाषा में आएगा या फिर मशीन बनता चला जाएगा, जिसके पास कार्यक्षमता Expertise तो अद्भुत हो ती है। लेकिन संवेदनाऐं शून्य क्या हमारी विकास यात्रा, हमारी भावनाओं और संवेदनाओं की कीमत पर हो रही है। क्या यही हमारा वांछित विकास है?
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, गीत की कसक महसूस होती है, हम सबको ?
अब भला कहाँ फुर्सत मिलती है दोस्तों के साथ ठहाके लगाने, बुआ मासी के आंचल में छिपकर लाड़ लड़वाने, ऑफिस के कलिग्स के साथ बैठकर बॉस के मिजाज की चर्चा करने का, लुत्फ उठाने का Whatsapp पर आए दो लाइनों के संदेश ने डाकिये का इंतजार समाप्त कर दिया, जो अपनों के लम्बे लम्बे पत्र लाता था. जिन्हें बार बार पढ़ कर हम अगले पत्र का इंतजार करते थे। उन चिट्ठियों में छिपा, प्यार, उलाहने, दर्द, खुशी इन Digital संदेशो में कहाँ समा पाया।
फेसबुक पर पसरी ढेरों फोटों क्या आमने सामने बैठे भाई “नों कजिन, मामा, चाचा के रिश्तों की उष्मा का स्पर्श करवा सकती हैं?
विदेश गये हमारे साथियों को वहाँ के समस्त भौतिक सुख सुविधायों में भी भारत के आत्मीय रिश्तों की उष्मा का अभाव
सालता रहा है, लेकिन अब तो इसके लिये विदेश जाने की भी जरुरत नहीं हैं। महानगरों की समस्त सुख सुविधाओं के बीच हमने स्वयं ही इस उष्मा को एक औपचारिक ठंडी में बदल दिया हैं।
घर से आँगन क्या गायब हुआ, परिवार का Meeting Spot ही चला गया। अपने अपने कमरे, अपनी अपनी Digital दुनिया। पहले एक मोहल्ला हुआ करता था जो हमारी पहचान बनती थी, मोहल्ले के हर परिवार ही नहीं उनके सदस्यों से भी परिचित रहते थे और अब तो मल्टी स्टोरी टॉवर में नीचे ऊपर कौन रहता है, वह तो जानना दूर की बात है, पड़ोस के फ्लैट में कौन है, ये भी नहीं मालूम।
मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा गया, क्यों कि उसका स्वभाव समाज में रहना था। लेकिन Digital दुनिया ने उसे व्यक्तिपरक बना दिया है। अन्य लोगों से कटा छिटका व्यक्ति क्या मनुष्य की परिभाषा में आएगा या फिर मशीन बनता चला जाएगा, जिसके पास कार्यक्षमता Expertise तो अद्भुत हो ती है। लेकिन संवेदनाऐं शून्य क्या हमारी विकास यात्रा, हमारी भावनाओं और संवेदनाओं की कीमत पर हो रही है। क्या यही हमारा वांछित विकास है?
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, गीत की कसक महसूस होती है, हम सबको ?

निराशा को आशा में बदलता
डिफरेंटली एबल्ड [Diffrently Abled] बच्चों के लिए पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी'स का होमियोपैथी कैंप
कबीर दास जी कहते हैं-
जो कोई करै सो स्वार्थी,अरस परस गुण देत। बिन किये करै सो सूरमा,परमारथ के हेत ।।
अर्थात जो व्यक्ति अपने लिए किए गए कार्य के बदले में ही कुछ करता है, वह निश्चय ही स्वार्थी है। असली सूरमा तो वह है, जो बिना किसी उपकार की आशा के, केवल परमार्थ की सिद्धि के लिए दूसरों की सहायता एवं उपकार करते हैं।
मानव की पहचान उसके मानवीय गुणों दया, प्रेम,करुणा,क्षमा और परोपकार से होती है। ये मानवीय गुण किसी भी सभ्य समाज की नीव होते हैं । इन्हें संजोकर रखना आज के समय में मुश्किल कार्य है । लेकिन आज भी कुछ लोग हैं जो मुंबई महानगर में बिना स्वार्थ के लोगों के जीवन में नियति द्वारा दिए गए दु:खों को कम करने का भागीरथ प्रयास करते हुए मानवता की लौ को जलाये हुए हैं।
ऐसे ही परोपकारी कार्य के बारे में बताने जा रहे हैं जो गोरेगांव पश्चिम स्थित पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी'स द्वारा डिफरेंटली एबल्ड, [Autism] आटिज्म (मस्तिष्क के विकास के दौरान होने वाला विकार) से पीड़ित बच्चों के लाइलाज बीमारी का होमियोपैथी चिकित्सा द्वारा उपचार किया जा रहा है।
पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी’स के अध्यक्ष सी.ए., एस. एस. गुप्ता और सुरेश भागेरिया की प्रेरणा से विगत डेढ़ वर्षों से होम्योपैथ कैंप डॉ तन्मय विजयकर और उनकी टीम के नेतृत्व में सफलतापूर्वक आयोजित किया जा रहा है ।
इस बारे में पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी’स की प्राचार्या शुभांगी पवार कहती हैं - जब कैंप की शुरुवात हुई थी तो सिर्फ पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी’स के ४५ बच्चे शामिल थे। लेकिन उपचार के द्वारा बच्चों में हुए सकारात्मक परिणाम को देखते हुए चार अन्य स्कूल के बच्चे भी अब इसमें शामिल होने लगे हैं।
बच्चों को होमियोपैथी ट्रीटमेंट से बहुत फायदा हुआ है। जो बच्चे हाइपर थे वे शांत हो गए हैं, जिनको स्पीच में समस्या थी उनके स्पीच में इम्प्रूवमेंट हो गया है, जिनको कंसंट्रेशन का प्रॉब्लम थे वे अब कंसन्ट्रेट कर पा रहे हैं किसी एक चीज में।
डॉ तन्मय विजयकर इस होमियोपैथी कैंप के बारे में कहते हैं कि बच्चे में जो विकार है वह क्यों है ? उसका कारण क्या है ? इसके लिए हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि गर्भावस्था के दौरान मां की मानसिक स्थिति कैसी थी ? जैसी उनकी मानसिक स्थिति और वातावरण रहता है उसी के अनुसार बच्चा का विकास होता है तो इसीलिए हम मां से ज्यादा इस बारे में पूछते हैं और उसी के हिसाब से हम ट्रीटमेंट करते हैं ।
डॉ गिलानी कहते हैं - सीधे शब्दों में कहे तो फाल्ट प्रोडक्ट में नहीं बल्कि मैन्युफैक्चरिंग में है इसलिए हम उसे सही करेंगे तो प्रोडक्ट अपने आप सही हो जायेगा ।
पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी’स के डिफरेंटली एबल्ड स्कूल में [अलग प्रकार के योग्यता प्राप्त बच्चे] १७५ बच्चे पढ़ते हैं । पिछले साल अप्रैल २०२२ में अध्यक्ष बनने के बाद ये विचार किया कि बच्चों को पढ़ाना एक प्रक्रिया है लेकिन जो बच्चे जन्म से ही मानसिक, शारीरिक रूप से पूर्ण स्वस्थ नहीं होते, ऐसे बच्चों के अल्प विकसित मस्तिष्क विकार को दूर कैसे किया जाय? इन्हें अन्य बच्चों की तरह सामान्य बनाने के लिए होमियोपैथी कैंप शुरू किया गया । वर्तमान में १२० बच्चों का इलाज चल रहा है। हम अब तक 6 कैंप कर चुके हैं और हर कैंप में नए ४० से ५० बच्चों को जोड़ने का प्रयास रहता है । जिससे अधिक से अधिक लोग लाभान्वित हो सके -
“ एस . एस. गुप्ता - अध्यक्ष पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी’स” गोरेगांव (प.)
मेरे दो बच्चे रेहान असमदी और हफिफा असमदी 9 महीने से होमियोपैथी का इलाज कर रहे हैं । पहले दोनों बोलते नहीं थे लड़की का तो बोलने में एकदम साफ़ हो गया है, लड़के का थोडा तोतलापन है लेकिन पहले से साफ़ है। पहले तो मुंह से एकदम आवाज ही नहीं निकलती थी । अब तो बोलते हैं दोनों अम्मी ये काम करो वो काम करो । बहुत फायदा है इस दवा से ।
– उस्वाना मोहम्मद असमदी,जोगेश्वरी
जो कोई करै सो स्वार्थी,अरस परस गुण देत। बिन किये करै सो सूरमा,परमारथ के हेत ।।
अर्थात जो व्यक्ति अपने लिए किए गए कार्य के बदले में ही कुछ करता है, वह निश्चय ही स्वार्थी है। असली सूरमा तो वह है, जो बिना किसी उपकार की आशा के, केवल परमार्थ की सिद्धि के लिए दूसरों की सहायता एवं उपकार करते हैं।
मानव की पहचान उसके मानवीय गुणों दया, प्रेम,करुणा,क्षमा और परोपकार से होती है। ये मानवीय गुण किसी भी सभ्य समाज की नीव होते हैं । इन्हें संजोकर रखना आज के समय में मुश्किल कार्य है । लेकिन आज भी कुछ लोग हैं जो मुंबई महानगर में बिना स्वार्थ के लोगों के जीवन में नियति द्वारा दिए गए दु:खों को कम करने का भागीरथ प्रयास करते हुए मानवता की लौ को जलाये हुए हैं।
ऐसे ही परोपकारी कार्य के बारे में बताने जा रहे हैं जो गोरेगांव पश्चिम स्थित पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी'स द्वारा डिफरेंटली एबल्ड, [Autism] आटिज्म (मस्तिष्क के विकास के दौरान होने वाला विकार) से पीड़ित बच्चों के लाइलाज बीमारी का होमियोपैथी चिकित्सा द्वारा उपचार किया जा रहा है।
पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी’स के अध्यक्ष सी.ए., एस. एस. गुप्ता और सुरेश भागेरिया की प्रेरणा से विगत डेढ़ वर्षों से होम्योपैथ कैंप डॉ तन्मय विजयकर और उनकी टीम के नेतृत्व में सफलतापूर्वक आयोजित किया जा रहा है ।
इस बारे में पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी’स की प्राचार्या शुभांगी पवार कहती हैं - जब कैंप की शुरुवात हुई थी तो सिर्फ पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी’स के ४५ बच्चे शामिल थे। लेकिन उपचार के द्वारा बच्चों में हुए सकारात्मक परिणाम को देखते हुए चार अन्य स्कूल के बच्चे भी अब इसमें शामिल होने लगे हैं।
बच्चों को होमियोपैथी ट्रीटमेंट से बहुत फायदा हुआ है। जो बच्चे हाइपर थे वे शांत हो गए हैं, जिनको स्पीच में समस्या थी उनके स्पीच में इम्प्रूवमेंट हो गया है, जिनको कंसंट्रेशन का प्रॉब्लम थे वे अब कंसन्ट्रेट कर पा रहे हैं किसी एक चीज में।
डॉ तन्मय विजयकर इस होमियोपैथी कैंप के बारे में कहते हैं कि बच्चे में जो विकार है वह क्यों है ? उसका कारण क्या है ? इसके लिए हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि गर्भावस्था के दौरान मां की मानसिक स्थिति कैसी थी ? जैसी उनकी मानसिक स्थिति और वातावरण रहता है उसी के अनुसार बच्चा का विकास होता है तो इसीलिए हम मां से ज्यादा इस बारे में पूछते हैं और उसी के हिसाब से हम ट्रीटमेंट करते हैं ।
डॉ गिलानी कहते हैं - सीधे शब्दों में कहे तो फाल्ट प्रोडक्ट में नहीं बल्कि मैन्युफैक्चरिंग में है इसलिए हम उसे सही करेंगे तो प्रोडक्ट अपने आप सही हो जायेगा ।
पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी’स के डिफरेंटली एबल्ड स्कूल में [अलग प्रकार के योग्यता प्राप्त बच्चे] १७५ बच्चे पढ़ते हैं । पिछले साल अप्रैल २०२२ में अध्यक्ष बनने के बाद ये विचार किया कि बच्चों को पढ़ाना एक प्रक्रिया है लेकिन जो बच्चे जन्म से ही मानसिक, शारीरिक रूप से पूर्ण स्वस्थ नहीं होते, ऐसे बच्चों के अल्प विकसित मस्तिष्क विकार को दूर कैसे किया जाय? इन्हें अन्य बच्चों की तरह सामान्य बनाने के लिए होमियोपैथी कैंप शुरू किया गया । वर्तमान में १२० बच्चों का इलाज चल रहा है। हम अब तक 6 कैंप कर चुके हैं और हर कैंप में नए ४० से ५० बच्चों को जोड़ने का प्रयास रहता है । जिससे अधिक से अधिक लोग लाभान्वित हो सके -
“ एस . एस. गुप्ता - अध्यक्ष पुनर्वास एजुकेशन सोसाइटी’स” गोरेगांव (प.)
मेरे दो बच्चे रेहान असमदी और हफिफा असमदी 9 महीने से होमियोपैथी का इलाज कर रहे हैं । पहले दोनों बोलते नहीं थे लड़की का तो बोलने में एकदम साफ़ हो गया है, लड़के का थोडा तोतलापन है लेकिन पहले से साफ़ है। पहले तो मुंह से एकदम आवाज ही नहीं निकलती थी । अब तो बोलते हैं दोनों अम्मी ये काम करो वो काम करो । बहुत फायदा है इस दवा से ।
– उस्वाना मोहम्मद असमदी,जोगेश्वरी

रिश्ते सिर्फ़ प्यार और सम्मान माँगते हैं : रीता अग्रवाल
रिश्तों में प्यार, अपनापन, एहसास,भाव समझ का होना बहुत जरूरी है। यह रिश्ते ही तो हैं जो दुखी,निराश इंसान को जीने के लिए प्रोत्साहित करता है। टूटे हुए का जीने का सहारा बनते हैं ।
इन्हें बहुत जतन से संभाल कर रखना चाहिए ...
तप्त हृदय को , सरस स्नेह से ,
जो सहला दे ,मित्र (रिश्ते) वही है।
रूखे मन को , सराबोर कर,
जो नहला दे ,मित्र (रिश्ते)वही है।
- मैथिलीशरण गुप्त
रिश्ते तो जन्म से ही बनते हैं। जब एक नया शिशु जन्म लेता है तो वह अपने साथ कई नए रिश्तों की डोर अपने साथ लाता है और यह डोर उसके बड़े होने के साथ बनती और लम्बी होती चली जाती है ।
चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो उसे रिश्तों की जरूरत होती ही है । यह मनुष्य को संतोष देता है उसे पूर्णता की ओर ले जाता है । हमारे हिन्दू धर्म में सभी प्र्थाओं,तीज त्योहारों को रिश्तों से बाधा गया है । गर्भ संस्कार से लेकर मुंडन,विवाह, जनेऊ धारण (यगोपवीत) या अन्य कोई और संस्कार हो इन सब में हर रिश्ते की अपनी जगह है । कुछ रिवाज बहन,बेटी,बुआ,चाची के हिस्से आये तो कुछ फूफा, चाचा,जीजा,दादा के हिस्से आये । यहाँ तक की समाज के अन्य वर्ग जैसे धोबी,नाइ,जमादार,महरिन के लिए भी सम्माननीय स्थान है ।
प्रत्येक इंसान के लिए रिश्तों का महत्व अलग - अलग होता है। जो रिश्तों का महत्व समझते हैं वह इसे खूबसूरती से निभाते हैं और कुछ के जीवन में उसका कोई महत्व नहीं होता है।
लेकिन मेरे लिए रिश्तों का महत्व कुछ अलग है । आज मेरी उम्र ७० साल है और रिश्तों ने मुझे बेपनाह प्यार दिया है ।
जब मै शादी करके ससुराल आई तो उस समय मुझे ज्यादा कुछ नहीं आता था । एकदम अल्हड़ थी ।उस समय मेरी जेठानी ने पल पल छोटी बहन की तरह संभाला । बड़ा परिवार था ननद,देवर,जेठ सभी का सहयोग और प्यार मिला । इसीलिए मेरे लिए रिश्तों की बहुत अहमियत है । मै संयुक्त परिवार से आई थी वहां पर रिश्तों की अहमियत देखी थी । मधुर रिश्ते देखे थे ।
मै मुंबई आ गयी । यहाँ कुछ क़रीबी रिश्तेदार थे । यहाँ उन्होंने मुझे बहुत सम्मान और प्यार से अपनाया । पड़ोसी भी बहुत प्यारे मिले । जैसा कि मैंने पहले कहा था कि यदि रिश्ते अच्छे हो तो वे जीवन को ख़ुश और सरल बना देते हैं । मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ ।
चार वर्ष पहले मेरे पति का हार्ट का ऑपरेशन हुआ । सारे चाहने वाले दिन रात मेरा संबल बन कर खड़े रहे । ये रिश्ते ही तो थे जिन्होंने मुझे मुश्किल समय में सहारा दिया मेरे लिए खड़े रहे । आप कहेंगे मै तो अपनी कहानी सुनाने लगी,नहीं ये तो रिश्तों के ख़ूबसूरती की कहानी है । जो हम बोयेंगे वाही काटेंगे। अभी अभी का वाकया है आपको बताती हूँ (नरेन्द्र जी को भी पता है ) मेरे बड़ी बहन की पोती (ग्रैंडडॉटर) जसलोक हॉस्पिटल में गंभीर बीमारी से जूझ रही थी । उसकी उम्र पच्चीस वर्ष है । सबके होश उड़े हुए थे । हमने एक योजना बनायीं सभी पारिवारिक सदस्य, दोस्त,पड़ोसी, दोस्तों के दोस्त जिनको हम जानते भी नहीं थे ऐसे अनजान हजारों लोगों ने एक साथ महामृत्युंजय मंत्र,राम रक्षा स्त्रोत और हनुमान चालीसा का पाठ शुरू किया और यकीन मानिये वो बच्चा अब ठीक है । हाँ इसमें डॉक्टर का महत्वपूर्ण रोल काबिले तारीफ़ तो था ही लेकिन मै यहाँ रिश्तों का महत्व बताना चाह रही हूँ कि रिश्ते ऐसे होते हैं जो अनहोनी को होनी बना देते हैं । मेरा तो रिश्तों पर ऐसा विश्वास है ।
हमें जीवन में रिश्ते के मोल को,उनके महत्व को सही ढंग से समझना चाहिए । इसमें थोड़ी सहनशीलता, एक दूसरे को मान, उनकी परवाह,विश्वास, आशीर्वाद ,दुवाएं ये ऐसे मूलमंत्र हैं जो रिश्तों में खुशियाँ ही खुशियाँ भर देते हैं । रिश्ते सिर्फ प्यार और
सम्मान माँगते है जरूरत है तो -
कोई टूटे तो उसे सजाना सीखो
कोई रूठे तो उसे मनाना सीखो
"रिश्ते" तो मिलते हैं मुकद्दर से
बस उन्हें ख़ूबसूरती से निभाना सीखो
इन्हें बहुत जतन से संभाल कर रखना चाहिए ...
तप्त हृदय को , सरस स्नेह से ,
जो सहला दे ,मित्र (रिश्ते) वही है।
रूखे मन को , सराबोर कर,
जो नहला दे ,मित्र (रिश्ते)वही है।
- मैथिलीशरण गुप्त
रिश्ते तो जन्म से ही बनते हैं। जब एक नया शिशु जन्म लेता है तो वह अपने साथ कई नए रिश्तों की डोर अपने साथ लाता है और यह डोर उसके बड़े होने के साथ बनती और लम्बी होती चली जाती है ।
चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो उसे रिश्तों की जरूरत होती ही है । यह मनुष्य को संतोष देता है उसे पूर्णता की ओर ले जाता है । हमारे हिन्दू धर्म में सभी प्र्थाओं,तीज त्योहारों को रिश्तों से बाधा गया है । गर्भ संस्कार से लेकर मुंडन,विवाह, जनेऊ धारण (यगोपवीत) या अन्य कोई और संस्कार हो इन सब में हर रिश्ते की अपनी जगह है । कुछ रिवाज बहन,बेटी,बुआ,चाची के हिस्से आये तो कुछ फूफा, चाचा,जीजा,दादा के हिस्से आये । यहाँ तक की समाज के अन्य वर्ग जैसे धोबी,नाइ,जमादार,महरिन के लिए भी सम्माननीय स्थान है ।
प्रत्येक इंसान के लिए रिश्तों का महत्व अलग - अलग होता है। जो रिश्तों का महत्व समझते हैं वह इसे खूबसूरती से निभाते हैं और कुछ के जीवन में उसका कोई महत्व नहीं होता है।
लेकिन मेरे लिए रिश्तों का महत्व कुछ अलग है । आज मेरी उम्र ७० साल है और रिश्तों ने मुझे बेपनाह प्यार दिया है ।
जब मै शादी करके ससुराल आई तो उस समय मुझे ज्यादा कुछ नहीं आता था । एकदम अल्हड़ थी ।उस समय मेरी जेठानी ने पल पल छोटी बहन की तरह संभाला । बड़ा परिवार था ननद,देवर,जेठ सभी का सहयोग और प्यार मिला । इसीलिए मेरे लिए रिश्तों की बहुत अहमियत है । मै संयुक्त परिवार से आई थी वहां पर रिश्तों की अहमियत देखी थी । मधुर रिश्ते देखे थे ।
मै मुंबई आ गयी । यहाँ कुछ क़रीबी रिश्तेदार थे । यहाँ उन्होंने मुझे बहुत सम्मान और प्यार से अपनाया । पड़ोसी भी बहुत प्यारे मिले । जैसा कि मैंने पहले कहा था कि यदि रिश्ते अच्छे हो तो वे जीवन को ख़ुश और सरल बना देते हैं । मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ ।
चार वर्ष पहले मेरे पति का हार्ट का ऑपरेशन हुआ । सारे चाहने वाले दिन रात मेरा संबल बन कर खड़े रहे । ये रिश्ते ही तो थे जिन्होंने मुझे मुश्किल समय में सहारा दिया मेरे लिए खड़े रहे । आप कहेंगे मै तो अपनी कहानी सुनाने लगी,नहीं ये तो रिश्तों के ख़ूबसूरती की कहानी है । जो हम बोयेंगे वाही काटेंगे। अभी अभी का वाकया है आपको बताती हूँ (नरेन्द्र जी को भी पता है ) मेरे बड़ी बहन की पोती (ग्रैंडडॉटर) जसलोक हॉस्पिटल में गंभीर बीमारी से जूझ रही थी । उसकी उम्र पच्चीस वर्ष है । सबके होश उड़े हुए थे । हमने एक योजना बनायीं सभी पारिवारिक सदस्य, दोस्त,पड़ोसी, दोस्तों के दोस्त जिनको हम जानते भी नहीं थे ऐसे अनजान हजारों लोगों ने एक साथ महामृत्युंजय मंत्र,राम रक्षा स्त्रोत और हनुमान चालीसा का पाठ शुरू किया और यकीन मानिये वो बच्चा अब ठीक है । हाँ इसमें डॉक्टर का महत्वपूर्ण रोल काबिले तारीफ़ तो था ही लेकिन मै यहाँ रिश्तों का महत्व बताना चाह रही हूँ कि रिश्ते ऐसे होते हैं जो अनहोनी को होनी बना देते हैं । मेरा तो रिश्तों पर ऐसा विश्वास है ।
हमें जीवन में रिश्ते के मोल को,उनके महत्व को सही ढंग से समझना चाहिए । इसमें थोड़ी सहनशीलता, एक दूसरे को मान, उनकी परवाह,विश्वास, आशीर्वाद ,दुवाएं ये ऐसे मूलमंत्र हैं जो रिश्तों में खुशियाँ ही खुशियाँ भर देते हैं । रिश्ते सिर्फ प्यार और
सम्मान माँगते है जरूरत है तो -
कोई टूटे तो उसे सजाना सीखो
कोई रूठे तो उसे मनाना सीखो
"रिश्ते" तो मिलते हैं मुकद्दर से
बस उन्हें ख़ूबसूरती से निभाना सीखो

आँखों से दिल में उतरने वाला देश न्यूजीलैंड : जीतेन्द्र गुप्ता
कई देशों की यात्रा करने वाले जीतेन्द्र गुप्ता जी हाल ही में न्यूजीलैंड की यात्रा की प्रवासी चेतना ने उनसे बात कर उनके यात्रा अनुभव को जाना। प्रस्तुत है खूबसूरत यात्रा का संक्षिप्त वर्णन
न्यूज़ीलैंड चारो तरफ प्रशान्त महासागर से घिरा प्रकृति से भरपूर एक देश है। यह विकसित देश दो बड़े द्वीपों उत्तरी द्वीप और दक्षिणी द्वीप से बना है। इस द्वीप का वातावरण और सुहावना मौसम विश्व भर के सैलानियों को अपनी और आकर्षित करता है। यहाँ का स्वच्छ वातावरण, साफ़ - सफाई, सुन्दरता और व्यवस्थित तरीके से बसा शहर किसी का भी मन मोह लेता है । न्यूज़ीलैंड एक शांतिप्रिय देश है ।
इसकी राजधानी welligton है । कीवी यहाँ का राष्ट्रीय पक्षी है।
यह विविधता से भरा और सुंदर देश है । यहाँ मुख्य कृषि और दूध,डेरी और पर्यटन से सम्बंधित उद्योग हैं। जिनमें वाइन अंगूर, कीवी, चेरी आलू और सेब जैसी प्रमुख फ़सलें शामिल हैं। बड़े बड़े खेतों में मशीनो से काम होता है ।
न्यूजीलैंड का बागवानी उत्पादन बढ़ती वैश्विक आबादी की जरूरतों में योगदान देता है। यहां अच्छी खासी भारतीय प्रवासियों की संख्या है। जिसमे ज्यादातर उत्तर भारत के लोग होते हैं ।
शायद इसका कारण न्यूज़ीलैंड की जनसँख्या का कम होना है । जनसँख्या लगभग ५१ लाख है। यहाँ प्रवासियों की संख्या का एक ये भी कारण है । शौपिंग मॉल, स्टोर्स, शॉप्स आदि जगहों पर आपको भारतीय मिल जायेंगे ।
आकलैंड
न्यूज़ीलैंड का सबसे बड़ा नगर है। यहाँ के मॉल बहुत प्रसिध्द हैं । यहाँ लकड़ी तथा भोजनसामग्री इत्यादि का व्यवसाय भी होता है। यहाँ से लकड़ी, दूध के बने सामान, ऊन, चमड़ा, सोना और फल बाहर भेजा जाता है। यहाँ के आइसक्रीम बहुत प्रसिध्द हैं ।
रोटोरुआ
रोटोरुआ, न्यूजीलैंड के उत्तरी द्वीप पर झील पर बसा एक शहर है, रोटोरुआ मिट्टी के पूल, शूटिंग गीजर और प्राकृतिक गर्म झरनों के लिए जाना जाता है।यहाँ कभी ज्वालामुखी हुआ करते थे । यहाँ जो बात सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया वह था यहाँ ड्राईवर की ड्राइविंग स्किल । किस तरह थोड़े से जगह इतनी बड़ी बस मोड़ लेते थे देखते ही बनता था । सभी ड्राईवर की उम्र ६० वर्ष से अधिक ही थी ।
हाईवे पर यातायात के नियम वहां सिखने लायक था । यदि किसी को ओवर टेक करना हो तो वह एक निश्चित स्थान पर बने जगह पर ही कर सकता है । ओवरटेक के लिए एक निश्चित दूरी पर बीच बीच में ओवरटेक जगह बनी हुई है ।
कम प्रदूषण और ओजोन होल के नीचे स्थित होने के कारण यहाँ स्किन कैंसर ज्यादातर लोगों में पाया जाता है ।
कुल मिलाकर यह एक ऐसा देश है जिसे आँखों के द्वारा दिल में उतारने का मन करता है । अगर मौका मिले तो एक बार फिर देखना चाहूँगा इस शहर को ।
न्यूज़ीलैंड चारो तरफ प्रशान्त महासागर से घिरा प्रकृति से भरपूर एक देश है। यह विकसित देश दो बड़े द्वीपों उत्तरी द्वीप और दक्षिणी द्वीप से बना है। इस द्वीप का वातावरण और सुहावना मौसम विश्व भर के सैलानियों को अपनी और आकर्षित करता है। यहाँ का स्वच्छ वातावरण, साफ़ - सफाई, सुन्दरता और व्यवस्थित तरीके से बसा शहर किसी का भी मन मोह लेता है । न्यूज़ीलैंड एक शांतिप्रिय देश है ।
इसकी राजधानी welligton है । कीवी यहाँ का राष्ट्रीय पक्षी है।
यह विविधता से भरा और सुंदर देश है । यहाँ मुख्य कृषि और दूध,डेरी और पर्यटन से सम्बंधित उद्योग हैं। जिनमें वाइन अंगूर, कीवी, चेरी आलू और सेब जैसी प्रमुख फ़सलें शामिल हैं। बड़े बड़े खेतों में मशीनो से काम होता है ।
न्यूजीलैंड का बागवानी उत्पादन बढ़ती वैश्विक आबादी की जरूरतों में योगदान देता है। यहां अच्छी खासी भारतीय प्रवासियों की संख्या है। जिसमे ज्यादातर उत्तर भारत के लोग होते हैं ।
शायद इसका कारण न्यूज़ीलैंड की जनसँख्या का कम होना है । जनसँख्या लगभग ५१ लाख है। यहाँ प्रवासियों की संख्या का एक ये भी कारण है । शौपिंग मॉल, स्टोर्स, शॉप्स आदि जगहों पर आपको भारतीय मिल जायेंगे ।
आकलैंड
न्यूज़ीलैंड का सबसे बड़ा नगर है। यहाँ के मॉल बहुत प्रसिध्द हैं । यहाँ लकड़ी तथा भोजनसामग्री इत्यादि का व्यवसाय भी होता है। यहाँ से लकड़ी, दूध के बने सामान, ऊन, चमड़ा, सोना और फल बाहर भेजा जाता है। यहाँ के आइसक्रीम बहुत प्रसिध्द हैं ।
रोटोरुआ
रोटोरुआ, न्यूजीलैंड के उत्तरी द्वीप पर झील पर बसा एक शहर है, रोटोरुआ मिट्टी के पूल, शूटिंग गीजर और प्राकृतिक गर्म झरनों के लिए जाना जाता है।यहाँ कभी ज्वालामुखी हुआ करते थे । यहाँ जो बात सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया वह था यहाँ ड्राईवर की ड्राइविंग स्किल । किस तरह थोड़े से जगह इतनी बड़ी बस मोड़ लेते थे देखते ही बनता था । सभी ड्राईवर की उम्र ६० वर्ष से अधिक ही थी ।
हाईवे पर यातायात के नियम वहां सिखने लायक था । यदि किसी को ओवर टेक करना हो तो वह एक निश्चित स्थान पर बने जगह पर ही कर सकता है । ओवरटेक के लिए एक निश्चित दूरी पर बीच बीच में ओवरटेक जगह बनी हुई है ।
कम प्रदूषण और ओजोन होल के नीचे स्थित होने के कारण यहाँ स्किन कैंसर ज्यादातर लोगों में पाया जाता है ।
कुल मिलाकर यह एक ऐसा देश है जिसे आँखों के द्वारा दिल में उतारने का मन करता है । अगर मौका मिले तो एक बार फिर देखना चाहूँगा इस शहर को ।

ईश्वर पर भरोसा रखिये :
अशोक हरभजनका
होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस में लिखी यह एक चौपाई जो कहती है कि, संसार में घटने वाली किसी भी घटना पर व्यक्ति का कोई जोर नहीं चलता । जब जो होना होता है वह हो कर ही रहता है। अनावश्यक रूप से सोच कर दुःख को क्यों बढ़ाया जाय ।
इस संसार में जितने भी लोग का जन्म हुआ है सब का कोई न कोई अर्थ होता है। चाहे उसे पता हो या न हो ।
अपनी बुद्धि और श्रम के बल पर मनुष्य ने धरती को तो वश में कर ही लिया है, अन्य ग्रहों तक भी जा पहुंचा है। इसके बावजूद ईश्वर की लीला अपार है।आज भी बहुत सारी चीजे मनुष्य की क्षमता से बाहर है।
ईश्वर की महिमा अनंत है यह वाक्य आज भी जीवन के अभिन्न अंग बने हुए हैं। ईश्वर की मौजूदगी का अहसास इतना व्यापक है कि कण-कण में, जल में, नभ में या थल में, उसे कहीं भी महसूस किया जा सकता है।
बिना उसकी मर्जी के आप कुछ नहीं कर सकते। ईश्वर चाहेगा तो ही आप किसी की सहायता कर सकते हैं , ईश्वर चाहेगा तो ही पेड़ का पत्ता हिलेगा, वह चाहेगा तो ही दिन और रात होगी ।
उसकी परमसत्ता के आगे अपनी यानि व्यक्ति की हैसियत कुछ भी नहीं है, हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते ।
कहा जाता है न की हम सब ऊपर वाले की कठपुतली हैं । वह जैसे नचाता है वैसे ही हम नाचते हैं ।
हम सब तो इस दुनिया में किरदार निभाने आये हैं। निर्देशक तो ऊपर बैठा हमें अपना रोल अच्छी तरह निभाने के लिए कह रहा है । वह जिसको जो रोल देता है उसे वह हर हाल में निभाना होता है। चाहे उसकी मर्जी हो या न हो ।
अच्छाई बुराई तो तब से विद्यमान है जब से यह सृष्टि बनी हुई है । हमेशा से देव और दानवों में युद्ध होता रहता था ऐसा हम कहानियों में पढ़ते थे , और आज भी हैं । व्यक्ति को सिर्फ अपना कर्तव्य करते रहना है । कर्म को इस तरह मान कर किया जाय कि ईश्वर देख रहा है । तो कभी भी गलत कर्म नहीं कर सकेगा । वैसे भी चाहे जो भी अच्छे बुरे कर्म कितने भी एकांत में क्यों न किये जाय उसका कोई न कोई साक्षी अवश्य होता है । जिस दिन ऐसा विश्वास हो जायेगा यकीन मानिये आदमी खुश रहकर जीवन जीने की कला सीख जायेगा ।
उदहारण के लिए हम एयरोप्लेन में बैठते हैं, ट्रेन में बैठते है यह विश्वास ही रहता है कि चालक हमें हमारे गंतव्य तक आराम से पंहुचा देगा । जबकि न तो हम उस चालक को जानते हैं और न ही कभी उसे देखे रहते हैं । फिर भी विश्वास रहता है की वह हमें सही सलामत पंहुचा देगा ।
इसी तरह का विश्वास यदि ईश्वर के प्रति हो जाये तो व्यक्ति का जीवन जीना सरल हो जायेगा ।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस में लिखी यह एक चौपाई जो कहती है कि, संसार में घटने वाली किसी भी घटना पर व्यक्ति का कोई जोर नहीं चलता । जब जो होना होता है वह हो कर ही रहता है। अनावश्यक रूप से सोच कर दुःख को क्यों बढ़ाया जाय ।
इस संसार में जितने भी लोग का जन्म हुआ है सब का कोई न कोई अर्थ होता है। चाहे उसे पता हो या न हो ।
अपनी बुद्धि और श्रम के बल पर मनुष्य ने धरती को तो वश में कर ही लिया है, अन्य ग्रहों तक भी जा पहुंचा है। इसके बावजूद ईश्वर की लीला अपार है।आज भी बहुत सारी चीजे मनुष्य की क्षमता से बाहर है।
ईश्वर की महिमा अनंत है यह वाक्य आज भी जीवन के अभिन्न अंग बने हुए हैं। ईश्वर की मौजूदगी का अहसास इतना व्यापक है कि कण-कण में, जल में, नभ में या थल में, उसे कहीं भी महसूस किया जा सकता है।
बिना उसकी मर्जी के आप कुछ नहीं कर सकते। ईश्वर चाहेगा तो ही आप किसी की सहायता कर सकते हैं , ईश्वर चाहेगा तो ही पेड़ का पत्ता हिलेगा, वह चाहेगा तो ही दिन और रात होगी ।
उसकी परमसत्ता के आगे अपनी यानि व्यक्ति की हैसियत कुछ भी नहीं है, हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते ।
कहा जाता है न की हम सब ऊपर वाले की कठपुतली हैं । वह जैसे नचाता है वैसे ही हम नाचते हैं ।
हम सब तो इस दुनिया में किरदार निभाने आये हैं। निर्देशक तो ऊपर बैठा हमें अपना रोल अच्छी तरह निभाने के लिए कह रहा है । वह जिसको जो रोल देता है उसे वह हर हाल में निभाना होता है। चाहे उसकी मर्जी हो या न हो ।
अच्छाई बुराई तो तब से विद्यमान है जब से यह सृष्टि बनी हुई है । हमेशा से देव और दानवों में युद्ध होता रहता था ऐसा हम कहानियों में पढ़ते थे , और आज भी हैं । व्यक्ति को सिर्फ अपना कर्तव्य करते रहना है । कर्म को इस तरह मान कर किया जाय कि ईश्वर देख रहा है । तो कभी भी गलत कर्म नहीं कर सकेगा । वैसे भी चाहे जो भी अच्छे बुरे कर्म कितने भी एकांत में क्यों न किये जाय उसका कोई न कोई साक्षी अवश्य होता है । जिस दिन ऐसा विश्वास हो जायेगा यकीन मानिये आदमी खुश रहकर जीवन जीने की कला सीख जायेगा ।
उदहारण के लिए हम एयरोप्लेन में बैठते हैं, ट्रेन में बैठते है यह विश्वास ही रहता है कि चालक हमें हमारे गंतव्य तक आराम से पंहुचा देगा । जबकि न तो हम उस चालक को जानते हैं और न ही कभी उसे देखे रहते हैं । फिर भी विश्वास रहता है की वह हमें सही सलामत पंहुचा देगा ।
इसी तरह का विश्वास यदि ईश्वर के प्रति हो जाये तो व्यक्ति का जीवन जीना सरल हो जायेगा ।

परोपकार मानवीय गुण है :
जो आप दोगे वही पाओगे
- मंजू शर्मा
" मंजू शर्मा जी एक प्रसिद्ध क्लिनिकल न्यूट्रिशन प्रैक्टिशनर हैं , गायन का शौक है । अध्यात्म और भारतीय संस्कृति की पक्षधर मंजू जी कई विषयों पर, कई मंचों से अपने विचारों को व्यक्त करतीं आयीं हैं । वह एक चिन्तक भी हैं। हम ने हाल ही में मुंबई में उनके घर भेंट की तो उनके लीक से हटकर विचार व्यक्त करने की शैली से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए ।हमने उनसे निवेदन किया कि यदि आपकी अनुमति हो तो आपसे हुई बातचीत को हम अपनी पत्रिका में स्थान दें ? वे सहर्ष तैयार हो गयीं ।" प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश..
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में उच्च, मध्य और निम्न सभी वर्ग के लोग रहते हैं। जिसमे बहुत सारे लोग बुनियादी(आधारभूत) सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं । उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए किये गए सहायता को परोपकार कहा जाता है । उनकी बुनियादी मदद करना मनुष्य का धर्म है ।
मंजू जी से हमने बातचीत के दौरान पूछा की परोपकार और समाज सेवा के सन्दर्भ में आपका दृष्टिकोण क्या है ? तो उन्होंने बताया कि परोपकार हमारे भारतीय जीवन का अभिन्न अंग है । शास्त्रों में परोपकार को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया गया है । यही मनुष्य का परम धर्म है । एक दोहे का उल्लेख करते हुए मंजू जी कहती हैं -
वृक्ष कबहुँ न फल भखै, नदी न संचय नीर
परमार्थ के कारन साधु न धरा शरीर
प्रकृति से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। वृक्ष कभी अपने फल स्वयं नहीं खातें, नदियाँ कभी अपना जल स्वयं नहीं पीतीं अपितु ये हम मनुष्यों में बाँट देती हैं। इसी तरह सज्जन व्यक्ति अपनी संपत्ति और शरीर को परोपकार में लगाते हैं ।
आज समाज में परोपकार और समाज सेवा को लेकर नजरिया थोड़ा बदला हुआ है, लोग दिखावा करने लगे हैं। जब दान धर्म करते हैं तो उससे उनकी अपेक्षा जुड़ जाती है । गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
अर्थात कर्म करिए फल की चिंता मत करिए ।
कबीर दास जी ने भी अपने एक दोहे में कहा है-
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहैं कबीर सेवक नहीं, कहैं चौगुना दाम ।।
सेवा के बदले कोई अपेक्षा रखना सही नहीं है । वे कहती हैं कि मेरे विचार से यदि हम किसी की कुछ सहायता या मदद करते हैं तो मदद या दान शब्द की जगह हमें उपहार या गिफ्ट का भाव रखना चाहिए । क्योंकि मदद या दान शब्द में कर्म जुड़ जाता है। जिसे देने या लेने वालों को कभी न कभी चुकाना पड़ता है । यह जीवन लेन - देन के कर्मों से ही जुड़ा है । यदि हम मदद या दान उपहार स्वरूप देते हैं तो हम लेने-देने के बंधन से मुक्त हो जाते हैं ।
जब आप कुछ परोपकार करते हैं तो आप अपने लिए करते हैं, अपनी ख़ुशी के लिए करते हैं । दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब हम ऐसा करते हैं तो सामने वाले को यह नहीं लगना चाहिए कि हम उस पर कोई एहसान कर रहे हैं। देने और लेने में समानता होनी चाहिए न कोई किसी से बड़ा और न कोई किसी से छोटा । वैसे भी हमारे यहाँ यह कहावत है कि यदि एक हाथ मदद करे तो दूसरे हाथ को पता भी नहीं चलना चाहिए । गुप्तदान का बड़ा महत्व है ।
कृष्ण और सुदामा की मित्रता कौन नहीं जानता । उनकी मित्रता हमें यह सीख देती है कि बिना किसी को एहसास दिलाये कि वह गरीब है, उसकी सहायता और सेवा की जा सकती है ।
हमारी भारतीय संस्कृति संस्कारों से भरी हुई है। कोई किसी से खुश होकर कभी नहीं माँगता । कई बार वह अपने ज़मीर से लड़ा होता है , उससे समझौता किया होता है। इसलिए ध्यान रखें की मदद करते समय सामने वाले को छोटेपन का एहसास जरा भी न हो।
सहायता करते समय कृतज्ञता का भाव होना चाहिए । नीयत साफ़ होनी चाहिए, विनम्रता रहनी चाहिए। प्रत्येक कार्य को ईश्वर का आदेश मानकर करना चाहिए । घमंड या गर्व का जरा भी आभास नहीं होना चाहिए। क्योंकि -
देनहार कोई और है , देवत है दिन रैन
लोग भरम हम पर करे या ते नीचे नैन
देने वाला तो ईश्वर है। यदि कोई आपके पास मदद या सहायता के लिए आता है तो आपको खुश होना चाहिए और उसका आभार मानना चाहिए । क्योंकि इस शुभ कार्य के लिए ईश्वर ने आपको निमित्त बनाया है और लेने वाले ने भी आपको यह अवसर दिया है ।
उदाहरण के लिए कन्या दान को बड़ा दान माना गया है, कन्या विवाह करने से आदमी पुण्य कमाता है, लेकिन कल्पना करिए जब आपके पास कोई मदद के लिए आयेगा ही नहीं तो आप किसकी मदद करोगे ?
यदि ईश्वर ने आपको इस योग्य बनाया है कि आप दूसरों के लिए कुछ मदद कर सकते हैं तो उसमे कई लोगों का योगदान होता है, लोगों का आशीर्वाद और प्यार शामिल होता है। यदि आप ने किसी की कुछ सहायता की तो उसके मन से निकला आशीर्वाद आपके द्वारा की गयी सहायता से कहीं बड़ा होता है । इसलिए जब भी ईश्वर आपको यह मौका दे तो जरूर करें क्योंकि परोपकार एक मानवीय गुण है और इसे सभी को प्रदर्शित करना ही चाहिए।
प्रकृति का पहिया निरंतर घूमता रहता है । जो हम देते हैं वापस हमारे पास घूमकर आता ही है । इसलिए जब भी सेवा करें तो निःस्वार्थ भाव से करें ।
मंजू जी बताती हैं सेवा के कई तरीके होते हैं । सहायता सिर्फ धन से ही नहीं होती, बल्कि जब आप किसी को मुस्कुराने की वजह दे देते हैं तो भी यह सेवा का स्वरूप है, किसी के पास बैठकर दो मिनट उसका हालचाल पूछ लिया तो यह भी एक सेवा है। आपने किसी को सही राह दिखा दी, या जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दे दी तो यह भी सेवा का ही एक रूप है।
घर में काम करने वाले सेवक भी तो सेवा ही कर रहे होते हैं भले ही हम उन्हें वेतन दे रहे हैं । किन्तु सेवा कोई वस्तु नहीं जिसे ख़रीदा जा सके बल्कि एक क्रिया है जिसमे पैसों से पहले भाव,लगन और समर्पण का समावेश जरूरीं है । तन, मन, धन जिसमे जो सक्षम है उससे उसको जरूरतमंदों की सहायता अवश्य करनी चाहिए । बस नीयत सही रहे।
हमें जिस काम से ख़ुशी मिलती है वही हमें दूसरों के लिए भी करना चाहिए।
दान या मदद लेने वाला कभी छोटा नहीं होता अपितु वह ऐसा करके हमें बड़ा बना देता है ।
अंत में अपनी बातों को विराम देते हुई मंजू शर्मा जी कहती हैं ,
"एक स्वस्थ समाज का निर्माण करने के लिए इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि इस संसार में कोई छोटा बड़ा नहीं है । व्यक्ति खाली हाथ आया है और खाली हाथ ही जायेगा। सिर्फ उसके कर्मो का फल ही उसके साथ जाता है अतः जितना हो सके सत्कर्म करना चाहिए और हाँ याद रखें यह दान या मदद किसी पर उपकार नहीं है यह तो स्वयं की ख़ुशी और भलाई के लिए किया गया वह पवित्र भाव है, जो आपने सामने वाले को भेंट स्वरूप प्रस्तुत किया है ।"
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में उच्च, मध्य और निम्न सभी वर्ग के लोग रहते हैं। जिसमे बहुत सारे लोग बुनियादी(आधारभूत) सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं । उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए किये गए सहायता को परोपकार कहा जाता है । उनकी बुनियादी मदद करना मनुष्य का धर्म है ।
मंजू जी से हमने बातचीत के दौरान पूछा की परोपकार और समाज सेवा के सन्दर्भ में आपका दृष्टिकोण क्या है ? तो उन्होंने बताया कि परोपकार हमारे भारतीय जीवन का अभिन्न अंग है । शास्त्रों में परोपकार को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया गया है । यही मनुष्य का परम धर्म है । एक दोहे का उल्लेख करते हुए मंजू जी कहती हैं -
वृक्ष कबहुँ न फल भखै, नदी न संचय नीर
परमार्थ के कारन साधु न धरा शरीर
प्रकृति से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। वृक्ष कभी अपने फल स्वयं नहीं खातें, नदियाँ कभी अपना जल स्वयं नहीं पीतीं अपितु ये हम मनुष्यों में बाँट देती हैं। इसी तरह सज्जन व्यक्ति अपनी संपत्ति और शरीर को परोपकार में लगाते हैं ।
आज समाज में परोपकार और समाज सेवा को लेकर नजरिया थोड़ा बदला हुआ है, लोग दिखावा करने लगे हैं। जब दान धर्म करते हैं तो उससे उनकी अपेक्षा जुड़ जाती है । गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
अर्थात कर्म करिए फल की चिंता मत करिए ।
कबीर दास जी ने भी अपने एक दोहे में कहा है-
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहैं कबीर सेवक नहीं, कहैं चौगुना दाम ।।
सेवा के बदले कोई अपेक्षा रखना सही नहीं है । वे कहती हैं कि मेरे विचार से यदि हम किसी की कुछ सहायता या मदद करते हैं तो मदद या दान शब्द की जगह हमें उपहार या गिफ्ट का भाव रखना चाहिए । क्योंकि मदद या दान शब्द में कर्म जुड़ जाता है। जिसे देने या लेने वालों को कभी न कभी चुकाना पड़ता है । यह जीवन लेन - देन के कर्मों से ही जुड़ा है । यदि हम मदद या दान उपहार स्वरूप देते हैं तो हम लेने-देने के बंधन से मुक्त हो जाते हैं ।
जब आप कुछ परोपकार करते हैं तो आप अपने लिए करते हैं, अपनी ख़ुशी के लिए करते हैं । दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब हम ऐसा करते हैं तो सामने वाले को यह नहीं लगना चाहिए कि हम उस पर कोई एहसान कर रहे हैं। देने और लेने में समानता होनी चाहिए न कोई किसी से बड़ा और न कोई किसी से छोटा । वैसे भी हमारे यहाँ यह कहावत है कि यदि एक हाथ मदद करे तो दूसरे हाथ को पता भी नहीं चलना चाहिए । गुप्तदान का बड़ा महत्व है ।
कृष्ण और सुदामा की मित्रता कौन नहीं जानता । उनकी मित्रता हमें यह सीख देती है कि बिना किसी को एहसास दिलाये कि वह गरीब है, उसकी सहायता और सेवा की जा सकती है ।
हमारी भारतीय संस्कृति संस्कारों से भरी हुई है। कोई किसी से खुश होकर कभी नहीं माँगता । कई बार वह अपने ज़मीर से लड़ा होता है , उससे समझौता किया होता है। इसलिए ध्यान रखें की मदद करते समय सामने वाले को छोटेपन का एहसास जरा भी न हो।
सहायता करते समय कृतज्ञता का भाव होना चाहिए । नीयत साफ़ होनी चाहिए, विनम्रता रहनी चाहिए। प्रत्येक कार्य को ईश्वर का आदेश मानकर करना चाहिए । घमंड या गर्व का जरा भी आभास नहीं होना चाहिए। क्योंकि -
देनहार कोई और है , देवत है दिन रैन
लोग भरम हम पर करे या ते नीचे नैन
देने वाला तो ईश्वर है। यदि कोई आपके पास मदद या सहायता के लिए आता है तो आपको खुश होना चाहिए और उसका आभार मानना चाहिए । क्योंकि इस शुभ कार्य के लिए ईश्वर ने आपको निमित्त बनाया है और लेने वाले ने भी आपको यह अवसर दिया है ।
उदाहरण के लिए कन्या दान को बड़ा दान माना गया है, कन्या विवाह करने से आदमी पुण्य कमाता है, लेकिन कल्पना करिए जब आपके पास कोई मदद के लिए आयेगा ही नहीं तो आप किसकी मदद करोगे ?
यदि ईश्वर ने आपको इस योग्य बनाया है कि आप दूसरों के लिए कुछ मदद कर सकते हैं तो उसमे कई लोगों का योगदान होता है, लोगों का आशीर्वाद और प्यार शामिल होता है। यदि आप ने किसी की कुछ सहायता की तो उसके मन से निकला आशीर्वाद आपके द्वारा की गयी सहायता से कहीं बड़ा होता है । इसलिए जब भी ईश्वर आपको यह मौका दे तो जरूर करें क्योंकि परोपकार एक मानवीय गुण है और इसे सभी को प्रदर्शित करना ही चाहिए।
प्रकृति का पहिया निरंतर घूमता रहता है । जो हम देते हैं वापस हमारे पास घूमकर आता ही है । इसलिए जब भी सेवा करें तो निःस्वार्थ भाव से करें ।
मंजू जी बताती हैं सेवा के कई तरीके होते हैं । सहायता सिर्फ धन से ही नहीं होती, बल्कि जब आप किसी को मुस्कुराने की वजह दे देते हैं तो भी यह सेवा का स्वरूप है, किसी के पास बैठकर दो मिनट उसका हालचाल पूछ लिया तो यह भी एक सेवा है। आपने किसी को सही राह दिखा दी, या जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दे दी तो यह भी सेवा का ही एक रूप है।
घर में काम करने वाले सेवक भी तो सेवा ही कर रहे होते हैं भले ही हम उन्हें वेतन दे रहे हैं । किन्तु सेवा कोई वस्तु नहीं जिसे ख़रीदा जा सके बल्कि एक क्रिया है जिसमे पैसों से पहले भाव,लगन और समर्पण का समावेश जरूरीं है । तन, मन, धन जिसमे जो सक्षम है उससे उसको जरूरतमंदों की सहायता अवश्य करनी चाहिए । बस नीयत सही रहे।
हमें जिस काम से ख़ुशी मिलती है वही हमें दूसरों के लिए भी करना चाहिए।
दान या मदद लेने वाला कभी छोटा नहीं होता अपितु वह ऐसा करके हमें बड़ा बना देता है ।
अंत में अपनी बातों को विराम देते हुई मंजू शर्मा जी कहती हैं ,
"एक स्वस्थ समाज का निर्माण करने के लिए इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि इस संसार में कोई छोटा बड़ा नहीं है । व्यक्ति खाली हाथ आया है और खाली हाथ ही जायेगा। सिर्फ उसके कर्मो का फल ही उसके साथ जाता है अतः जितना हो सके सत्कर्म करना चाहिए और हाँ याद रखें यह दान या मदद किसी पर उपकार नहीं है यह तो स्वयं की ख़ुशी और भलाई के लिए किया गया वह पवित्र भाव है, जो आपने सामने वाले को भेंट स्वरूप प्रस्तुत किया है ।"

गैरजिम्मेदार- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया!
डाॅ धीरज फूलमती सिंह
वरिष्ठ स्तंभकार
हाल के वक्त में आम अवाम की आवाज माना जाने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आज अपनी जमीन खोते जा रहा है। यह कभी लोगो के विचारों और मजलूमों की हुंकार माना जाता था,आज समाज के प्रभावशाली लोंगो से प्रभावित है,उनकी ही तिमारदारी में लगा प्रतित होता है।
आज हालात ऐसे बनते जा रहे है कि आम लोगो का भरोसा इस पर से डगमगा रहा है। इसकी खबरों पर विश्वास करना मुश्किल होता जा रहा है। अभ आम जनमानस का ऐसा मानना है कि आज इलेक्ट्रॉनिक मिडिया गॉसिप बाॅक्स में तब्दील हो चुके है,सिवाय खाली बैठी महिलाओ की तरह इनके पास गॉसिप करने के कोई ठोस और माकूल समाचार नही होता है। अब तो दबी जुबान में ऐसा कहा जाने लगा है कि न्यूज चैनल समाचार नही देते बल्की सचमार होते है।
न्यूज स्टूडियो मछली बाजार बन चुके है,न्यूज दिखाने से ज्यादा हल्ला गुल्ला और चिल्लपों मची रहती है। इस वजह से सोशल मिडिया के सामने ये अपनी प्रासंगिकता भी खोते जा रहे है।
हाल ही में भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मिडिया को लेकर इडेलमैन कंपनी का एक सर्वे आया है। इस सर्वे के मुताबिक इलेक्ट्रॉनिक मिडिया आम जनता के बीच पूरी तरह से अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। सर्वे से यह भी जानकारी हासिल हुई है कि यह मिडिया फर्जी स्टोरी और गलत प्रचार में लगा हुआ है। इन हाल की बात करें तो मिडिया का यह विभाग पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुका है। समाज के रसूखदार तबके की चाकरी करने लगा है,इस वजह से इसके पास जिम्मेदारी और मूल्यों का सर्वथा अभाव हो चुका है। अपने कर्तव्य के निर्वाह में गैर जिम्मेदार हो गया है। लोकतंत्र के चौथे खंभे की इलेक्ट्रॉनिक मिडिया के तरफ वाली दिवार जर्जर हो गई है,पपडी छोडने लगी है।
यही सब कारण है कि कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने खासकर इलेक्ट्रॉनिक मिडिया पर सवाल खडे किये थे। पत्रकार कुछ भी अपने मन का समाचार नही दे सकते है,जिसकी वे कल्पना करते है,ना ही वे ऐसा व्यवहार कर सकते है,जैसे वे किसी मंच पर बैठे है। उन्हे जिम्मेदार होना होगा। अब तो ऐसा हो रहा है कि इलेक्ट्रॉनिक मिडिया स्टुडियों में बैठ कर ही तय करने लगा है कि कौन वादी होगा,कौन प्रतिवादी होगा ? और तो और फैसले भी खूद ही देने लगा है। जबकि की उसे निष्पक्ष होकर जस के तस समाचार पेश करना चाहिए लेकिन यह अब निर्णय करने लगा है,जो नैतिक नही है,संविधान सम्मत नही है।
इलेक्ट्रॉनिक मिडिया के दिन प्रतिदिन ह्रास होते स्तर की बानगी देखिए, मैं क्या कहना चाहता हूँ,आप आसानी से आत्म साद करने को मजबूर हो जायेगे। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के माफिया डाॅन अतिक अहमद को सडक के रास्ते प्रयागराज लाया जा रहा था और न्यूज चैनल के संवाददाता कैसी न्यूज कवरेज कर रहे थे। इस से इनके गिरते स्तर को आसानी से अनुभव किया जा सकता है।
" अतिक अहमद जी को गुजरात की जेल से इलाहाबाद ले आया जा रहा है। अतिक अहमद साहब का चेहरा शांत है। उन्हे तीन गाडियों के काफिले में ले जाया जा रहा है। वे इस बीच वाली में बैठेगे। उनकी गाडी के आगे पिछे एक-एक गाडी सुरक्षा में तैनात रहेगी। "
कल देर रात आजतक न्यूज चैनल पर एक संवाददाता अतिक अहमद की खबर का सीधा प्रसारण कर रहा था। आप उसके शब्दो पर ध्यान दिजिए, इतनी इज्जत तो आज कोई साधू महात्मा और नेताओ को नही देता,जितनी इज्जत वो एक सजा याफ्ता माफिया व्यक्ति को दे रहा था।
इलाहाबाद का नाम अब प्रयागराज हो चुका है लेकिन आजतक का संवाददाता बार-बार इलाहाबाद बोल रहा था। यह तो हाल है,आज की पत्रकारिता का ? और अगर गलती से कोई इनको "प्रेस्टीट्यूड" कह दे तो हल्ला मचाने लगते है।
आर भारत पर एक संवाददाता खबर दे रहा था कि... "अतिक अहमद की गाडी सुबह लगभग 03 बजे के आसपास शिव पुरी के इलाके में होगी। शिवपुरी एकदम सुनसान इलाका है, सडक के चारों तरफ जंगल है, यहा जंगली जानवर बहुत है। इतनी सुबह आवा जाही भी ना के बराबर होती है। दूर-दूर तक गाडियाँ और लोग दिखाई नही देते है।"
अब ध्यान दिजिए, आप को कही से लग रहा है कि आर भारत का संवाददाता कोई खबर दे रहा है,पत्रकारिता कर रहा है ? एक आम आदमी को भी लगेगा कि ये खबर के बहाने अतिक अहमद और उसके गुर्गो को गाडी पलटाने का इशारा दे रहे है, एनकाउंटर से सचेत कर रहे है!
अब इस से ज्यादा हास्यास्पद क्या हो सकता है कि न्यूज चैनल अतिक अहमद के रास्ते में पेशाब करने की भी एक्सक्लूसिव रिपोर्ट पेश कर रहे थे। एक गुडे की पेशाब करने की खबर दी जा रही थी और जनता जनार्दन की राय मांगी जा रही थी,दिन प्रतिदिन इलेक्ट्रॉनिक मिडीया अपने स्तर को और भी नीचे ला रहा है।
सच बताऊ,मुझे तो ऐसी शंका लग रही है कि अतिक अहमद के गुजरात जेल से उत्तर प्रदेश के जेल में ट्रांसफर का न्यूज चैनलों का सीधा प्रसारण की खबर और कुछ नही है,बल्कि यह सब जानबूझकर किया जा रहा है ताकि अतिक अहमद को गाडी पलटने या फिर एनकाउंटर से साफ-साफ बचाया जा सके। .....सब मिले हुए है,जी !
"उपर से खूश करने को खबर दे रहे थे कि अतिक अहमद डरा हुआ है,उसके चेहरे से हवाईयां उड रही है। उत्तर प्रदेश आने के नाम पर कांप रहा है। "
अब इनसे कोई पूछे तो सही कि अतिक अहमद डरा हुआ है,कांप रहा है" यह बात आप को कौन बता रहा है ? अतिक अहमद तो खूद कबूल करने से रहा और पुलिस कोई खबर लीक नही करेगी तो आप को कैसे पता चली ?
मिडिया को खबरों के लिए गैर जिम्मेदार नही होना चाहिए। ऐसा ही कुछ 26/11 के मुंबई आतंकवादी हमलों के वक्त भी हुआ था। जब भारतीय न्यूज चैनलों के माध्यम से खबरें पाकिस्तान में देखी जाती थी और फिर वहां बैठे आतंकवाद के सरगना खबरों के माध्यम से ताज होटल में घुसे आतंकवादियों को आदेश देते थे,इशारा और सावधान करते थे।
आज हालात ऐसे बनते जा रहे है कि आम लोगो का भरोसा इस पर से डगमगा रहा है। इसकी खबरों पर विश्वास करना मुश्किल होता जा रहा है। अभ आम जनमानस का ऐसा मानना है कि आज इलेक्ट्रॉनिक मिडिया गॉसिप बाॅक्स में तब्दील हो चुके है,सिवाय खाली बैठी महिलाओ की तरह इनके पास गॉसिप करने के कोई ठोस और माकूल समाचार नही होता है। अब तो दबी जुबान में ऐसा कहा जाने लगा है कि न्यूज चैनल समाचार नही देते बल्की सचमार होते है।
न्यूज स्टूडियो मछली बाजार बन चुके है,न्यूज दिखाने से ज्यादा हल्ला गुल्ला और चिल्लपों मची रहती है। इस वजह से सोशल मिडिया के सामने ये अपनी प्रासंगिकता भी खोते जा रहे है।
हाल ही में भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मिडिया को लेकर इडेलमैन कंपनी का एक सर्वे आया है। इस सर्वे के मुताबिक इलेक्ट्रॉनिक मिडिया आम जनता के बीच पूरी तरह से अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। सर्वे से यह भी जानकारी हासिल हुई है कि यह मिडिया फर्जी स्टोरी और गलत प्रचार में लगा हुआ है। इन हाल की बात करें तो मिडिया का यह विभाग पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुका है। समाज के रसूखदार तबके की चाकरी करने लगा है,इस वजह से इसके पास जिम्मेदारी और मूल्यों का सर्वथा अभाव हो चुका है। अपने कर्तव्य के निर्वाह में गैर जिम्मेदार हो गया है। लोकतंत्र के चौथे खंभे की इलेक्ट्रॉनिक मिडिया के तरफ वाली दिवार जर्जर हो गई है,पपडी छोडने लगी है।
यही सब कारण है कि कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने खासकर इलेक्ट्रॉनिक मिडिया पर सवाल खडे किये थे। पत्रकार कुछ भी अपने मन का समाचार नही दे सकते है,जिसकी वे कल्पना करते है,ना ही वे ऐसा व्यवहार कर सकते है,जैसे वे किसी मंच पर बैठे है। उन्हे जिम्मेदार होना होगा। अब तो ऐसा हो रहा है कि इलेक्ट्रॉनिक मिडिया स्टुडियों में बैठ कर ही तय करने लगा है कि कौन वादी होगा,कौन प्रतिवादी होगा ? और तो और फैसले भी खूद ही देने लगा है। जबकि की उसे निष्पक्ष होकर जस के तस समाचार पेश करना चाहिए लेकिन यह अब निर्णय करने लगा है,जो नैतिक नही है,संविधान सम्मत नही है।
इलेक्ट्रॉनिक मिडिया के दिन प्रतिदिन ह्रास होते स्तर की बानगी देखिए, मैं क्या कहना चाहता हूँ,आप आसानी से आत्म साद करने को मजबूर हो जायेगे। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के माफिया डाॅन अतिक अहमद को सडक के रास्ते प्रयागराज लाया जा रहा था और न्यूज चैनल के संवाददाता कैसी न्यूज कवरेज कर रहे थे। इस से इनके गिरते स्तर को आसानी से अनुभव किया जा सकता है।
" अतिक अहमद जी को गुजरात की जेल से इलाहाबाद ले आया जा रहा है। अतिक अहमद साहब का चेहरा शांत है। उन्हे तीन गाडियों के काफिले में ले जाया जा रहा है। वे इस बीच वाली में बैठेगे। उनकी गाडी के आगे पिछे एक-एक गाडी सुरक्षा में तैनात रहेगी। "
कल देर रात आजतक न्यूज चैनल पर एक संवाददाता अतिक अहमद की खबर का सीधा प्रसारण कर रहा था। आप उसके शब्दो पर ध्यान दिजिए, इतनी इज्जत तो आज कोई साधू महात्मा और नेताओ को नही देता,जितनी इज्जत वो एक सजा याफ्ता माफिया व्यक्ति को दे रहा था।
इलाहाबाद का नाम अब प्रयागराज हो चुका है लेकिन आजतक का संवाददाता बार-बार इलाहाबाद बोल रहा था। यह तो हाल है,आज की पत्रकारिता का ? और अगर गलती से कोई इनको "प्रेस्टीट्यूड" कह दे तो हल्ला मचाने लगते है।
आर भारत पर एक संवाददाता खबर दे रहा था कि... "अतिक अहमद की गाडी सुबह लगभग 03 बजे के आसपास शिव पुरी के इलाके में होगी। शिवपुरी एकदम सुनसान इलाका है, सडक के चारों तरफ जंगल है, यहा जंगली जानवर बहुत है। इतनी सुबह आवा जाही भी ना के बराबर होती है। दूर-दूर तक गाडियाँ और लोग दिखाई नही देते है।"
अब ध्यान दिजिए, आप को कही से लग रहा है कि आर भारत का संवाददाता कोई खबर दे रहा है,पत्रकारिता कर रहा है ? एक आम आदमी को भी लगेगा कि ये खबर के बहाने अतिक अहमद और उसके गुर्गो को गाडी पलटाने का इशारा दे रहे है, एनकाउंटर से सचेत कर रहे है!
अब इस से ज्यादा हास्यास्पद क्या हो सकता है कि न्यूज चैनल अतिक अहमद के रास्ते में पेशाब करने की भी एक्सक्लूसिव रिपोर्ट पेश कर रहे थे। एक गुडे की पेशाब करने की खबर दी जा रही थी और जनता जनार्दन की राय मांगी जा रही थी,दिन प्रतिदिन इलेक्ट्रॉनिक मिडीया अपने स्तर को और भी नीचे ला रहा है।
सच बताऊ,मुझे तो ऐसी शंका लग रही है कि अतिक अहमद के गुजरात जेल से उत्तर प्रदेश के जेल में ट्रांसफर का न्यूज चैनलों का सीधा प्रसारण की खबर और कुछ नही है,बल्कि यह सब जानबूझकर किया जा रहा है ताकि अतिक अहमद को गाडी पलटने या फिर एनकाउंटर से साफ-साफ बचाया जा सके। .....सब मिले हुए है,जी !
"उपर से खूश करने को खबर दे रहे थे कि अतिक अहमद डरा हुआ है,उसके चेहरे से हवाईयां उड रही है। उत्तर प्रदेश आने के नाम पर कांप रहा है। "
अब इनसे कोई पूछे तो सही कि अतिक अहमद डरा हुआ है,कांप रहा है" यह बात आप को कौन बता रहा है ? अतिक अहमद तो खूद कबूल करने से रहा और पुलिस कोई खबर लीक नही करेगी तो आप को कैसे पता चली ?
मिडिया को खबरों के लिए गैर जिम्मेदार नही होना चाहिए। ऐसा ही कुछ 26/11 के मुंबई आतंकवादी हमलों के वक्त भी हुआ था। जब भारतीय न्यूज चैनलों के माध्यम से खबरें पाकिस्तान में देखी जाती थी और फिर वहां बैठे आतंकवाद के सरगना खबरों के माध्यम से ताज होटल में घुसे आतंकवादियों को आदेश देते थे,इशारा और सावधान करते थे।

LGBT हमारे समाज पर मंडरा रहा सबसे डरावना साया : श्रीरंग पेंढारकर
LGBT हमारे समाज पर मंडरा रहा सबसे डरावना साया है। चूंकि हमारे समाज में यौन विषयों पर चिन्तन, चर्चा लगभग वर्जित ही है, इसलिए इस आसन्न खतरे के बारे में कोई विमर्श नजर नहीं आ रहा है। इस विषय पर समाज की अनभिज्ञता, उदासीनता और अनिच्छा के चलते तथाकथित वामपंथी लिबरल्स (उदारवादी) इस विषय पर सक्रिय है और इसे समाज में प्रतिष्ठित करने में जुटे हुए हैं।
वामपन्थ का लक्ष्य विरासत में चली आ रही संस्कृति को संकीर्ण, सड़ी हुई और विकृत सिद्ध करना रहता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे साहित्य, कला, पत्रकारिता, विज्ञापन, फिल्म आदि माध्यमों का इस कुशलता के साथ उपयोग करते हैं कि सामान्य मनुष्य यह समझ भी नहीं पाता कि कब उसका व्यवहार, बातचीत, शब्दावली और विचार करने के तरीके बदल चुके हैं। इस बदलाव को जीवन का हिस्सा बनाने का कार्य अन्तत: फिल्म अभिनेता, अभिनेत्रियां, मॉडल्स, प्रसिद्ध खिलाड़ी आदि करते हैं।
इन माध्यमों से आपकी विचारधारा में, दृष्टिकोण में और व्यवहार में अनेक बदलाव लाए गए हैं। उदाहरण के लिव इन व्यवस्था के बारे में विचार कीजिए। आपने यह शब्द पहली बार कब सुना होगा? सबसे पहले आपने किस युगल के बारे में सुना कि वे बगैर विवाह किए साथ रह रहे हैं?
एक सामान्य व्यक्ति ने पच्चीस वर्ष पहले यह शब्द सुना ही नहीं था। फिर सलून में बाल बनवाने की प्रतीक्षा करते समय पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं में किसी अभिनेता के किसी अभिनेत्री के साथ रहने की खबरें पढ़ी जाने लगी। फिर स्त्री मुक्ति के नाम पर विकृति फैलाने वाली पत्रिकाओं ने इसे स्त्री की स्वतंत्रता से जोड़ना शुरू कर दिया। फिर लघुकथाओं और उपन्यासों में पति-पत्नी की जगह साथी, पार्टनर, मित्र आदि शब्दों का प्रयोग होने लगा। फिर AIDS जैसी बीमारी को ऐसे प्रचारित किया गया जैसे यह एक महामारी है और हर व्यक्ति इसकी चपेट में आने वाला है। इसके बारे में जागरूकता बढ़ाने के बहाने से धीरे धीरे यौन सम्बन्ध और विवाह की सांस्कृतिक डोरी को दरकिनार कर दिया गया। “परिवार नियोजन” की जगह ”सुरक्षित यौन सम्बन्धों” ने ले ली। फिर कौन अभिनेता या सितारा खिलाड़ी किस महिला मित्र के साथ छुट्टियां मनाने गया है, इसके सचित्र वर्णन अखबारों और पत्रिकाओं में आने लगे।
मात्र दो दशकों में विवाह नामक हजारों वर्ष से चली आ रही परम्परा को, जो हमारे सामाजिक जीवन का मूलाधार है, नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया है। आप को पता भी नहीं चला और आपके विचार, व्यवहार और दृष्टिकोण बदल दिए गए हैं। अब आप बॉय फ्रेंड, गर्ल फ्रेंड, लिव इन, डेटिंग, रिलेशनशिप आदि शब्दों का ऐसे प्रयोग कर रहे हैं, मानो ये शब्द आपको विरासत में मिले हैं और ये आपकी संस्कृति में रचे बसे हैं। पच्चीस वर्षों में आपके मनो मस्तिष्क को इतना बदल दिया गया है कि आज आप अपने परिवार में इन घटनाओं को होता देख विचलित नहीं होंगे। आप कहेंगे जमाना ही ऐसा है, सब चलता है।
यकीन मानिए अब अगला लक्ष्य समलैंगिकता है। लेख लिखे जा रहे हैं। नेटफ्लिक्स जैसी वाहिनियों पर प्रदर्शित फिल्मों और धारावाहिकों में समलैंगिक पात्र आवश्यक हो चुका है। अदालतें सारे काम छोड़ कर समलिंगियो के अधिकार परिभाषित करने में जुटी हुई है। विपरीत लिंगियों में बगैर विवाह के लिव इन में साथ रहने की स्वतन्त्रता के पक्षधर ही आज समलिंगियो के विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए लड़ाई रहे हैं।
आने वाले समय में समलेंगिकता आपको हर तरफ सुनाई देने लगेगी। यूरोप और अमेरिका में इसका सामन्यीकरण हो चुका है। अब यहां भी आलेख लिखे जायेंगे। टीवी पर बहसे होंगी। फिल्मों और धारावाहिकों में पात्र गढ़े जायेंगे। स्टैंड अप कॉमेडियन इस पर बात करेंगे। सितारा खिलाड़ी और अभिनेता अपने समलिंगी होने की घोषणा करेंगे। समलिंगियों के सम्मेलन होंगे उनके तथाकथित अधिकारों की लड़ाइयां लड़ी जाएगी। न्याय पालिका उनके पक्ष में फैसले देंगी।
समाज में एक नया वर्ग बनाया जायेगा। उसे बताया जाएगा कि वह पीड़ित है। फिर उसके लिए लड़ाइयां लड़ी जाएंगी। जो इसके विरोध में बात करेगा उसे दकियानूसी करार दिया जाएगा। उसकी हंसी उड़ाई जायेगी और उसे स्वतंत्रता विरोधी बताया जाएगा।
वामपंथ का उद्देश्य प्रचलित धारणाओं को तोड़ कर समाज में उश्रृंखलता को बढ़ावा देना है। इनका निशाना बच्चे और किशोर होते हैं। परिवार की एक बेटी कुछ महीने पहले अध्ययन हेतु इंग्लैंड गई है। उसका अनुभव है कि वहां नए परिचय में नाम के साथ अपनी यौन प्राथमिकता बताना आम हो चुका है। हाथ मिलाते समय ही आपसे पूछ लिया जाता है कि आप समलिंगी है, या विपरीत लिंगी या दोनो?
क्या हम इस आंधी को रोक सकते हैं? शायद नहीं। परन्तु हम उसकी तीव्रता को कम कर सकते हैं। बच्चों को अपनी रीतियों के बारे में अवगत कराएं। संस्कृति की महत्ता से परिचित कराएं। उन्हे विश्वास दिलाए कि पुराना मतलब बेकार और दकियानूसी होना आवश्यक नहीं होता। नया सब कुछ सही और बेहतर होना भी आवश्यक नहीं होता।
वामपन्थ का लक्ष्य विरासत में चली आ रही संस्कृति को संकीर्ण, सड़ी हुई और विकृत सिद्ध करना रहता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे साहित्य, कला, पत्रकारिता, विज्ञापन, फिल्म आदि माध्यमों का इस कुशलता के साथ उपयोग करते हैं कि सामान्य मनुष्य यह समझ भी नहीं पाता कि कब उसका व्यवहार, बातचीत, शब्दावली और विचार करने के तरीके बदल चुके हैं। इस बदलाव को जीवन का हिस्सा बनाने का कार्य अन्तत: फिल्म अभिनेता, अभिनेत्रियां, मॉडल्स, प्रसिद्ध खिलाड़ी आदि करते हैं।
इन माध्यमों से आपकी विचारधारा में, दृष्टिकोण में और व्यवहार में अनेक बदलाव लाए गए हैं। उदाहरण के लिव इन व्यवस्था के बारे में विचार कीजिए। आपने यह शब्द पहली बार कब सुना होगा? सबसे पहले आपने किस युगल के बारे में सुना कि वे बगैर विवाह किए साथ रह रहे हैं?
एक सामान्य व्यक्ति ने पच्चीस वर्ष पहले यह शब्द सुना ही नहीं था। फिर सलून में बाल बनवाने की प्रतीक्षा करते समय पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं में किसी अभिनेता के किसी अभिनेत्री के साथ रहने की खबरें पढ़ी जाने लगी। फिर स्त्री मुक्ति के नाम पर विकृति फैलाने वाली पत्रिकाओं ने इसे स्त्री की स्वतंत्रता से जोड़ना शुरू कर दिया। फिर लघुकथाओं और उपन्यासों में पति-पत्नी की जगह साथी, पार्टनर, मित्र आदि शब्दों का प्रयोग होने लगा। फिर AIDS जैसी बीमारी को ऐसे प्रचारित किया गया जैसे यह एक महामारी है और हर व्यक्ति इसकी चपेट में आने वाला है। इसके बारे में जागरूकता बढ़ाने के बहाने से धीरे धीरे यौन सम्बन्ध और विवाह की सांस्कृतिक डोरी को दरकिनार कर दिया गया। “परिवार नियोजन” की जगह ”सुरक्षित यौन सम्बन्धों” ने ले ली। फिर कौन अभिनेता या सितारा खिलाड़ी किस महिला मित्र के साथ छुट्टियां मनाने गया है, इसके सचित्र वर्णन अखबारों और पत्रिकाओं में आने लगे।
मात्र दो दशकों में विवाह नामक हजारों वर्ष से चली आ रही परम्परा को, जो हमारे सामाजिक जीवन का मूलाधार है, नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया है। आप को पता भी नहीं चला और आपके विचार, व्यवहार और दृष्टिकोण बदल दिए गए हैं। अब आप बॉय फ्रेंड, गर्ल फ्रेंड, लिव इन, डेटिंग, रिलेशनशिप आदि शब्दों का ऐसे प्रयोग कर रहे हैं, मानो ये शब्द आपको विरासत में मिले हैं और ये आपकी संस्कृति में रचे बसे हैं। पच्चीस वर्षों में आपके मनो मस्तिष्क को इतना बदल दिया गया है कि आज आप अपने परिवार में इन घटनाओं को होता देख विचलित नहीं होंगे। आप कहेंगे जमाना ही ऐसा है, सब चलता है।
यकीन मानिए अब अगला लक्ष्य समलैंगिकता है। लेख लिखे जा रहे हैं। नेटफ्लिक्स जैसी वाहिनियों पर प्रदर्शित फिल्मों और धारावाहिकों में समलैंगिक पात्र आवश्यक हो चुका है। अदालतें सारे काम छोड़ कर समलिंगियो के अधिकार परिभाषित करने में जुटी हुई है। विपरीत लिंगियों में बगैर विवाह के लिव इन में साथ रहने की स्वतन्त्रता के पक्षधर ही आज समलिंगियो के विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए लड़ाई रहे हैं।
आने वाले समय में समलेंगिकता आपको हर तरफ सुनाई देने लगेगी। यूरोप और अमेरिका में इसका सामन्यीकरण हो चुका है। अब यहां भी आलेख लिखे जायेंगे। टीवी पर बहसे होंगी। फिल्मों और धारावाहिकों में पात्र गढ़े जायेंगे। स्टैंड अप कॉमेडियन इस पर बात करेंगे। सितारा खिलाड़ी और अभिनेता अपने समलिंगी होने की घोषणा करेंगे। समलिंगियों के सम्मेलन होंगे उनके तथाकथित अधिकारों की लड़ाइयां लड़ी जाएगी। न्याय पालिका उनके पक्ष में फैसले देंगी।
समाज में एक नया वर्ग बनाया जायेगा। उसे बताया जाएगा कि वह पीड़ित है। फिर उसके लिए लड़ाइयां लड़ी जाएंगी। जो इसके विरोध में बात करेगा उसे दकियानूसी करार दिया जाएगा। उसकी हंसी उड़ाई जायेगी और उसे स्वतंत्रता विरोधी बताया जाएगा।
वामपंथ का उद्देश्य प्रचलित धारणाओं को तोड़ कर समाज में उश्रृंखलता को बढ़ावा देना है। इनका निशाना बच्चे और किशोर होते हैं। परिवार की एक बेटी कुछ महीने पहले अध्ययन हेतु इंग्लैंड गई है। उसका अनुभव है कि वहां नए परिचय में नाम के साथ अपनी यौन प्राथमिकता बताना आम हो चुका है। हाथ मिलाते समय ही आपसे पूछ लिया जाता है कि आप समलिंगी है, या विपरीत लिंगी या दोनो?
क्या हम इस आंधी को रोक सकते हैं? शायद नहीं। परन्तु हम उसकी तीव्रता को कम कर सकते हैं। बच्चों को अपनी रीतियों के बारे में अवगत कराएं। संस्कृति की महत्ता से परिचित कराएं। उन्हे विश्वास दिलाए कि पुराना मतलब बेकार और दकियानूसी होना आवश्यक नहीं होता। नया सब कुछ सही और बेहतर होना भी आवश्यक नहीं होता।

खेलो इंडिया और खेल महाकुंभ से तराशे जा रहे भविष्य के ओलंपिक खिलाड़ी
खेलो इंडिया और खेल महाकुंभ से तराशे जा रहे भविष्य के ओलंपिक खिलाड़ी
देश में, खास कर ग्रामीण इलाकों में खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन संसाधनों और सरकारी मदद के अभाव में प्रतिभा सामने नहीं आ पाती थी इससे न सिर्फ युवा बल्कि देश का भी नुकसान हो रहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश ने युवाओं की शक्ति को पहचाना और वर्ष 2014 से अब तक खेल के बजट में तीन गुना की बढ़ोतरी की गई, ताकि शारीरिक और मानसिक विकास के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धाओं के लिए खिलाड़ियों को तैयार किया जा सके। इसी कड़ी में खेलो इंडिया के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर प्रतिभा निखारने के लिए सांसद खेल महाकुंभ जैसे कार्यक्रमों का किया जा रहा आयोजन...
भारत के युवाओं में खेल के प्रति जुनून और प्रतिभा दोनों है लेकिन संसाधनों के अभाव और सरकार से समर्थन की कमी के कारण बाधाएं रहती थी। अब एथलीटों के सामने आने वाली इन समस्याओं का समाधान किया जा रहा है। केंद्र सरकार की ओर से आज देश में खेल विश्वविद्यालय स्थापित हो रहे हैं और खेल महाकुंभ जैसे बड़े कार्यक्रम भी पेशेवर तरीके से आयोजित किये जा रहे हैं। खेल प्रबंधन और खेल प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रत्येक विषय को सीखने के लिए एक ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है जिससे युवाओं को इन क्षेत्रों में अपना करियर बनाने का अवसर मिले। प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं, “हमारी सरकार इस बात पर ध्यान दे रही है कि पैसे की कमी के कारण कोई भी युवा पीछे न छूटे।Д केंद्र सरकार अब सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों को सालाना 5 लाख रुपये तक का समर्थन कर रही है। प्रमुख खेल पुरस्कारों में दी जाने वाली राशि को भी बढ़ाकर तीन गुना कर दिया गया है।
खेलों को बढ़ावा और युवाओं को उत्साहित करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 5 फरवरी को जयपुर महाकुंभ प्रतियोगिता में शामिल हुए और कबड्डी मैच भी देखा। महाकुंभ आयोजन में प्रधानमंत्री मोदी शामिल हुए। उनके उत्साहवर्धक संदेश से खिलाड़ी उत्साहित हुए और आयोजकों काे भी ताकत मिली। इससे देश के लिए बेहतरीन खिलाड़ी तैयार करने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश को खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। जयपुर खेल महाकुंभ का आयोजन वर्ष-2017 से किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां एक जनसभा के संबोधन में कहा, “खिलाड़ी खेल के मैदान में केवल भाग लेने नहीं बल्कि जीतने और सीखने के लिए आए हैं। जीत तभी सुनिश्चित होती है, जब उसमें सीखने की लगन शामिल होती है। कोई भी खिलाड़ी खेल के मैदान से खाली हाथ नहीं जाता।” इन दिनों पूरे देश में खेल प्रतिस्पर्धाओं और खेल महाकुंभों की श्रृंखला आयोजित की जा रही है और यह पहल व्यापक स्तर पर हो रहे परिवर्तनों को दर्शाती है। प्रधानमंत्री मोदी ने युवाओं से कहा कि इतिहास में इस बात के प्रमाण हैं कि इस भूमि के बच्चों ने अपने पराक्रम से युद्ध के मैदान को खेल के मैदान में बदल दिया है। जब देश की सुरक्षा की बात आती है तो राजस्थान के युवा हमेशा दूसरों से आगे रहते हैं।
राजस्थान के कई एथलीट का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि जयपुर के लोगों ने तो एक ओलंपिक पदक विजेता को अपने सांसद के रूप में चुना है। वहीं सांसद राज्यवर्धन सिंह राठौर खेल प्रतिस्पर्धाओं के रूप में योगदान देकर युवा पीढ़ी को खेल के मैदान में वापस ला रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने फिटनेस में आहार और पोषण की भूमिका के संबंध में कहा कि “आप फिट होंगे, तभी आप सुपरहिट होंगे।” प्रधानमंत्री की ओर से यहां पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2023 को पोषक अनाज वर्ष के रूप में मनाने की जानकारी दी और कहा कि श्री अन्न को न केवल अपने आहार में शामिल करें बल्कि उनसे ब्रांड एंबेसडर बनने की भी अपील की।
सरकार का मानना है कि खेल केवल एक शैली नहीं है, बल्कि एक उद्योग है, क्योंकि खेल से संबंधित चीजें और संसाधन बना रहे एमएसएमई के माध्यम से बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिल रहा है। उन्होंने खेल क्षेत्र से जुड़े एमएसएमई को मजबूत करने के लिए बजट में की गई कई महत्वपूर्ण घोषणाओं की जानकारी दी। पीएम विश्वकर्मा कौशल सम्मान यानी पीएम विकास योजना का उदाहरण दिया और कहा कि यह योजना शारीरिक कौशल और हाथ के औजारों से काम करने वाले लोगों के लिए बहुत मददगार साबित होगी। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि जब पूरे मन से प्रयास किए जाते हैं, तो परिणाम सुनिश्चित होते हैं। उन्होंने कहा कि जयपुर महाकुंभ के दौरान किए गए प्रयासों के भविष्य में शानदार परिणाम मिलेंगे। प्रधानमंत्री ने निष्कर्ष के तौर पर कहा, “देश के लिए अगला स्वर्ण और रजत पदक विजेता आपके बीच से निकलेगा। अगर आप निश्चय कर लेंगे, तो ओलंपिक में भी तिरंगे की शान बढ़ा पायेंगे।” n
..........
ओलंपिक जैसी बड़ी वैश्विक प्रतियोगिताओं में भी सरकार पूरी शक्ति से अपने खिलाड़ियों के साथ खड़ी रहती है। TOPS जैसी स्कीम के जरिए वर्षों पहले से खिलाड़ी आेलंपिक की तैयारी कर रहे हैं। केंद्र सरकार अब जिला स्तर और स्थानीय स्तर तक स्पोर्ट्स फैसिलिटीज बना रही है। अब तक देश के सैकड़ों जिलों में लाखों युवाओं के लिए स्पोट्स इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया गया है।
– नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री
देश में, खास कर ग्रामीण इलाकों में खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन संसाधनों और सरकारी मदद के अभाव में प्रतिभा सामने नहीं आ पाती थी इससे न सिर्फ युवा बल्कि देश का भी नुकसान हो रहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश ने युवाओं की शक्ति को पहचाना और वर्ष 2014 से अब तक खेल के बजट में तीन गुना की बढ़ोतरी की गई, ताकि शारीरिक और मानसिक विकास के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धाओं के लिए खिलाड़ियों को तैयार किया जा सके। इसी कड़ी में खेलो इंडिया के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर प्रतिभा निखारने के लिए सांसद खेल महाकुंभ जैसे कार्यक्रमों का किया जा रहा आयोजन...
भारत के युवाओं में खेल के प्रति जुनून और प्रतिभा दोनों है लेकिन संसाधनों के अभाव और सरकार से समर्थन की कमी के कारण बाधाएं रहती थी। अब एथलीटों के सामने आने वाली इन समस्याओं का समाधान किया जा रहा है। केंद्र सरकार की ओर से आज देश में खेल विश्वविद्यालय स्थापित हो रहे हैं और खेल महाकुंभ जैसे बड़े कार्यक्रम भी पेशेवर तरीके से आयोजित किये जा रहे हैं। खेल प्रबंधन और खेल प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रत्येक विषय को सीखने के लिए एक ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है जिससे युवाओं को इन क्षेत्रों में अपना करियर बनाने का अवसर मिले। प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं, “हमारी सरकार इस बात पर ध्यान दे रही है कि पैसे की कमी के कारण कोई भी युवा पीछे न छूटे।Д केंद्र सरकार अब सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों को सालाना 5 लाख रुपये तक का समर्थन कर रही है। प्रमुख खेल पुरस्कारों में दी जाने वाली राशि को भी बढ़ाकर तीन गुना कर दिया गया है।
खेलों को बढ़ावा और युवाओं को उत्साहित करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 5 फरवरी को जयपुर महाकुंभ प्रतियोगिता में शामिल हुए और कबड्डी मैच भी देखा। महाकुंभ आयोजन में प्रधानमंत्री मोदी शामिल हुए। उनके उत्साहवर्धक संदेश से खिलाड़ी उत्साहित हुए और आयोजकों काे भी ताकत मिली। इससे देश के लिए बेहतरीन खिलाड़ी तैयार करने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश को खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। जयपुर खेल महाकुंभ का आयोजन वर्ष-2017 से किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां एक जनसभा के संबोधन में कहा, “खिलाड़ी खेल के मैदान में केवल भाग लेने नहीं बल्कि जीतने और सीखने के लिए आए हैं। जीत तभी सुनिश्चित होती है, जब उसमें सीखने की लगन शामिल होती है। कोई भी खिलाड़ी खेल के मैदान से खाली हाथ नहीं जाता।” इन दिनों पूरे देश में खेल प्रतिस्पर्धाओं और खेल महाकुंभों की श्रृंखला आयोजित की जा रही है और यह पहल व्यापक स्तर पर हो रहे परिवर्तनों को दर्शाती है। प्रधानमंत्री मोदी ने युवाओं से कहा कि इतिहास में इस बात के प्रमाण हैं कि इस भूमि के बच्चों ने अपने पराक्रम से युद्ध के मैदान को खेल के मैदान में बदल दिया है। जब देश की सुरक्षा की बात आती है तो राजस्थान के युवा हमेशा दूसरों से आगे रहते हैं।
राजस्थान के कई एथलीट का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि जयपुर के लोगों ने तो एक ओलंपिक पदक विजेता को अपने सांसद के रूप में चुना है। वहीं सांसद राज्यवर्धन सिंह राठौर खेल प्रतिस्पर्धाओं के रूप में योगदान देकर युवा पीढ़ी को खेल के मैदान में वापस ला रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने फिटनेस में आहार और पोषण की भूमिका के संबंध में कहा कि “आप फिट होंगे, तभी आप सुपरहिट होंगे।” प्रधानमंत्री की ओर से यहां पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2023 को पोषक अनाज वर्ष के रूप में मनाने की जानकारी दी और कहा कि श्री अन्न को न केवल अपने आहार में शामिल करें बल्कि उनसे ब्रांड एंबेसडर बनने की भी अपील की।
सरकार का मानना है कि खेल केवल एक शैली नहीं है, बल्कि एक उद्योग है, क्योंकि खेल से संबंधित चीजें और संसाधन बना रहे एमएसएमई के माध्यम से बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिल रहा है। उन्होंने खेल क्षेत्र से जुड़े एमएसएमई को मजबूत करने के लिए बजट में की गई कई महत्वपूर्ण घोषणाओं की जानकारी दी। पीएम विश्वकर्मा कौशल सम्मान यानी पीएम विकास योजना का उदाहरण दिया और कहा कि यह योजना शारीरिक कौशल और हाथ के औजारों से काम करने वाले लोगों के लिए बहुत मददगार साबित होगी। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि जब पूरे मन से प्रयास किए जाते हैं, तो परिणाम सुनिश्चित होते हैं। उन्होंने कहा कि जयपुर महाकुंभ के दौरान किए गए प्रयासों के भविष्य में शानदार परिणाम मिलेंगे। प्रधानमंत्री ने निष्कर्ष के तौर पर कहा, “देश के लिए अगला स्वर्ण और रजत पदक विजेता आपके बीच से निकलेगा। अगर आप निश्चय कर लेंगे, तो ओलंपिक में भी तिरंगे की शान बढ़ा पायेंगे।” n
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ओलंपिक जैसी बड़ी वैश्विक प्रतियोगिताओं में भी सरकार पूरी शक्ति से अपने खिलाड़ियों के साथ खड़ी रहती है। TOPS जैसी स्कीम के जरिए वर्षों पहले से खिलाड़ी आेलंपिक की तैयारी कर रहे हैं। केंद्र सरकार अब जिला स्तर और स्थानीय स्तर तक स्पोर्ट्स फैसिलिटीज बना रही है। अब तक देश के सैकड़ों जिलों में लाखों युवाओं के लिए स्पोट्स इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया गया है।
– नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

हमें नारीत्व का सम्मान चाहिए : उर्मिला रूंगटा
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः" प्रायः इस पंक्ति से नारी को सम्मानित करने का आग्रह रहता है । लेकिन क्या नारी को पूज्यनीय बनाकर उसे आम इंसान से खास इंसान का दर्जा देना हमारा देश है। क्या नारिया देवी बनना चाहती हैं? नहीं ! उन्हें एक व्यक्ति के रूप में बिना लिंगभेद के सामाजिक स्वीकार्यता चाहिए । उन्हें दोयम दर्जा भी नहीं चाहिए और श्रेष्ठ तर देवी का दर्जा भी नहीं चाहिए, उसे सिर्फ बराबरी का दर्जा चाहिए और उसकी नारी सुलभ प्राकृतिक विशेषताओं का सम्मान चाहिए।
हमारे देश के संविधान ने महिलाओं को बिना लिंग भेद के ए सब अधिकार दिए हैं। यह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि रही है क्योंकि बहू से विकसित देशों जैसे अमेरिका जर्मनी में भी यह अधिकार हासिल करने में महिलाओं को संघर्ष करना पड़ा था।
इसी संदर्भ में समय-समय पर महिलाओं के हित में कानून बनाए गए ताकि हकीकत में उन्हें न्याय प्राप्त हो। इसी तरह के कई मूल अधिकार उन्हें प्राप्त हैं। आज के समय में महिलाएं हर क्षेत्र में अपना योगदान दे रही हैं। घर हो या बाहर कुछ कारणों से उन्हें बहुत ही परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसलिए उन्हें निम्न कानूनी सुरक्षा प्राप्त है ।
घरेलू हिंसा के खिलाफ भारतीय संविधान की धारा 498 के अनुसार पत्नी, लिव इन पार्टनर या कोई भी घर में रहने वाली महिला, जिसे घरेलू हिंसा सहनी पड़ती है, पुलिस और कोर्ट में इसके खिलाफ आवाज उठा सकती है।
2- पिता की संपत्ति में बेटी को बराबर का अधिकार
3- किसी महिला को सूर्यास्त यानी 6:00 बजे के बाद या सूर्योदय 6:00 बजे के पहले गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है।
4- दहेज विरोधी कानून
5- कार्य स्थल पर हो रही उत्पीड़न के खिलाफ
6- महिलाओं की पहचान की रक्षा के लिए यौन उत्पीड़न के मामले में नाम नाम ना छापने का अधिकार
7- महिलाओं को गलत तरीके से देखने ,छुने या घूरने के खिलाफ
8- गर्भवती महिलाओं को अपने और बच्चे की देखभाल के लिए सर्वे तनिक छुट्टी मिलती है
9- कार्यस्थल पर 30 से अधिक महिला कर्मचारी होने पर शिशु पालन गृह की सुविधा ताकि महिलाएं ड्यूटी पर रहते हुए शिशु को स्तनपान तथा देखभाल कर सकें
10- वेतन की समानता
इन सब कानूनों के अलावा भी समय-समय पर महिलाओं के हित में कानून बनाए गए हैं।
लेकिन इसमें सब सुरक्षा कानूनों के बावजूद और जिस देश में देवी पूजा होती आई है हम आए दिन समाचार पत्रों की सुर्खियों में बलात्कार उत्पीड़न दहेज हत्या घरेलू हिंसा के समाचार पढ़ते रहते हैं। लेकिन यह हकीकत है कि इन कानूनों के कारण इन अपराधों की संख्या में कमी आई है। जरूरत इस बात की है कि अधिक से अधिक महिलाओं को इन कानूनों की जानकारी मिले। दूसरी जरूरत कानून के अलावा सामाजिक सोच बदलने की है। सदियों से पुरुष प्रधान समाज रहा है अतः नजरिया भी पुरुष प्रधान हो गया है ।
शिक्षा ने इस में बहुत बदलाव लाया है । आजादी के समय स्त्री शिक्षा का प्रतिशत 8% मात्र था जो बढ़कर आज 70% हो गया है। तभी हम देखते हैं शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र है जहां महिलाओं ने अपना परचम ना फहराया हो। राजनीति, कारपोरेट, उद्योग, खेलकूद,यहां तक की सेवा के तीनों अंगों जल थल और वायु सेना में महिलाएं देश की प्रगति और सुरक्षा में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर योगदान दे रही हैं।
आधुनिक काल में देश में महिलाएं राष्ट्रपति प्रधानमंत्री लोकसभा अध्यक्ष प्रतिपक्ष की नेता आदि जैसे सिर्फ और जिम्मेदार पदों पर आसीन रही हैं। प्रसिद्ध चिंतक राम मनोहर लोहिया ने अपने एक लेख में मात्र पतिव्रता के गुण से सज्जित सावित्री के बजाय बुद्धिमती तार्किक, वाकपटु द्रोपदी को भारतीय नारी का आदर्श बनने की अपेक्षा जताई की।
वैसे हर युग की परिस्थिति विभिन्न होती है उसका एक कालखंड में क्या उचित या अनुचित रहा व अन्य समय और परिस्थिति में विपरीत भी हो सकता है।
छोड़ो मेहंदी खड़क संभालो
खुद ही अपना चीर संभालो
द्यूत बिछाए बैठे शकुनी
मस्तक सब बिक जायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो
अब गोविंद ना आएंगे
अन्याय का प्रतिकार खुद को ही करना होगा। यदि नारी की तस्वीर आज बदली है जिसमें बचपन में पिता और भाई जवानी में पति और प्रौढ़ावस्था में पुत्र के जिम्मे सुरक्षा रहती थी उसे नकारा जा रहा है । उसे शिक्षित करके स्वावलंबी बनाने की पहल दी जा रही तो बचपन से ही उसको दिए जाने वाले प्रशिक्षण का स्वरूप भी बदलना होगा। कहीं एक लेख पढ़ा था, बेटियों को गोल रोटी बेलने की ट्रेनिंग के बजाय अपनी रक्षा कैसे करनी इसकी ट्रेनिंग दी जानी चाहिए । बालिकाओं को यौन शोषण के प्रति सजग एवं सतर्क रहना सीखना चाहिए। स्कूल में जूडो कराटे की ट्रेनिंग की व्यवस्था होनी चाहिए। लड़कियों के अलावा लड़कों को भी सही प्रशिक्षण बचपन से मिलना चाहिए। लड़कियों के प्रति सम्मान भाव रखना ताकि उनके साथ किसी भी तरह की जोर-जबर्दस्ती या अनुचित व्यवहार के परिणामों से अवगत कराना चाहिए। कानून के तहत मिलने वाली कठोर सजा के बारे में खौफ जगाना चाहिए। वैसे ही जैसे आग से हाथ जल जाएगा या ऊपर से कूदने से हाथ पैर टूट सकते हैं । अफसोस है कि महिलाओं के साथ यौन शोषण करने वाले संभ्रांत शिक्षित लोग भी होते हैं । भय, दंड और बहिष्कार इन तीनों का यथाशीघ्र निर्धारण अपराधी के लिए होना चाहिए।
महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया कि महिला यदि हाउस वाइफ भी है तो परिवार, समाज और देश की आर्थिक पटल पर उसका योगदान रहता है।
गृहस्थ जीवन का सही तरीके से प्रबंधन करना अपने आप में एक हुनर है पूर्विगम परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकता की पूर्ति करना ऑफिस जाने वाले पति की कमाई से मूल्य में कम नहीं है। अप्रैल 2014 में नई दिल्ली में कार एक्सीडेंट में मारे गए दंपत्ति के रिश्तेदारों को इंश्योरेंस कंपनी को पति की आय के अनुपात ही नहीं पत्नी के श्रम के मुआवजे के अनुपात में रकम चुकानी पड़ी।
जस्टिस रामन्ना और जस्टिस सूर्यकांत की बेचने 2001 में एक समारोह के दौरान आग के पीड़ित के मोजे के मुद्दे पर सुनाए गए फैसले को विस्तारित करते हुए कहा कि विरोधियों को मुआवजा उनके द्वारा दी गई सेवाओं के आधार पर किया जाना चाहिए।
वीडियो द्वारा दी जा रही अवैतनिक सेवाओं की धारणा को सही करके सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई मान्यता समाज की गृहणियों की समानता की धारणा को संवर्धित करती है और उन्हें सम्मान दिलवाएगी।
दूसरा महत्वपूर्ण है पहली बार राष्ट्रपति द्वारा वीर शहीदों को जो शौर्य पुरस्कार दिए गए उन्हें ग्रहण करने शहीदों की पत्नियों के साथ, माताओं को भी उपस्थिति किया गया ।
वीर पत्नी इन्हीं वीर माता को मिले इस गौरव ने मां की भूमिका की अहमियत को रेखांकित किया है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था - किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है वहां की महिलाओं की स्थिति।
आज की महिलाएं स्वनिर्मित, आत्म विश्वासी हैं जिन्होंने पुरुष प्रधान चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में भी अपनी योग्यता प्रदर्शित की है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के बहाने स्त्री विमर्श, नारी सशक्तिकरण, पुरुष से समानता आदि ऐसे जुमले हैं जो पश्चिम से हमारे यहां आए हैं। और यहां के बुद्धिजीवी, शहरी फेमिनिस्ट मूवमेंट की महिलाओं ने इसे लपक लिया। अब लगता है शोषित महिलाओं के लिए जो आंदोलन होना था उसका उद्देश्य पुरुषों को शोषित बनाने का हो गया है। समाज के ये दोनों ही घटक अपना महत्व रखते हैं। दोनों को समान सम्मान मिलना चाहिए। भारतीय मनीषा समान अधिकार, समानता, प्रतियोगिता की बात नहीं करती। वह सहयोगात्मक, सधर्मीति, सहचारिता की बात करती है। इसी से परस्पर संतुलन स्थापित हो सकता है।
हमें पुरुष समान नहीं बनना, सिर्फ नारीत्व का सम्मान चाहिए। नारी के स्वाभाविक गुण हैं दया,ममता, करुणा, प्रेम, सहनशीलता। लेकिन जब यही गुण उसकी कमजोरी समझी जाने लगे तो अन्याय, अत्याचार, अराजकता के खिलाफ चंडिका बनने का माद्दा भी रखती हैं। आज का संदेश है
हमारी बर्दाश्त को
मजबूरी मत समझो
हमारी शराफत को
कमजोरी मत समझो
हमारे देश के संविधान ने महिलाओं को बिना लिंग भेद के ए सब अधिकार दिए हैं। यह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि रही है क्योंकि बहू से विकसित देशों जैसे अमेरिका जर्मनी में भी यह अधिकार हासिल करने में महिलाओं को संघर्ष करना पड़ा था।
इसी संदर्भ में समय-समय पर महिलाओं के हित में कानून बनाए गए ताकि हकीकत में उन्हें न्याय प्राप्त हो। इसी तरह के कई मूल अधिकार उन्हें प्राप्त हैं। आज के समय में महिलाएं हर क्षेत्र में अपना योगदान दे रही हैं। घर हो या बाहर कुछ कारणों से उन्हें बहुत ही परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसलिए उन्हें निम्न कानूनी सुरक्षा प्राप्त है ।
घरेलू हिंसा के खिलाफ भारतीय संविधान की धारा 498 के अनुसार पत्नी, लिव इन पार्टनर या कोई भी घर में रहने वाली महिला, जिसे घरेलू हिंसा सहनी पड़ती है, पुलिस और कोर्ट में इसके खिलाफ आवाज उठा सकती है।
2- पिता की संपत्ति में बेटी को बराबर का अधिकार
3- किसी महिला को सूर्यास्त यानी 6:00 बजे के बाद या सूर्योदय 6:00 बजे के पहले गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है।
4- दहेज विरोधी कानून
5- कार्य स्थल पर हो रही उत्पीड़न के खिलाफ
6- महिलाओं की पहचान की रक्षा के लिए यौन उत्पीड़न के मामले में नाम नाम ना छापने का अधिकार
7- महिलाओं को गलत तरीके से देखने ,छुने या घूरने के खिलाफ
8- गर्भवती महिलाओं को अपने और बच्चे की देखभाल के लिए सर्वे तनिक छुट्टी मिलती है
9- कार्यस्थल पर 30 से अधिक महिला कर्मचारी होने पर शिशु पालन गृह की सुविधा ताकि महिलाएं ड्यूटी पर रहते हुए शिशु को स्तनपान तथा देखभाल कर सकें
10- वेतन की समानता
इन सब कानूनों के अलावा भी समय-समय पर महिलाओं के हित में कानून बनाए गए हैं।
लेकिन इसमें सब सुरक्षा कानूनों के बावजूद और जिस देश में देवी पूजा होती आई है हम आए दिन समाचार पत्रों की सुर्खियों में बलात्कार उत्पीड़न दहेज हत्या घरेलू हिंसा के समाचार पढ़ते रहते हैं। लेकिन यह हकीकत है कि इन कानूनों के कारण इन अपराधों की संख्या में कमी आई है। जरूरत इस बात की है कि अधिक से अधिक महिलाओं को इन कानूनों की जानकारी मिले। दूसरी जरूरत कानून के अलावा सामाजिक सोच बदलने की है। सदियों से पुरुष प्रधान समाज रहा है अतः नजरिया भी पुरुष प्रधान हो गया है ।
शिक्षा ने इस में बहुत बदलाव लाया है । आजादी के समय स्त्री शिक्षा का प्रतिशत 8% मात्र था जो बढ़कर आज 70% हो गया है। तभी हम देखते हैं शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र है जहां महिलाओं ने अपना परचम ना फहराया हो। राजनीति, कारपोरेट, उद्योग, खेलकूद,यहां तक की सेवा के तीनों अंगों जल थल और वायु सेना में महिलाएं देश की प्रगति और सुरक्षा में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर योगदान दे रही हैं।
आधुनिक काल में देश में महिलाएं राष्ट्रपति प्रधानमंत्री लोकसभा अध्यक्ष प्रतिपक्ष की नेता आदि जैसे सिर्फ और जिम्मेदार पदों पर आसीन रही हैं। प्रसिद्ध चिंतक राम मनोहर लोहिया ने अपने एक लेख में मात्र पतिव्रता के गुण से सज्जित सावित्री के बजाय बुद्धिमती तार्किक, वाकपटु द्रोपदी को भारतीय नारी का आदर्श बनने की अपेक्षा जताई की।
वैसे हर युग की परिस्थिति विभिन्न होती है उसका एक कालखंड में क्या उचित या अनुचित रहा व अन्य समय और परिस्थिति में विपरीत भी हो सकता है।
छोड़ो मेहंदी खड़क संभालो
खुद ही अपना चीर संभालो
द्यूत बिछाए बैठे शकुनी
मस्तक सब बिक जायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो
अब गोविंद ना आएंगे
अन्याय का प्रतिकार खुद को ही करना होगा। यदि नारी की तस्वीर आज बदली है जिसमें बचपन में पिता और भाई जवानी में पति और प्रौढ़ावस्था में पुत्र के जिम्मे सुरक्षा रहती थी उसे नकारा जा रहा है । उसे शिक्षित करके स्वावलंबी बनाने की पहल दी जा रही तो बचपन से ही उसको दिए जाने वाले प्रशिक्षण का स्वरूप भी बदलना होगा। कहीं एक लेख पढ़ा था, बेटियों को गोल रोटी बेलने की ट्रेनिंग के बजाय अपनी रक्षा कैसे करनी इसकी ट्रेनिंग दी जानी चाहिए । बालिकाओं को यौन शोषण के प्रति सजग एवं सतर्क रहना सीखना चाहिए। स्कूल में जूडो कराटे की ट्रेनिंग की व्यवस्था होनी चाहिए। लड़कियों के अलावा लड़कों को भी सही प्रशिक्षण बचपन से मिलना चाहिए। लड़कियों के प्रति सम्मान भाव रखना ताकि उनके साथ किसी भी तरह की जोर-जबर्दस्ती या अनुचित व्यवहार के परिणामों से अवगत कराना चाहिए। कानून के तहत मिलने वाली कठोर सजा के बारे में खौफ जगाना चाहिए। वैसे ही जैसे आग से हाथ जल जाएगा या ऊपर से कूदने से हाथ पैर टूट सकते हैं । अफसोस है कि महिलाओं के साथ यौन शोषण करने वाले संभ्रांत शिक्षित लोग भी होते हैं । भय, दंड और बहिष्कार इन तीनों का यथाशीघ्र निर्धारण अपराधी के लिए होना चाहिए।
महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया कि महिला यदि हाउस वाइफ भी है तो परिवार, समाज और देश की आर्थिक पटल पर उसका योगदान रहता है।
गृहस्थ जीवन का सही तरीके से प्रबंधन करना अपने आप में एक हुनर है पूर्विगम परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकता की पूर्ति करना ऑफिस जाने वाले पति की कमाई से मूल्य में कम नहीं है। अप्रैल 2014 में नई दिल्ली में कार एक्सीडेंट में मारे गए दंपत्ति के रिश्तेदारों को इंश्योरेंस कंपनी को पति की आय के अनुपात ही नहीं पत्नी के श्रम के मुआवजे के अनुपात में रकम चुकानी पड़ी।
जस्टिस रामन्ना और जस्टिस सूर्यकांत की बेचने 2001 में एक समारोह के दौरान आग के पीड़ित के मोजे के मुद्दे पर सुनाए गए फैसले को विस्तारित करते हुए कहा कि विरोधियों को मुआवजा उनके द्वारा दी गई सेवाओं के आधार पर किया जाना चाहिए।
वीडियो द्वारा दी जा रही अवैतनिक सेवाओं की धारणा को सही करके सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई मान्यता समाज की गृहणियों की समानता की धारणा को संवर्धित करती है और उन्हें सम्मान दिलवाएगी।
दूसरा महत्वपूर्ण है पहली बार राष्ट्रपति द्वारा वीर शहीदों को जो शौर्य पुरस्कार दिए गए उन्हें ग्रहण करने शहीदों की पत्नियों के साथ, माताओं को भी उपस्थिति किया गया ।
वीर पत्नी इन्हीं वीर माता को मिले इस गौरव ने मां की भूमिका की अहमियत को रेखांकित किया है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था - किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है वहां की महिलाओं की स्थिति।
आज की महिलाएं स्वनिर्मित, आत्म विश्वासी हैं जिन्होंने पुरुष प्रधान चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में भी अपनी योग्यता प्रदर्शित की है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के बहाने स्त्री विमर्श, नारी सशक्तिकरण, पुरुष से समानता आदि ऐसे जुमले हैं जो पश्चिम से हमारे यहां आए हैं। और यहां के बुद्धिजीवी, शहरी फेमिनिस्ट मूवमेंट की महिलाओं ने इसे लपक लिया। अब लगता है शोषित महिलाओं के लिए जो आंदोलन होना था उसका उद्देश्य पुरुषों को शोषित बनाने का हो गया है। समाज के ये दोनों ही घटक अपना महत्व रखते हैं। दोनों को समान सम्मान मिलना चाहिए। भारतीय मनीषा समान अधिकार, समानता, प्रतियोगिता की बात नहीं करती। वह सहयोगात्मक, सधर्मीति, सहचारिता की बात करती है। इसी से परस्पर संतुलन स्थापित हो सकता है।
हमें पुरुष समान नहीं बनना, सिर्फ नारीत्व का सम्मान चाहिए। नारी के स्वाभाविक गुण हैं दया,ममता, करुणा, प्रेम, सहनशीलता। लेकिन जब यही गुण उसकी कमजोरी समझी जाने लगे तो अन्याय, अत्याचार, अराजकता के खिलाफ चंडिका बनने का माद्दा भी रखती हैं। आज का संदेश है
हमारी बर्दाश्त को
मजबूरी मत समझो
हमारी शराफत को
कमजोरी मत समझो

नारी शक्ति किसी भी राष्ट्र, समाज व परिवार का अभिन्न अंग है : सुमन चौधरी
नारी शक्ति किसी भी राष्ट्र, समाज व परिवार का अभिन्न अंग है । नारी के बिना तो सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । सशक्त और शक्तिशाली राष्ट्र के लिए नारी शक्ति का विशेष महत्व है।
किसी राष्ट्र की संस्कृति व समृद्धता को अगर समझना है तो सबसे आसान तरीक़ा है उस संस्कृति में नारी के हालात का अध्ययन कर उनको समझने की कोशिश करनी चाहिए । नारी की सुदृढ़ ,मज़बूत व सम्मानजनक स्थिति एक उन्नत, समृद्ध व मज़बूत समाज तथा राष्ट्र की द्योतक होती है ।
वर्तमान में नारियाँ प्रत्येक क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित कर रही है । आज महिलाएँ राजनैतिक, बिज़नेस ,सामाजिक गतिविधियों , खेल -कूद तथा रक्षा के क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है ।आज शिक्षा के क्षेत्र में होनहार बेटियां बेटों से कहीं आगे निकल चुकी है । देश में उच्च पदों पर पहले केवल पुरुष ही नियोजित होते थे , महिलाओं को प्राय कमज़ोर समझ कर कठिन माने जाने वाले क्षेत्रों में प्रवेश निषेध था। आज उन कठिन माने जाने वाले क्षेत्रों जैसे भारतीय सेना , एयरफोर्स , स्पेस, तकनीकी आदि क्षेत्रों में महिलाएँ अपनी क्षमताओ का बेहतर प्रदर्शन कर रही है ।
स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय नारी की निम्न दशा के मुख्य कारण - अशिक्षा, आर्थिक निर्भरता , स्त्री नेतृत्व की कमी व पुरुष प्रधान समाज का होना था । स्वतंत्रता के बाद देश में काफ़ी बदलाव आए । महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक व शिक्षा में बराबरी की हिस्सेदारी के अवसर प्रदान किये गये हैं । शिक्षा का स्तर बढ़ने के कारण महिलाओं की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है लेकिन फिर भी सामाजिक, राजनीतिक, कारोबारी नेतृत्व,पारिवारिक संपत्ति स्वामित्व, व्यवसायिक स्वामित्व आदि में प्रतिनिधित्व अभी भी बहुत कम है । इसके मुख्य दो कारण हैं - पहला भारतीय समाज की पुरुष प्रधान सोच और दूसरा महिलाओं पर घर परिवार की दोहरी जिम्मेदारी ।
आज भी जहां बच्चों व माता -पिता के सार संभाल की बात आती है तो महिलाओं को ही अपना करियर दाँव पर लगाना पड़ता है। अगर वो ऐसा नहीं करती है तो घरेलू हिंसा की शिकार हो जाती है या फिर परिवार टूट जाता है। इन सबको बचाने के लिए नारी को एक मध्यम मार्ग अपनाना पड़ता है जिससे उसका विकास बाधित होता है । परन्तु वह जानती है कि अगर पारिवारिक संस्था ही ख़त्म हो जाएगी तो न तो समाज रहेगा और न ही राष्ट्र बचेगा , इसलिए सामंजस्य बिठाते हुये विकास की ओर बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए ।
प्रकृति ने कुछ गुणों जैसे दया , करुणा , सहनशीलता व ममता की प्रतिमूर्ति स्त्री को ही बनाया है और उसको ईश्वर के द्वारा भेंट किए गए कार्यों का निर्वहन करते हुये अपने स्वतंत्र अस्तित्व का निर्माण करने और उसे क़ायम करने हेतु स्वावलंबी और आत्मनिर्भर होना बहुत ज़रूरी है । इसके साथ ही जो समाज और रिवाज स्त्रियों के विकास को उचित नहीं समझते ,उन्हें पहले शुरुआत अपने परिवार व बच्चों को अच्छे संस्कार जैसे नारी का सम्मान, शिक्षा का समान अधिकार ,कार्यों का समान बँटवारा व आगे बढ़ने के समान अवसर लड़कों व लड़कियों दोनों को देंवे व समझावे।
निष्कर्ष में कहा जाए तो महिलाओं की स्थिति सामाजिक,राजनैतिक , शैक्षणिक व आर्थिक क्षेत्र में पहले की अपेक्षा बहुत बेहतर हुई है।
किसी राष्ट्र की संस्कृति व समृद्धता को अगर समझना है तो सबसे आसान तरीक़ा है उस संस्कृति में नारी के हालात का अध्ययन कर उनको समझने की कोशिश करनी चाहिए । नारी की सुदृढ़ ,मज़बूत व सम्मानजनक स्थिति एक उन्नत, समृद्ध व मज़बूत समाज तथा राष्ट्र की द्योतक होती है ।
वर्तमान में नारियाँ प्रत्येक क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित कर रही है । आज महिलाएँ राजनैतिक, बिज़नेस ,सामाजिक गतिविधियों , खेल -कूद तथा रक्षा के क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है ।आज शिक्षा के क्षेत्र में होनहार बेटियां बेटों से कहीं आगे निकल चुकी है । देश में उच्च पदों पर पहले केवल पुरुष ही नियोजित होते थे , महिलाओं को प्राय कमज़ोर समझ कर कठिन माने जाने वाले क्षेत्रों में प्रवेश निषेध था। आज उन कठिन माने जाने वाले क्षेत्रों जैसे भारतीय सेना , एयरफोर्स , स्पेस, तकनीकी आदि क्षेत्रों में महिलाएँ अपनी क्षमताओ का बेहतर प्रदर्शन कर रही है ।
स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय नारी की निम्न दशा के मुख्य कारण - अशिक्षा, आर्थिक निर्भरता , स्त्री नेतृत्व की कमी व पुरुष प्रधान समाज का होना था । स्वतंत्रता के बाद देश में काफ़ी बदलाव आए । महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक व शिक्षा में बराबरी की हिस्सेदारी के अवसर प्रदान किये गये हैं । शिक्षा का स्तर बढ़ने के कारण महिलाओं की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है लेकिन फिर भी सामाजिक, राजनीतिक, कारोबारी नेतृत्व,पारिवारिक संपत्ति स्वामित्व, व्यवसायिक स्वामित्व आदि में प्रतिनिधित्व अभी भी बहुत कम है । इसके मुख्य दो कारण हैं - पहला भारतीय समाज की पुरुष प्रधान सोच और दूसरा महिलाओं पर घर परिवार की दोहरी जिम्मेदारी ।
आज भी जहां बच्चों व माता -पिता के सार संभाल की बात आती है तो महिलाओं को ही अपना करियर दाँव पर लगाना पड़ता है। अगर वो ऐसा नहीं करती है तो घरेलू हिंसा की शिकार हो जाती है या फिर परिवार टूट जाता है। इन सबको बचाने के लिए नारी को एक मध्यम मार्ग अपनाना पड़ता है जिससे उसका विकास बाधित होता है । परन्तु वह जानती है कि अगर पारिवारिक संस्था ही ख़त्म हो जाएगी तो न तो समाज रहेगा और न ही राष्ट्र बचेगा , इसलिए सामंजस्य बिठाते हुये विकास की ओर बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए ।
प्रकृति ने कुछ गुणों जैसे दया , करुणा , सहनशीलता व ममता की प्रतिमूर्ति स्त्री को ही बनाया है और उसको ईश्वर के द्वारा भेंट किए गए कार्यों का निर्वहन करते हुये अपने स्वतंत्र अस्तित्व का निर्माण करने और उसे क़ायम करने हेतु स्वावलंबी और आत्मनिर्भर होना बहुत ज़रूरी है । इसके साथ ही जो समाज और रिवाज स्त्रियों के विकास को उचित नहीं समझते ,उन्हें पहले शुरुआत अपने परिवार व बच्चों को अच्छे संस्कार जैसे नारी का सम्मान, शिक्षा का समान अधिकार ,कार्यों का समान बँटवारा व आगे बढ़ने के समान अवसर लड़कों व लड़कियों दोनों को देंवे व समझावे।
निष्कर्ष में कहा जाए तो महिलाओं की स्थिति सामाजिक,राजनैतिक , शैक्षणिक व आर्थिक क्षेत्र में पहले की अपेक्षा बहुत बेहतर हुई है।

आतिया दाऊद और सिन्धी लेखिकाएं : देवी नागरानी
आधुनिक समाज के बदलते मूल्यों को रेखांकित करते हुए अपने आत्मकथ्य के साथ-साथ अपने अन्दर के सन्नाटे से मुक्ति पाने की कोशिश में नारी खुद के मन को भेदती है, लहुलुहान करती है। औरत के पात्र की गहराई और गरिमा में खुद औरत डूब जाती है। इस तत्व पर कमलेश्वर जी कलम के माध्यम से चक्रव्यूह को छेदने का काम करते हुए लिखते हैं - “ताज महल से ज़्यादा खूबसूरत परिवार नामक संस्था का निर्माण करने वाली औरत खुद उसी में घुट घुट कर दफ़न होती है, सबके लिये सुख और शुभ तलाश करती औरत अपने ही आँसुओं के कुँओं में डूबकर आत्महत्या करती है।“
अपनी ही बनाई दीवारों में औरत बन्दी हो जाती है. अपने भीतर के न्यायलय में स्वयं को यह निर्णय सुनाती है, कारावास का दंड भोगती है. लेकिन आज ज़माना बदलाव की ओर क़दम बढ़ा रहा है। जिसके मन में आग लगे वही बुझाने के रास्ते ढूँढने को आमाद रहता है। कहते हैं जब तक पानी हमारे पैरों तले से नहीं गुज़रता, पाँव गीले नहीं होते। अपनी समस्या का समाधान पाना अब नारी का ध्येय बन गया है। पुरुष प्रधान समाज में हालातों से मुकाबला करने की दिशा में एक संघर्ष है जो लक्ष्य की ओर जाता है।
शाइरा आतिया :
यहाँ मैं सिंध पाकिस्तान की जानी मानी शाइरा
आतिया दाऊद के सिन्धी काव्य संग्रह “एक थका हुआ सच” का ज़िक्र करना चाहती हूँ, जिसका अनुवाद मैंने 2016 में अरबी सिन्धी लिपि से हिंदी भाषा में उनकी अनुमति से किया. वे कवितायेँ न थी, लगा औरत की रूदाद थी जो किसी ज्वालामुखी के पिघलते हुए लावा के तरह कलम की सियाही बनकर नारी मन से प्रवाहित हुई हो. डंक मारती हुई इन कविताओं के कुछ अंश पेश करते हुए उसी धार में हिन्द और सिंध और अन्य लेखिकाओं की भावाभिव्यक्ति पेश करना चाहती हूँ, जिससे ज़ाहिर होता है कि नारी मन जहाँ कहीं भी हो, अन्याय के खिलाफ़ उठी उसकी आवाज़ लेखनी के माध्यम से सामने आती है जिसमें स्पष्ट रूप से यह जाना जाता है कि औरत भी अपने हिस्से का खुला आसमान चाहती है, अपने परों को खोलने की आज़ादी चाहती है, उस घुटन के अहसास से रिहाई चाहती है, जो पुरुष सत्ता के तहत उसपर आजमाइशें ढाती हैं. वह खुली हवा में आज़ादी से सांस ले पाए, इसी घुटन के क़ैदख़ाने के संदर्भ में अत्तिया जी नारी मन की दशा और दिशा कुछ इस तरह बयान करती है कि पढ़ते ही मन में कुछ खौल उठता है। उनकी कलम की नोक तेज़ाबी तेवरों में अपनी जात को लेकर अंगारे उगलते हुए लिखतीं हैं ---
मेरी ज़िंदगी के सफर में
घर से कब्रिस्तान तक
लाश के तरह
बाप, भाई, बेटे और शौहर के कंधों पर धरी हूँ
मज़हब का स्नान करते हुए
रस्मों का कफ़न पहन कर
बेखबरी से कब्रिस्तान में दफनाई गई हूँ !”
विभाजन के पहले और बाद के अनेक वहशी मंज़र नारी मन की दीवारों से चिपके हुए हैं, जिनकी यादों जो खरोंचकर वह कलम को तलवार की धार बनाते हुए बेहाली का हाल लिखते हुए क़लम आम नारी की ज़ुबान बन गई है। उसी हक़ीक़त का प्रतिनिधित्व करते हुए आतिया दाऊद जी उसी कलम की धार से वार करते हुए कहती है---
तुम इंसान के रूप में मर्द
मैं इन्सान के रूप में औरत
लफ़्ज़ एक है
मगर माइने तुमने कितने दे डाले
मेरे जिस्म की अलग पहचान के जुर्म में .......10
अमर सिन्धु :
स्वतंत्र रूप से अपने भीतर की संवेदना को, भावनाओं को निर्भीक और बेझिझक स्वर में वाणी दे पाने में आज की नारी सक्षम हुई है। अपने अन्दर की छटपटाहट को व्यक्त करना अब नारी का ध्येय बन गया है। सिंध की एक और कवियित्री अमर सिन्धु के अपने जज्बों को किस तरह शब्दों में गढ़ा है, देखिये उनकी बानगी “मेरे दोस्त मेरे दुश्मन” नाम की कविता में :
सलीब पे मसलूब मसीहा
और कर्बला के मैदान में
दसवें महरुम को अकेला रह जाने वाला हुसैन
दोनों सदा से मेरे हीरो रहे हैं
मेरे दोस्त, मेरे दुश्मन, मेरे हमदम.....
ढेर सारे पैग़ाम दहशत भरे दिखा कर
मुझे डराते किस चीज़ से हो?
क्या मैं नहीं जानती कि
ख़ुदा के पास जाते हुए
दोनों के जिस्म खून में लाल थे.
शालिनी सागर :
शालिनी सागर दिल्ली में निवास कर रही है. सिन्धी के बेबाक लेखिका, व् आज के सरोकारों से जुडी रहने के एवज़ उन्होंने भी “रिजर्वेशन” नाम कविता में नारी होने के नाते अपनी जागरूकता ज़ाहिर करते हुए मर्द को ललकारा है. उसे अपने भूले हुए सभ्य संस्कारों से, उसकी अपनी नींव, जिन जड़ों से वह जुड़ा हुआ है उसकी याद दिलाते हुए लिखा है:
“आज मैं तुम्हें so-called रिजर्वेशन
तथाकथित आरक्षण मेरे लिए
भिक्षा के रूप में मेरी ही
झोली में डालने से आज़ाद करती हूँ
मैं हैरान हूँ तुम्हारी इस सोच पर
कि आज मेरे लिए पार्लियामेन्ट में बिल पेश करते हुए
तैंतीस प्रतिशत आरक्षण महफूज़ करना चाहते हो.
आज मैंने तुम्हें तथाकथित आरक्षण
के बंधन से मुक्त किया
ज़रा सोचो अगर मेरी ममता में भी
“रिजर्वेशन” का बीज होता
तो यह धरती
तुम्हारे जैसे अभिमानी पुरुषों के अत्याचार से
आज़ाद होती.
मैं बहन, मैं बेटी, मैं ही जननी,
मैंने ही जन्म दिया तुम्हें
तुम क्या दोगे मुझको ?
आदियुग से मैंने तुम्हारे लिए किया है,
और आईन्दा भी करती रहूँगी
तुम तो ख़ुद, मेरे प्यार, मेरी करुणा,
मेरे दूध के कर्ज़दार हो...!”
ये कलम से उकेरी हुई भावनाएं नहीं, लहूलुहान मन की तहरीरें हैं, जो नारी के अस्तित्व की छटपटाहट बयाँ करती हैं. एक नहीं अनेक ऐसे इज़हार पहले भी हुए हाँ, अब भी हो रहे हैं, और होते आयेंगे जब तक मर्द और औरत को एक सम अधिकार सिर्फ़ कागज़ पर ही नहीं पर जीवन में न्यायसंगत स्तर पर मिल पाएंगे.
डॉ.वंदना ख़ुशालानी:
अब मैं हमारे सिन्धी समाज की एक हस्ताक्षर व्यक्तित्व की साधिका जिन्होंने ने हिंदी-सिन्धी साहित्य में व शिक्षा के परिवेश में अपना परचम फहराया है. जी हाँ मैं बात कर रही हूँ डॉ.वंदना ख़ुशालानी जी की, जो नारी मन जी पड़ताल करते हुए अपनी इस बानगी में कह रही है:
आदमी की निगाह में औरत
सिर्फ़ देह, काम सुख
आक्रामक होती जब लोलुपता
खूंखार, नृशंस यौनाचार
स्त्री शरीर घायल विदीर्ण
मासूम चीखों का हाहाकार
कामुक पातक का बलात्कार
इश्क़ मुहब्बत हो शर्मसार
जब निर्भयाएं दी जाती मार
कटघरे में कैद संविधान
माँ की कोख का जब हो अपमान
सोते रहे नारीवाद के पैरोकार
अरे जागो, रोको, ये व्यभिचार
यह नारी मन की अभिव्यक्ति नहीं उसकी रूदाद है, वो सिसिकियां हैं जो राख तले दबी हुई हैं पर अभी तक बुझी नहीं है.
हमीदा बाज़ी
हैदराबाद सिंध की लेखिका हमीदा बाज़ी ने भी अपनी कविताओं में कुछ ऐसी ही भावनाओं को अभिव्यक्त किया, जिससे ज़ाहिर है कि औरत अपनी पहचान पाने की राह पर जागरूक हो चुकी है. वह अपने साथ हुए हर अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठा रही है. उनकी कविता ‘जलावतनी और सज़ा” एक चीखती हुई ललकार है जो उनकी आवाज़ हम तक पहुंचा रही है, सुनिए:
मैं दूर, बहुत दूर
बयाबानों और सहराओं वीरानों में
अपने घर से, अपने खून से
दूर बहुत दूर जलावतन हूँ
मेरे हाथ में क़लम अपने समाज के रीतियों-रस्मों को
खत्म करने के लिए जैसे एक तलवार है
उसे छीन कर दूर, बहुत दूर आसमानों में
फेंका गया है और वही तलवार, वही कलम
मेरे जलावतनी का हुकुम ज़ारी कर रही है”
लेखक परिवेश की उपज ही तो है, जिसमें स्त्रीवाद लेखन अस्मिता का प्रमाण है, अपनी पहचान पाने और अभिव्यक्त करने का जरिया है, कोई मनोरंजन नहीं. राख तले दबी चिंगारी कब शोला बन जाय यह तो आने वाला समय ही बता सकता है, पर आज नारी के हाथ में थमी कलम उसी तेज़ धार का काम कर रही है. वह खुद को अभिव्यक्त करने में पीछे नहीं हटती. रायपुर में बसी हस्ताक्षर
जया जादवानी
लेखिका जया जादवानी के भीतर की नारी भी अपने बाहर और भीतर की कशमकश से जूझते हुए लिखती हैं:
‘तहखानों में तहखाने
सुरंगों में सुरंगें
ये देह भी अजब ताबूत है
ढूंढ लेती हूँ जब ऊपर आने के रास्ते
ये फिर वापस खींच लेती है.’
वैसे भी अपने आस पास मूल्यांकन करने वालों को कोई इतना अस्प्रश्य भी हो सकता है जो उसको घ्रणा का पात्र बनाकर अपने ही मन की अदालत में मात्र एक पात्र करके खड़ा किया जाए. घोर अपमान की स्थिति, जहाँ अपनी ही उपेक्षा से मुक्ति पाना उस तड़प को जन्म देता है जिसके दायरे में रहना एक विवशता बन जाती है. यह असंतोषजनक संकेत ज़ाहिर करता है कि पात्र जैसे अपने वर्तमान को जीना चाहता है वैसी व्यवस्था नहीं है, अपने विसंगतियों से भरे वर्तमान को अपनी आकाक्षाओं के अनुरूप बना सके (विरोधभास का जन्म). फलस्वरूप विद्रोही तेवरों के साथ नारी मन की धधकती ज्वालामुखी अपनी रचनात्मक बुनियादों में घोल दी जाती है.
संगीता सहजवाणी:
मुंबई की लेखिका संगीता सहजवाणी इसी दिशा में अपनी कविता ‘आजीवन निष्कासन’ में लिखती है:
मैं बहुत दूर हूँ उनसे
जो जानते हैं मुझे
मैं निष्कासित कर दी गई हूँ
अजनबियों के बीच
मेरा मुक़दमा नहीं लड़ा गया
सुनवाई नहीं हुई मेरी
दोष भी नहीं बताया गया
अंग्रेजी शासन की तरह
आजीवन निष्कासन का दण्ड
दे दिया गया है
गुप्त कोर्ट के
एक विशेष न्यायालय मेँ...
नारी लेखन मात्र शब्द प्रयोग नहीं, नारी मन की छटपटाहट के प्रतीक हैं. नारी का संघर्ष कल भी था, आज भी है और सदा सतत जारी रहेगा, जब तक उसकी आवाज़ समाज के कानों तक नहीं पहुँचती.
वीना शिरंगी:
कुछ ऐसे भाव लिए दिल्ली की रेडियो स्टेशन से जुडी लेखिका वीना शिरंगी की अभिव्यक्ति भी अपनी तन की, मन की पीढ़ा को सामने ले आई है. देखिये उनकी बानगी:
“मैं एक घने पेड़ की छाया हूँ
हर गुज़रते मुसाफिर के लिए
राहत हूँ
फिर भी हर किसी ने
मेरी छाल उतारी है .”
यह कौन से नए समाज की नींव रखी जा रही है जहां पढ़ाई की रोशनी के सारे दरवाजे बंद किए जा रहे हैं, ताकि हम अज्ञान के अंधेरे में आंखों वाले को भी कुछ साफ़ दिखाई न दे. यह माहौल उस नशे से कम नहीं है जहां इंसान की बेबसी खरीदी और बेची जाए.
डॉ. ध्रुव तनवानी:
रांची की समाजशास्त्री लेखिका डॉ. ध्रुव तनवानी भी ऐसे अमानुषों से भरे इस समाज को “द्रोपदी की फ़ट्कार” नाम के कविता में अपने मन की भड़ास के विद्रोही चीत्कार कागज़ पर उकेरते हुए लिखती है:
ऐ दुर्योधन,
मत करना तू चूक किसी नारी को समझने की,
कि नारी है कोई ज़मी-जायदाद किसी पुरूष की,
जिस जिस्म पे करता है तू इतना घमण्ड-अभिमान
वो जिस्म की मिट्टी भी है किसी नारी के लहू की
तेरे शरीर-सीने में जो रक्त गरम हो रहा है
समझ लो तू न उतार सकेगा ॠण उस नारी का
भले तुम समझो स्वंय को कोई राजा महाराजा
पर औरत भी तो है, कोई माता-राजमाता
भले तू समझ स्वंय को कोई बरगद् पेड या शेर
तब याद रख़ नारी भी है तुलसी व काली दुर्गा
मत लो इम्तहान किसी नारी के धैर्य-त्याग का
न चुका पायेगा क़र्ज़ कभी अपनी माँ के दूध का
अंत न कहकर एक नया आगाज़ कहते हुए मैं इन प्रतिभामान लेखिकाओं की पैनी काव्य धारा में अपनी विचाराभिव्यक्ति रख रही हूँ. यह भी आज के माहौल की उपज है जहाँ स्वार्थ हिंसक होता जा रहा है, मनुष्यता विलीन सी होती जा रही है. बस आबादियों में बरबादियाँ आकर बसती जा रही हैं आतिया के मनोभावों को ज़ाहिर करते हुए यही कहूँगी कि नारी अपनी राह पा चुकी है, अपनी मजिल की ओर क़दम बढ़ा चुकी है, बस मरुस्थल पार करना है.
‘‘मैं अकेलेपन की यात्री
दुरूह पगडंडियों पर पैदल,
तप्त बालू पर चलने की आदी,
मैं जानती हूँ मरुस्थल को शताब्दियों से,
यहाँ छाया का अस्तित्व होता नहीं है।’’
काव्यधारा-अलविदा ऐ साथी
अलविदा ऐ साथी
फ़रेबी फ़ितरत के तुम वारिस
मैं शातिरता से हूँ नावाकिफ़
खुद को लुटा कर अब सीखी हूँ
और विश्वास के साथ कहती हूं
‘ तुम अपनी दुनिया बसाओ
मैं अपनी फना करूं
अपना अंत लाकर उस वजूद के साथ
समस्त कायनात का खात्मा करूं
अपने ही वारिस को अपनी कोख में
दफ़ना कर, खुद को फ़ना करूं’
अभी तक विश्वास नहीं आता
कि मेरी कोख में
मेरे और तेरे बच्चे के भ्रूण में
मेरे और पराए खून की मिलावट है
हां तुमने कहा था, और मैंने सुना था
मेरे विश्वास पर यह
तुम्हारे विश्वासघात का वार था
सच कहती हूँ
वह तुम्हारा ही बच्चा है
तुम कहते हो ‘नहीं’
सच क्या है, तुम भी जानते हो और मैं भी
पर अब, मैं खुद मुख्तियार हूँ
तुम्हारी याद की कोई भी निशानी
न अपने पास, और न इस धरती पर
छोड़ना चाहती हूँ
अलविदा ऐ साथी
मैं अपने आप को फ़ना कर के
इस समस्त कायनात का खात्मा करूंगी
मेरे भीतर धड़कते हुए उस वारिस का
वजूद मिटाकर, अपनी ही कोख में दफ़ना कर
साथ उसके फना हो जाऊंगी.’
देवी नागरानी
देवी नागरानी:
जन्म: 1941 कराची, सिंध (तब भारत) 16 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, 10 कहानी संग्रह, 2 भजन-संग्रह, 16 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट- साहित्य अकादमी प्रकाशन, अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक, धारवाड़रायपुर, जोधपुर, केरल, सागर व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। डॉ. अमृता प्रीतम अवार्ड, एवं मीर अली मीर पुरूस्कार. 2007-राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत। 14 सितम्बर, 2019, महाराष्ट्र राज्य सिन्धी साहित्य अकादमी से ‘माँ कहिंजो ब न आहियाँ’ संग्रह के लिए पुरुस्कृत. 11 अप्रैल, 2021 को ‘गुफ़्तगू संस्था’ की ओर से ‘साहिर लुधियानवी जन्म शताब्दी समारोह’ के अवसर पर ‘साहिर लुधियानवी सम्मान’
सिन्धी अनुदित कथाओं को अब सिन्धी कथा सागर के इस लिंक पर सुनिए.
https://nangranidevi.blogspot.com/ Contact: dnangrani@gmail.com
अपनी ही बनाई दीवारों में औरत बन्दी हो जाती है. अपने भीतर के न्यायलय में स्वयं को यह निर्णय सुनाती है, कारावास का दंड भोगती है. लेकिन आज ज़माना बदलाव की ओर क़दम बढ़ा रहा है। जिसके मन में आग लगे वही बुझाने के रास्ते ढूँढने को आमाद रहता है। कहते हैं जब तक पानी हमारे पैरों तले से नहीं गुज़रता, पाँव गीले नहीं होते। अपनी समस्या का समाधान पाना अब नारी का ध्येय बन गया है। पुरुष प्रधान समाज में हालातों से मुकाबला करने की दिशा में एक संघर्ष है जो लक्ष्य की ओर जाता है।
शाइरा आतिया :
यहाँ मैं सिंध पाकिस्तान की जानी मानी शाइरा
आतिया दाऊद के सिन्धी काव्य संग्रह “एक थका हुआ सच” का ज़िक्र करना चाहती हूँ, जिसका अनुवाद मैंने 2016 में अरबी सिन्धी लिपि से हिंदी भाषा में उनकी अनुमति से किया. वे कवितायेँ न थी, लगा औरत की रूदाद थी जो किसी ज्वालामुखी के पिघलते हुए लावा के तरह कलम की सियाही बनकर नारी मन से प्रवाहित हुई हो. डंक मारती हुई इन कविताओं के कुछ अंश पेश करते हुए उसी धार में हिन्द और सिंध और अन्य लेखिकाओं की भावाभिव्यक्ति पेश करना चाहती हूँ, जिससे ज़ाहिर होता है कि नारी मन जहाँ कहीं भी हो, अन्याय के खिलाफ़ उठी उसकी आवाज़ लेखनी के माध्यम से सामने आती है जिसमें स्पष्ट रूप से यह जाना जाता है कि औरत भी अपने हिस्से का खुला आसमान चाहती है, अपने परों को खोलने की आज़ादी चाहती है, उस घुटन के अहसास से रिहाई चाहती है, जो पुरुष सत्ता के तहत उसपर आजमाइशें ढाती हैं. वह खुली हवा में आज़ादी से सांस ले पाए, इसी घुटन के क़ैदख़ाने के संदर्भ में अत्तिया जी नारी मन की दशा और दिशा कुछ इस तरह बयान करती है कि पढ़ते ही मन में कुछ खौल उठता है। उनकी कलम की नोक तेज़ाबी तेवरों में अपनी जात को लेकर अंगारे उगलते हुए लिखतीं हैं ---
मेरी ज़िंदगी के सफर में
घर से कब्रिस्तान तक
लाश के तरह
बाप, भाई, बेटे और शौहर के कंधों पर धरी हूँ
मज़हब का स्नान करते हुए
रस्मों का कफ़न पहन कर
बेखबरी से कब्रिस्तान में दफनाई गई हूँ !”
विभाजन के पहले और बाद के अनेक वहशी मंज़र नारी मन की दीवारों से चिपके हुए हैं, जिनकी यादों जो खरोंचकर वह कलम को तलवार की धार बनाते हुए बेहाली का हाल लिखते हुए क़लम आम नारी की ज़ुबान बन गई है। उसी हक़ीक़त का प्रतिनिधित्व करते हुए आतिया दाऊद जी उसी कलम की धार से वार करते हुए कहती है---
तुम इंसान के रूप में मर्द
मैं इन्सान के रूप में औरत
लफ़्ज़ एक है
मगर माइने तुमने कितने दे डाले
मेरे जिस्म की अलग पहचान के जुर्म में .......10
अमर सिन्धु :
स्वतंत्र रूप से अपने भीतर की संवेदना को, भावनाओं को निर्भीक और बेझिझक स्वर में वाणी दे पाने में आज की नारी सक्षम हुई है। अपने अन्दर की छटपटाहट को व्यक्त करना अब नारी का ध्येय बन गया है। सिंध की एक और कवियित्री अमर सिन्धु के अपने जज्बों को किस तरह शब्दों में गढ़ा है, देखिये उनकी बानगी “मेरे दोस्त मेरे दुश्मन” नाम की कविता में :
सलीब पे मसलूब मसीहा
और कर्बला के मैदान में
दसवें महरुम को अकेला रह जाने वाला हुसैन
दोनों सदा से मेरे हीरो रहे हैं
मेरे दोस्त, मेरे दुश्मन, मेरे हमदम.....
ढेर सारे पैग़ाम दहशत भरे दिखा कर
मुझे डराते किस चीज़ से हो?
क्या मैं नहीं जानती कि
ख़ुदा के पास जाते हुए
दोनों के जिस्म खून में लाल थे.
शालिनी सागर :
शालिनी सागर दिल्ली में निवास कर रही है. सिन्धी के बेबाक लेखिका, व् आज के सरोकारों से जुडी रहने के एवज़ उन्होंने भी “रिजर्वेशन” नाम कविता में नारी होने के नाते अपनी जागरूकता ज़ाहिर करते हुए मर्द को ललकारा है. उसे अपने भूले हुए सभ्य संस्कारों से, उसकी अपनी नींव, जिन जड़ों से वह जुड़ा हुआ है उसकी याद दिलाते हुए लिखा है:
“आज मैं तुम्हें so-called रिजर्वेशन
तथाकथित आरक्षण मेरे लिए
भिक्षा के रूप में मेरी ही
झोली में डालने से आज़ाद करती हूँ
मैं हैरान हूँ तुम्हारी इस सोच पर
कि आज मेरे लिए पार्लियामेन्ट में बिल पेश करते हुए
तैंतीस प्रतिशत आरक्षण महफूज़ करना चाहते हो.
आज मैंने तुम्हें तथाकथित आरक्षण
के बंधन से मुक्त किया
ज़रा सोचो अगर मेरी ममता में भी
“रिजर्वेशन” का बीज होता
तो यह धरती
तुम्हारे जैसे अभिमानी पुरुषों के अत्याचार से
आज़ाद होती.
मैं बहन, मैं बेटी, मैं ही जननी,
मैंने ही जन्म दिया तुम्हें
तुम क्या दोगे मुझको ?
आदियुग से मैंने तुम्हारे लिए किया है,
और आईन्दा भी करती रहूँगी
तुम तो ख़ुद, मेरे प्यार, मेरी करुणा,
मेरे दूध के कर्ज़दार हो...!”
ये कलम से उकेरी हुई भावनाएं नहीं, लहूलुहान मन की तहरीरें हैं, जो नारी के अस्तित्व की छटपटाहट बयाँ करती हैं. एक नहीं अनेक ऐसे इज़हार पहले भी हुए हाँ, अब भी हो रहे हैं, और होते आयेंगे जब तक मर्द और औरत को एक सम अधिकार सिर्फ़ कागज़ पर ही नहीं पर जीवन में न्यायसंगत स्तर पर मिल पाएंगे.
डॉ.वंदना ख़ुशालानी:
अब मैं हमारे सिन्धी समाज की एक हस्ताक्षर व्यक्तित्व की साधिका जिन्होंने ने हिंदी-सिन्धी साहित्य में व शिक्षा के परिवेश में अपना परचम फहराया है. जी हाँ मैं बात कर रही हूँ डॉ.वंदना ख़ुशालानी जी की, जो नारी मन जी पड़ताल करते हुए अपनी इस बानगी में कह रही है:
आदमी की निगाह में औरत
सिर्फ़ देह, काम सुख
आक्रामक होती जब लोलुपता
खूंखार, नृशंस यौनाचार
स्त्री शरीर घायल विदीर्ण
मासूम चीखों का हाहाकार
कामुक पातक का बलात्कार
इश्क़ मुहब्बत हो शर्मसार
जब निर्भयाएं दी जाती मार
कटघरे में कैद संविधान
माँ की कोख का जब हो अपमान
सोते रहे नारीवाद के पैरोकार
अरे जागो, रोको, ये व्यभिचार
यह नारी मन की अभिव्यक्ति नहीं उसकी रूदाद है, वो सिसिकियां हैं जो राख तले दबी हुई हैं पर अभी तक बुझी नहीं है.
हमीदा बाज़ी
हैदराबाद सिंध की लेखिका हमीदा बाज़ी ने भी अपनी कविताओं में कुछ ऐसी ही भावनाओं को अभिव्यक्त किया, जिससे ज़ाहिर है कि औरत अपनी पहचान पाने की राह पर जागरूक हो चुकी है. वह अपने साथ हुए हर अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठा रही है. उनकी कविता ‘जलावतनी और सज़ा” एक चीखती हुई ललकार है जो उनकी आवाज़ हम तक पहुंचा रही है, सुनिए:
मैं दूर, बहुत दूर
बयाबानों और सहराओं वीरानों में
अपने घर से, अपने खून से
दूर बहुत दूर जलावतन हूँ
मेरे हाथ में क़लम अपने समाज के रीतियों-रस्मों को
खत्म करने के लिए जैसे एक तलवार है
उसे छीन कर दूर, बहुत दूर आसमानों में
फेंका गया है और वही तलवार, वही कलम
मेरे जलावतनी का हुकुम ज़ारी कर रही है”
लेखक परिवेश की उपज ही तो है, जिसमें स्त्रीवाद लेखन अस्मिता का प्रमाण है, अपनी पहचान पाने और अभिव्यक्त करने का जरिया है, कोई मनोरंजन नहीं. राख तले दबी चिंगारी कब शोला बन जाय यह तो आने वाला समय ही बता सकता है, पर आज नारी के हाथ में थमी कलम उसी तेज़ धार का काम कर रही है. वह खुद को अभिव्यक्त करने में पीछे नहीं हटती. रायपुर में बसी हस्ताक्षर
जया जादवानी
लेखिका जया जादवानी के भीतर की नारी भी अपने बाहर और भीतर की कशमकश से जूझते हुए लिखती हैं:
‘तहखानों में तहखाने
सुरंगों में सुरंगें
ये देह भी अजब ताबूत है
ढूंढ लेती हूँ जब ऊपर आने के रास्ते
ये फिर वापस खींच लेती है.’
वैसे भी अपने आस पास मूल्यांकन करने वालों को कोई इतना अस्प्रश्य भी हो सकता है जो उसको घ्रणा का पात्र बनाकर अपने ही मन की अदालत में मात्र एक पात्र करके खड़ा किया जाए. घोर अपमान की स्थिति, जहाँ अपनी ही उपेक्षा से मुक्ति पाना उस तड़प को जन्म देता है जिसके दायरे में रहना एक विवशता बन जाती है. यह असंतोषजनक संकेत ज़ाहिर करता है कि पात्र जैसे अपने वर्तमान को जीना चाहता है वैसी व्यवस्था नहीं है, अपने विसंगतियों से भरे वर्तमान को अपनी आकाक्षाओं के अनुरूप बना सके (विरोधभास का जन्म). फलस्वरूप विद्रोही तेवरों के साथ नारी मन की धधकती ज्वालामुखी अपनी रचनात्मक बुनियादों में घोल दी जाती है.
संगीता सहजवाणी:
मुंबई की लेखिका संगीता सहजवाणी इसी दिशा में अपनी कविता ‘आजीवन निष्कासन’ में लिखती है:
मैं बहुत दूर हूँ उनसे
जो जानते हैं मुझे
मैं निष्कासित कर दी गई हूँ
अजनबियों के बीच
मेरा मुक़दमा नहीं लड़ा गया
सुनवाई नहीं हुई मेरी
दोष भी नहीं बताया गया
अंग्रेजी शासन की तरह
आजीवन निष्कासन का दण्ड
दे दिया गया है
गुप्त कोर्ट के
एक विशेष न्यायालय मेँ...
नारी लेखन मात्र शब्द प्रयोग नहीं, नारी मन की छटपटाहट के प्रतीक हैं. नारी का संघर्ष कल भी था, आज भी है और सदा सतत जारी रहेगा, जब तक उसकी आवाज़ समाज के कानों तक नहीं पहुँचती.
वीना शिरंगी:
कुछ ऐसे भाव लिए दिल्ली की रेडियो स्टेशन से जुडी लेखिका वीना शिरंगी की अभिव्यक्ति भी अपनी तन की, मन की पीढ़ा को सामने ले आई है. देखिये उनकी बानगी:
“मैं एक घने पेड़ की छाया हूँ
हर गुज़रते मुसाफिर के लिए
राहत हूँ
फिर भी हर किसी ने
मेरी छाल उतारी है .”
यह कौन से नए समाज की नींव रखी जा रही है जहां पढ़ाई की रोशनी के सारे दरवाजे बंद किए जा रहे हैं, ताकि हम अज्ञान के अंधेरे में आंखों वाले को भी कुछ साफ़ दिखाई न दे. यह माहौल उस नशे से कम नहीं है जहां इंसान की बेबसी खरीदी और बेची जाए.
डॉ. ध्रुव तनवानी:
रांची की समाजशास्त्री लेखिका डॉ. ध्रुव तनवानी भी ऐसे अमानुषों से भरे इस समाज को “द्रोपदी की फ़ट्कार” नाम के कविता में अपने मन की भड़ास के विद्रोही चीत्कार कागज़ पर उकेरते हुए लिखती है:
ऐ दुर्योधन,
मत करना तू चूक किसी नारी को समझने की,
कि नारी है कोई ज़मी-जायदाद किसी पुरूष की,
जिस जिस्म पे करता है तू इतना घमण्ड-अभिमान
वो जिस्म की मिट्टी भी है किसी नारी के लहू की
तेरे शरीर-सीने में जो रक्त गरम हो रहा है
समझ लो तू न उतार सकेगा ॠण उस नारी का
भले तुम समझो स्वंय को कोई राजा महाराजा
पर औरत भी तो है, कोई माता-राजमाता
भले तू समझ स्वंय को कोई बरगद् पेड या शेर
तब याद रख़ नारी भी है तुलसी व काली दुर्गा
मत लो इम्तहान किसी नारी के धैर्य-त्याग का
न चुका पायेगा क़र्ज़ कभी अपनी माँ के दूध का
अंत न कहकर एक नया आगाज़ कहते हुए मैं इन प्रतिभामान लेखिकाओं की पैनी काव्य धारा में अपनी विचाराभिव्यक्ति रख रही हूँ. यह भी आज के माहौल की उपज है जहाँ स्वार्थ हिंसक होता जा रहा है, मनुष्यता विलीन सी होती जा रही है. बस आबादियों में बरबादियाँ आकर बसती जा रही हैं आतिया के मनोभावों को ज़ाहिर करते हुए यही कहूँगी कि नारी अपनी राह पा चुकी है, अपनी मजिल की ओर क़दम बढ़ा चुकी है, बस मरुस्थल पार करना है.
‘‘मैं अकेलेपन की यात्री
दुरूह पगडंडियों पर पैदल,
तप्त बालू पर चलने की आदी,
मैं जानती हूँ मरुस्थल को शताब्दियों से,
यहाँ छाया का अस्तित्व होता नहीं है।’’
काव्यधारा-अलविदा ऐ साथी
अलविदा ऐ साथी
फ़रेबी फ़ितरत के तुम वारिस
मैं शातिरता से हूँ नावाकिफ़
खुद को लुटा कर अब सीखी हूँ
और विश्वास के साथ कहती हूं
‘ तुम अपनी दुनिया बसाओ
मैं अपनी फना करूं
अपना अंत लाकर उस वजूद के साथ
समस्त कायनात का खात्मा करूं
अपने ही वारिस को अपनी कोख में
दफ़ना कर, खुद को फ़ना करूं’
अभी तक विश्वास नहीं आता
कि मेरी कोख में
मेरे और तेरे बच्चे के भ्रूण में
मेरे और पराए खून की मिलावट है
हां तुमने कहा था, और मैंने सुना था
मेरे विश्वास पर यह
तुम्हारे विश्वासघात का वार था
सच कहती हूँ
वह तुम्हारा ही बच्चा है
तुम कहते हो ‘नहीं’
सच क्या है, तुम भी जानते हो और मैं भी
पर अब, मैं खुद मुख्तियार हूँ
तुम्हारी याद की कोई भी निशानी
न अपने पास, और न इस धरती पर
छोड़ना चाहती हूँ
अलविदा ऐ साथी
मैं अपने आप को फ़ना कर के
इस समस्त कायनात का खात्मा करूंगी
मेरे भीतर धड़कते हुए उस वारिस का
वजूद मिटाकर, अपनी ही कोख में दफ़ना कर
साथ उसके फना हो जाऊंगी.’
देवी नागरानी
देवी नागरानी:
जन्म: 1941 कराची, सिंध (तब भारत) 16 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, 10 कहानी संग्रह, 2 भजन-संग्रह, 16 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट- साहित्य अकादमी प्रकाशन, अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक, धारवाड़रायपुर, जोधपुर, केरल, सागर व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। डॉ. अमृता प्रीतम अवार्ड, एवं मीर अली मीर पुरूस्कार. 2007-राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत। 14 सितम्बर, 2019, महाराष्ट्र राज्य सिन्धी साहित्य अकादमी से ‘माँ कहिंजो ब न आहियाँ’ संग्रह के लिए पुरुस्कृत. 11 अप्रैल, 2021 को ‘गुफ़्तगू संस्था’ की ओर से ‘साहिर लुधियानवी जन्म शताब्दी समारोह’ के अवसर पर ‘साहिर लुधियानवी सम्मान’
सिन्धी अनुदित कथाओं को अब सिन्धी कथा सागर के इस लिंक पर सुनिए.
https://nangranidevi.blogspot.com/ Contact: dnangrani@gmail.com

बटवारा : - कुलतार कौर कक्कड़
समय कितना भयावह हो सकता है यह कौन जानता था। अगस्त सन 1947 की सुबह उधर आजादी का झंडा फहराया जा रहा था इधर मां हम सब भाई बहनों को उठा रही थी। उठो उठो जल्दी से उठो, नहा लो कुछ खा पी लो, मां रूआंसी सी हो रही थी, हमें यह घर और यह देश छोड़कर जाना होगा। क्यों?? हम सब भाई बहनों से एक साथ पूछा। मेरे बच्चों यहां पाकिस्तान बन गया है यहां अब बस मुसलमान रह सकते हैं हिंदू और सिक्खों को सब कुछ छोड़कर हिंदुस्तान जाना पड़ेगा , मां ने कहा।जल्दी करो, जल्दी थोड़ी देर में हमारे ही मुसलमान नौकर लाठियां लेकर आ गए, बोले निकलो यहां से ,यह घर अब हमारा है कोई कुछ भी यहां से नहीं ले जा सकता। अब सब कुछ हमारा है। मैं सात वर्ष की थी दौड़कर अपनी गुड़िया उठा लाई, उन्होंने वह भी मुझसे छीन ली मां ने पराठे और सब्जी बनाई थी वही कपड़े में बांधकर, पानी पीने के लिए एक गिलास उठाया और हम सब घर से बाहर। सब हिंदू, सिख गुरुद्वारे में इक्कठे हुए फिर अनचाहे अनजानी राह पर चल दिए ।
मेरी सबसे छोटी बहन कुछ महीनों की थी लगभग 2 किलोमीटर जाने के बाद भयानक दृश्य देखने को मिला काफिला काटा गया था हिंदू सिक्खों के कटे सिर औरतों , बच्चों के कटे अंग इधर उधर पड़े थे। चारों ओर खून ही खून था फिर भी हम लोग आगे बढ़ गए, सभी की आंखें नम थी थोड़ा चलकर एक सरदार भाई दिखा उसने बताया थोड़ी दूर एक गांव है वहां कोई मुसलमान नहीं रहता वहां चलो वहां पहुंचकर देखा एक बड़ा जमींदार बंदूक लेकर कुर्सी पर बैठा था,लंगर बन रहा था हम सब ने हाथ मुंह धोकर सबसे पहले खाना खाया ,वहां सोने की भी व्यवस्था थी ।दूसरे दिन नाश्ते के बाद हम सबको स्टेशन के पास शरणार्थी कैंप में जाना था जमीदार साहब के पास चार ट्रक और दो जीप थी सबको उसमें भरकर सुरक्षित कैंप पहुंचाया गया, तंबू लगे थे उनमें एक एक परिवार को रखा गया क्योंकि रेलवे लाइन पास ही थी थोड़ी थोड़ी देर में ट्रेन गुजरती थी पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए जा रहे थे किसी किसी रेलगाड़ी के इंजन पर सरदारों के सिर काटकर सजाए गए थे रक्त बह रहा था इसी तरह एक हफ्ता बीत गया। फिर पता चला कि हिंदुस्तान से एक माल गाड़ी आई है हम सबको हिंदुस्तान ले जाने के लिए अचानक से भगदड़ मच गई मेरे छोटे भाई बहन को पापा जी ने उठा लिया मां की गोद में छोटी बहन थी मेरे बड़े भैया ने मेरी उंगली पकड़ ली सभी तेजी से मालगाड़ी के पास पहुंचे और हम सभी लोग आलू प्याज की भांति उस माल गाड़ी में भर दिए गए।
शेखूपुरा से अमृतसर चार घंटे का रास्ता था गाड़ी चल पड़ी पाकिस्तान की मिलिट्री हर स्टेशन पर तैनात थी अब अमृतसर के लिए 1 घंटे का ही रास्ता बाकी था सभी यात्री भूखे प्यासे थे ,गर्मी से गला सूख रहा था अचानक से रेलगाड़ी रुक गई और पता चला पाकिस्तान की मिलिट्री गाड़ी का इंजन उतार कर ले गई है और फिर 14 घंटे तक गाड़ी वही खड़ी रही घना जंगल था पाकिस्तानी मिलिट्री के लोग जवान लड़कियों को बंदूक की नोक पर खींच खीच कर ले जा रहे थे माता पिता मदद के लिए चिल्ला रहे थे, मिलिट्री वाले बोले कि गाड़ी से नीचे जो भी उतरेगा उसे गोली मार दी जाएगी यह सिलसिला काफी देर तक चलता रहा। अचानक से बादल आए और जोरों की बारिश होने लगी तब पाकिस्तानी सैनिक सब भाग खड़े हुए । लोगों ने चैन की सांस ली सब बड़े लोग गाड़ी से उतर कर मुंह खोलकर ज़मीन पर लेट गए जिससे बारिश की बूंदों से अपनी प्यास बूझा सकें। ग्लास कटोरी जो भी था लेकर बारिश का पानी भरने की कोशिश करने लगे कि अगर कुछ बूंदे भर जाएं तो बच्चों बूढ़ों को भी गाड़ी में पिला सकें।सबके कपड़े गीले हो गए पर कुछ संतुष्टि हुई। इतने में एक जीप आई और बताया गया कि गाड़ी में इंजन लग चुका है और हिंदुस्तानी मिलिट्री भी आ गई है। ट्रेन चल पड़ी और एक घंटे बाद हम सब अमृतसर पहुंच गए। सभी ने स्वर्ण मंदिर जाकर स्नान किया और पेट भर कर लंगर खाया।
एक अजीब सी संतुष्टि थी सभी के चेहरे पर की अब हम सुरक्षित हैं ऐसा था मेरा पाकिस्तान से हिंदुस्तान तक का सफर । अब समस्या यह थी कि गुरुद्वारे में कितने दिन रहेंगे तभी अनाउंस हुआ कि अमृतसर के पास शरीफ पुरा है, वह मुसलमानों की बस्ती थी अब वहां कोई नहीं है ,खाली पड़ा है ।शरणार्थी लोग वहां जाकर रह सकते हैं हम सब लोग शरीफ पुरा चल दिए अब सवाल था कि खाएंगे क्या? सभी बड़े लोग स्वर्ण मंदिर जाते वहां लंगर खाते और बच्चों के लिए रोटियां मांग के लाते दाल लाने के लिए बरतन नहीं थे सभी बच्चे सूखी रोटी भी खुशी से खाते और पानी पी लेते। पापाजी बहुत दुखी होते उनसे यह देखा नहीं जा रहा था।
एक दिन उन्होंने मां से कहा कि मेरा एक दोस्त सहारनपुर में रहता है, ईश्वर का बंदा है ,सबकी मदद करता है हम उसी के पास चलते हैं फिर हमारा परिवार देहरादून के पास सहारनपुर पहुंच गया।पापाजी के दोस्त बहुत अच्छे थे, उन्होंने हमारा प्यार से स्वागत किया अपने घर में रहने के लिए एक कमरा दिया। पापा जी बाहर गए तब पता चला कि शरणार्थियों को सराय में दो दो कमरे मिल रहे हैं हम लोग सराय चले गए एक दो दिन तो हम सब भूखे ही सोए फिर एक दिन बड़े भैया खेत से लौकी चुरा आए मां ने ईंटों से चूल्हा बनाया और पास में रहने वाले परिवार ने थोड़ा आटा , तेल मसाले और बर्तन दिया फिर मां ने हम भाई-बहनों के लिए रोटी सब्जी बनाई।
शाम के वक्त सराय के सामने से सेठ लोग गुजरते और शरणार्थी बच्चों को लाइन में बिठा के एक एक पैसा देते। उन पैसों से रात की सब्जी आ जाती और किसी किसी दिन हम भाई बहन उससे कुल्फी खरीद कर खा लेते।पापा जी का पाकिस्तान में होलसेल कपड़े का व्यापार था, वह वही करना चाहते थे परंतु हाथ में पैसा नहीं था और कोई उधार देने को भी तैयार नहीं था इसलिए वह पास के गांव से दूध ला कर शहर में बेचने लगे। बड़े भैया को होटल में काम पे लगा दिया थोड़ी-थोड़ी आमदनी होने लगी तो उन्होंने बाजार में एक छोटी दुकान ले ली और रेस्टोरेंट खोल लिया दिन भर वही पर काम करते थक कर घर आते तब हम सब बच्चों के लिए कुछ ना कुछ लेकर आते।
मां बहुत ही पूजा पाठ वाली थी उनको गुरुद्वारा चाहिए था पास के एक सेठ ने एक छोटा सा प्लाट दान में दे दिया, माताजी चंदा इकट्ठा करने में जुट गई ।फिर थोड़े दिन बाद सरकारी हुकुम आया कि जो शरणार्थी बच्चे पढ़ना चाहते हैं उनको बिना किसी फीस के एडमिशन दिया जा रहा है। एक समाज सेविका ने हम सभी भाई बहनों का स्कूल में दाखिला करा दिया। मैं बहुत खुश थी क्योंकि मुझे पढ़ने का बहुत शौक था। घर में नल तो था नहीं इसलिए स्कूल जाने से पहले मैं छोटी बाल्टी लेकर छोटे भाई बहनों का हाथ पकड़ कुएं पर जाती कुएं से पानी खींच कर छोटे भाई बहनों को वही पर नहला लाती और अपने लिए एक बाल्टी भर कर ले आती फिर हम सब तैयार होकर स्कूल जाते। दिवाली आ गई थी बाजार सजे हुए थे मैं अपनी सबसे छोटी बहन को गोद में लेकर बाजार गई पास में पैसे नहीं थे पर मिठाई खाने का मन ललचा रहा था, मैंने एक हलवाई की दुकान के आगे हाथ फैला दिया उन्होंने मुझे देखा और नाम पूछा मैंने धीरे से बोला "तारा" उन्होंने बड़े ही प्यार से दो पेड़े मेरी हथेली पर रख दिए उन पेड़ों को लेकर मैं ऐसे दौड़ी जैसे कोई खजाना मिल गया हो, घर जाकर सभी भाई बहनों ने बाटकर कर उसे खाया और बहुत खुश हुए।
धीरे धीरे पापा जी का काम चल निकला और कमाई होने लगी हम सभी भाई बहन अच्छे से पढ़ाई करने लगे। मां के साथ और भी लोगों ने चंदा इकट्ठा किया और छोटा सा गुरुद्वारा बन गया। हमारा जीवन अब पहले जैसा हो गया था । पापा जी की कपड़े की दुकान खोल गई, बड़े भैया का रेस्टोरेंट खुल गया, अपना मकान भी हो गया ,सब कुछ अच्छा लगने लगा फिर मैं पंजाब यूनिवर्सिटी चली गई। वहां से लौट कर मैं अपने ही स्कूल में वॉइस प्रिंसिपल बन गई।
एक दिन जब मैं घर जा रही थी पीछे से किसी ने पुकारा , मुड़ कर देखा तो वही मिठाई वाले लालाजी थे, उन्होंने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा और बोले कि तारा आज मिठाई नहीं मांगोगी, मैं धीरे से मुस्कुरा दी और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया लालाजी ने दो पेड़े मेरी हथेली पर रख दिए और हंसने लगे मैं जीवन में यह घटना कभी नहीं भूल सकती।
ऐसा था मेरा तेरह साल का सफर।
मेरी सबसे छोटी बहन कुछ महीनों की थी लगभग 2 किलोमीटर जाने के बाद भयानक दृश्य देखने को मिला काफिला काटा गया था हिंदू सिक्खों के कटे सिर औरतों , बच्चों के कटे अंग इधर उधर पड़े थे। चारों ओर खून ही खून था फिर भी हम लोग आगे बढ़ गए, सभी की आंखें नम थी थोड़ा चलकर एक सरदार भाई दिखा उसने बताया थोड़ी दूर एक गांव है वहां कोई मुसलमान नहीं रहता वहां चलो वहां पहुंचकर देखा एक बड़ा जमींदार बंदूक लेकर कुर्सी पर बैठा था,लंगर बन रहा था हम सब ने हाथ मुंह धोकर सबसे पहले खाना खाया ,वहां सोने की भी व्यवस्था थी ।दूसरे दिन नाश्ते के बाद हम सबको स्टेशन के पास शरणार्थी कैंप में जाना था जमीदार साहब के पास चार ट्रक और दो जीप थी सबको उसमें भरकर सुरक्षित कैंप पहुंचाया गया, तंबू लगे थे उनमें एक एक परिवार को रखा गया क्योंकि रेलवे लाइन पास ही थी थोड़ी थोड़ी देर में ट्रेन गुजरती थी पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए जा रहे थे किसी किसी रेलगाड़ी के इंजन पर सरदारों के सिर काटकर सजाए गए थे रक्त बह रहा था इसी तरह एक हफ्ता बीत गया। फिर पता चला कि हिंदुस्तान से एक माल गाड़ी आई है हम सबको हिंदुस्तान ले जाने के लिए अचानक से भगदड़ मच गई मेरे छोटे भाई बहन को पापा जी ने उठा लिया मां की गोद में छोटी बहन थी मेरे बड़े भैया ने मेरी उंगली पकड़ ली सभी तेजी से मालगाड़ी के पास पहुंचे और हम सभी लोग आलू प्याज की भांति उस माल गाड़ी में भर दिए गए।
शेखूपुरा से अमृतसर चार घंटे का रास्ता था गाड़ी चल पड़ी पाकिस्तान की मिलिट्री हर स्टेशन पर तैनात थी अब अमृतसर के लिए 1 घंटे का ही रास्ता बाकी था सभी यात्री भूखे प्यासे थे ,गर्मी से गला सूख रहा था अचानक से रेलगाड़ी रुक गई और पता चला पाकिस्तान की मिलिट्री गाड़ी का इंजन उतार कर ले गई है और फिर 14 घंटे तक गाड़ी वही खड़ी रही घना जंगल था पाकिस्तानी मिलिट्री के लोग जवान लड़कियों को बंदूक की नोक पर खींच खीच कर ले जा रहे थे माता पिता मदद के लिए चिल्ला रहे थे, मिलिट्री वाले बोले कि गाड़ी से नीचे जो भी उतरेगा उसे गोली मार दी जाएगी यह सिलसिला काफी देर तक चलता रहा। अचानक से बादल आए और जोरों की बारिश होने लगी तब पाकिस्तानी सैनिक सब भाग खड़े हुए । लोगों ने चैन की सांस ली सब बड़े लोग गाड़ी से उतर कर मुंह खोलकर ज़मीन पर लेट गए जिससे बारिश की बूंदों से अपनी प्यास बूझा सकें। ग्लास कटोरी जो भी था लेकर बारिश का पानी भरने की कोशिश करने लगे कि अगर कुछ बूंदे भर जाएं तो बच्चों बूढ़ों को भी गाड़ी में पिला सकें।सबके कपड़े गीले हो गए पर कुछ संतुष्टि हुई। इतने में एक जीप आई और बताया गया कि गाड़ी में इंजन लग चुका है और हिंदुस्तानी मिलिट्री भी आ गई है। ट्रेन चल पड़ी और एक घंटे बाद हम सब अमृतसर पहुंच गए। सभी ने स्वर्ण मंदिर जाकर स्नान किया और पेट भर कर लंगर खाया।
एक अजीब सी संतुष्टि थी सभी के चेहरे पर की अब हम सुरक्षित हैं ऐसा था मेरा पाकिस्तान से हिंदुस्तान तक का सफर । अब समस्या यह थी कि गुरुद्वारे में कितने दिन रहेंगे तभी अनाउंस हुआ कि अमृतसर के पास शरीफ पुरा है, वह मुसलमानों की बस्ती थी अब वहां कोई नहीं है ,खाली पड़ा है ।शरणार्थी लोग वहां जाकर रह सकते हैं हम सब लोग शरीफ पुरा चल दिए अब सवाल था कि खाएंगे क्या? सभी बड़े लोग स्वर्ण मंदिर जाते वहां लंगर खाते और बच्चों के लिए रोटियां मांग के लाते दाल लाने के लिए बरतन नहीं थे सभी बच्चे सूखी रोटी भी खुशी से खाते और पानी पी लेते। पापाजी बहुत दुखी होते उनसे यह देखा नहीं जा रहा था।
एक दिन उन्होंने मां से कहा कि मेरा एक दोस्त सहारनपुर में रहता है, ईश्वर का बंदा है ,सबकी मदद करता है हम उसी के पास चलते हैं फिर हमारा परिवार देहरादून के पास सहारनपुर पहुंच गया।पापाजी के दोस्त बहुत अच्छे थे, उन्होंने हमारा प्यार से स्वागत किया अपने घर में रहने के लिए एक कमरा दिया। पापा जी बाहर गए तब पता चला कि शरणार्थियों को सराय में दो दो कमरे मिल रहे हैं हम लोग सराय चले गए एक दो दिन तो हम सब भूखे ही सोए फिर एक दिन बड़े भैया खेत से लौकी चुरा आए मां ने ईंटों से चूल्हा बनाया और पास में रहने वाले परिवार ने थोड़ा आटा , तेल मसाले और बर्तन दिया फिर मां ने हम भाई-बहनों के लिए रोटी सब्जी बनाई।
शाम के वक्त सराय के सामने से सेठ लोग गुजरते और शरणार्थी बच्चों को लाइन में बिठा के एक एक पैसा देते। उन पैसों से रात की सब्जी आ जाती और किसी किसी दिन हम भाई बहन उससे कुल्फी खरीद कर खा लेते।पापा जी का पाकिस्तान में होलसेल कपड़े का व्यापार था, वह वही करना चाहते थे परंतु हाथ में पैसा नहीं था और कोई उधार देने को भी तैयार नहीं था इसलिए वह पास के गांव से दूध ला कर शहर में बेचने लगे। बड़े भैया को होटल में काम पे लगा दिया थोड़ी-थोड़ी आमदनी होने लगी तो उन्होंने बाजार में एक छोटी दुकान ले ली और रेस्टोरेंट खोल लिया दिन भर वही पर काम करते थक कर घर आते तब हम सब बच्चों के लिए कुछ ना कुछ लेकर आते।
मां बहुत ही पूजा पाठ वाली थी उनको गुरुद्वारा चाहिए था पास के एक सेठ ने एक छोटा सा प्लाट दान में दे दिया, माताजी चंदा इकट्ठा करने में जुट गई ।फिर थोड़े दिन बाद सरकारी हुकुम आया कि जो शरणार्थी बच्चे पढ़ना चाहते हैं उनको बिना किसी फीस के एडमिशन दिया जा रहा है। एक समाज सेविका ने हम सभी भाई बहनों का स्कूल में दाखिला करा दिया। मैं बहुत खुश थी क्योंकि मुझे पढ़ने का बहुत शौक था। घर में नल तो था नहीं इसलिए स्कूल जाने से पहले मैं छोटी बाल्टी लेकर छोटे भाई बहनों का हाथ पकड़ कुएं पर जाती कुएं से पानी खींच कर छोटे भाई बहनों को वही पर नहला लाती और अपने लिए एक बाल्टी भर कर ले आती फिर हम सब तैयार होकर स्कूल जाते। दिवाली आ गई थी बाजार सजे हुए थे मैं अपनी सबसे छोटी बहन को गोद में लेकर बाजार गई पास में पैसे नहीं थे पर मिठाई खाने का मन ललचा रहा था, मैंने एक हलवाई की दुकान के आगे हाथ फैला दिया उन्होंने मुझे देखा और नाम पूछा मैंने धीरे से बोला "तारा" उन्होंने बड़े ही प्यार से दो पेड़े मेरी हथेली पर रख दिए उन पेड़ों को लेकर मैं ऐसे दौड़ी जैसे कोई खजाना मिल गया हो, घर जाकर सभी भाई बहनों ने बाटकर कर उसे खाया और बहुत खुश हुए।
धीरे धीरे पापा जी का काम चल निकला और कमाई होने लगी हम सभी भाई बहन अच्छे से पढ़ाई करने लगे। मां के साथ और भी लोगों ने चंदा इकट्ठा किया और छोटा सा गुरुद्वारा बन गया। हमारा जीवन अब पहले जैसा हो गया था । पापा जी की कपड़े की दुकान खोल गई, बड़े भैया का रेस्टोरेंट खुल गया, अपना मकान भी हो गया ,सब कुछ अच्छा लगने लगा फिर मैं पंजाब यूनिवर्सिटी चली गई। वहां से लौट कर मैं अपने ही स्कूल में वॉइस प्रिंसिपल बन गई।
एक दिन जब मैं घर जा रही थी पीछे से किसी ने पुकारा , मुड़ कर देखा तो वही मिठाई वाले लालाजी थे, उन्होंने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा और बोले कि तारा आज मिठाई नहीं मांगोगी, मैं धीरे से मुस्कुरा दी और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया लालाजी ने दो पेड़े मेरी हथेली पर रख दिए और हंसने लगे मैं जीवन में यह घटना कभी नहीं भूल सकती।
ऐसा था मेरा तेरह साल का सफर।

तीन तलाक कानून पासः कानूनों से स्त्रियों की दशा सुधरने वाली नहीं
डा0 रश्मि कुमारी
अपनी बात को शुरू करने से पहले मोदी जी को बधाई कि उन्होंने तीन तलाक कानून को राज्यसभा तथा लोकसभा से पारित करवाया इतना ही नहीं लोग कह रहें है मोदी जी ने इतिहास रच दिया यह बात ठीक भी हैं पर इतिहास गवाह हैं कि प्राचीनकाल से लेकर आज तक बहुत महान लोग आए जिन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारने में अपना योगदान दिया और अपराधियों को दण्डित करवाने के लिए कड़े कानूनों की व्यवस्था भी की लेकिन नतीजा क्या हुआ। यह कहना उचित नहीं लगता की कानून बना देने मात्र से स्त्रियों की दशा में सुधार हो जाएगा क्योंकि अगर कानून का ही डर होता तो समाज से दहेज प्रथा, बालविवाह, सतीप्रथा, बलात्कार जैसी बुराईयां कब की खतम हो गयी होती। हमारे समाज में जितनी कठोरता के साथ कानून बनाया जाता हैं उतनी ही सरलता से उसका दुरूपयोग भी किया जाता हैं। यह हिन्दुस्तान की विडम्बना हैं कि जब भी कोई कानून बनाया जाता है तो उसे तोड़ने की तरकीब पहले ही खोज ली जाती है। वर्तमान समय में सबसे शर्मनाक घटनायें जो बच्चियों के साथ हो रही, रोज दिन-दहाड़े हत्या की जा रहीं है, लूट-पाट की वारदातें हो रही हैं उसे कौन सा कानून रोक पा रहा है। आपकी सोच से कही ज्यादा अपराध प्रतिदिन बढ़ते जा रहें हैं। जब हिन्दुस्तान की न्यायव्यवस्था में ही दोष है तो समाज की बुराईयों के खिलाफ कौन क्या न्याय करेगा सिर्फ एक मोटी सी बात हैं कि जिस दिन आपकी सरकारें दुरूस्त हो जायेंगी उसी दिन से अपराधों और कानूनों पर भी रोक लग जाएगी। ऐसा कह देने का मतलब यह नहीं हैं कि समाज दोषरहित हो जाएगा लेकिन स्थिति काफी सुधर जाएगी। अपने भारत की राजनीति तो धर्म और जाति पर आधारित हैं और यह दोनों मामले आस्था पर निर्भर होते हैं अर्थात जहां आस्था होगी तो वहां तो कर्म-काण्ड और आडम्बर का बोल-बाला होगा ही। यहां पर किसी सरकार को जनता की नही पड़ी हैं केवल जाति-धर्म के नाम पर अपना वोट बैंक भरना है और मासूम जनता राज्य के चक्रव्यूह में फंसकर अपनी जान दे देती हंै क्योंकि चक्रव्यूह तोड़ने का रास्ता उसे पता ही नही होता।
खैर, यह सब चलता रहेगा। अब आते है तीन तलाक कानून पर तलाक चाहे तीन बार बोलो चाहे एक बार तलाक का मतलब यह होता है कि पति-पत्नी में से किसी एक को दूसरे के साथ नहीं रहना हैं जबकि न्यायव्यवस्था जबरजस्ती उन्हें एक साथ रहने को मजबूर करती हैं। इसमें न्यायव्यवस्था का तो कुछ नही होता परन्तु दो लोगों की जिन्दगियां बर्बाद हो जाती है। जाहिर सी बात हैं कि अगर कोई एक भी साथ में नही रहना चाहता तो ऐसे में कोई कैसे खुश रह सकता है। अब रही मुस्लिम वर्ग की महिलाओं की बात कि अगर पति ने तलाक बोल दिया तो यह गलत हैं और इसके लिए कानून बनाया गया लेकिन क्या कानून बनाकर पति-पत्नी को एक साथ रहने को मजबूर किया जा सकता है जबकि यह मुद्दा मुस्लिमों के साथ नही है बल्कि हर जाति-धर्म के लोगों के साथ हैं। जितने धर्म होते है उतने ही नियम-कानून सबने अपने फायदें के अनुसार नियमों और कानूनों को तोड़-मरोड़ रखा है, वैसे तो मुस्लिम तीन तलाक से ज्यादा गम्भीर मामला हलाला का है क्योंकि हिन्दुस्तान में औरत की पवित्रता को विशेष स्थान दिया गया हैं। भारत में करीब 14 लाख लोग तलाकशुदा हैं यह कुल आबादी का करीब 0.11 फीसदी है, और शादी-शुदा यभारत केद्ध आबादी का 0.24 फीसदी हिस्सा है। ज्यादा हैरत की बात यह है कि अलग हो चुके लोगों की संख्या तलाकशुदा से तीन गुना ज्यादा है। शादी जैसे रिश्तों को लोग इसलिए भी घसीटते रहते हैं क्योंकि तलाकशुदा महिलाओं की दूसरी शादी होना मुश्किल हो जाती हैं। पुरूषों से अधिक यह डर महिलाओं में ज्यादा देखने को मिलता है यदि समाज दूसरी शादी को खुले दिल से स्वीकार करें तो तलाक के मुद्दे इतने अहम न हो। वैसे तो समाज बहुत तेजी से बढ़ रहा हैं परन्तु आज भी कुछ मामलों में समाज खुली सोच नही रखता। तलाक का मामला तो ऐसा है कि इसमें किसी बाहरी की मर्जी नहीं चलेगी यह औरत और मर्द के रिश्ते और मर्जी पर निर्भर हैं आप कानून बनाकर उन्हें मजबूर तो कर सकते हैं, पर उनके दिलों में नजदीकियां पैदा नहीं कर सकते। राज्य को यह बात समझनी होगी की आपके कानून जितने सख्त होगें अपराध की गति उतनी तीव्र होगी। राज्य की व्यवस्था सही हो जाए तो व्यवस्था इन्सान को सही कर देती है। इस देश में प्रकृति के कानून के अलावा कोई कानून नही चल सकता।

संविधान और हिन्दुत्व
‘संविधान’ शब्द दो शब्दों के योग से बना है – सम् और विधान। सम का अर्थ है – समान और विधान का अर्थ है – नियम, विधि अथवा क़ानून। इसका अर्थ यह हुआ कि ‘संविधान उन सभी समान नियमों के समुच्चय से है, जो किसी भी देश के नियमन के लिए आवश्यक है एवं उस देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर लागू हो।’ दूसरे शब्दों में हम संविधान को ‘राष्ट्रीय धर्म’ भी कह सकते हैं।
हमारा देश जब स्वतंत्र हुआ, तब स्वराज को पुनरस्थापित करने के लिए एक लिखित संविधान की आवश्यकता महसूस हुई। चूँकि हमारा देश एक बहुविध देश है, अत: विविधताओं से भरे इस देश को चलाने के लिए विवेचित शासन प्रणाली की दरकार थी, जो संविधान ने पूर्ण की। हमारे देश का संविधान 26 नवंबर 1949 को पारित हुआ था एवं 26 जनवरी 1950 से इसे लागू किया गया।
हमारे देश का संविधान सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। यह 22 भागों में विभाजित है एवं इसमें 395 अनुच्छेद एवं 12 अनुसूचियॉं हैं। इन 22 भागों में मुख्यतः नागरिकता, मूलभूत अधिकार, मूल कर्तव्य, संघ, राज्य , पंचायत, नगर पालिकाऍं, अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र इत्यादि हैं। संविधान के लागू होने से लेकर अभी तक इसमें 127 संशोधन विधेयक संसद में लाए गए, जिनमें से 105 संशोधन विधेयक पारित होकर क़ानून का रूप ले चुके हैं।
संविधान सभी की प्रथम बैठक 1946 में हुई थी, इसके बाद देश दो भागों में बँट चुका था – भारत और पाकिस्तान उल्लेखनीय है कि बँटवारे की मॉंग मुस्लिम पक्ष की ओर से आई थी, भारत के हिन्दू तो सदियों से अन्याय धर्मों के लोगों के साथ रहते आ रहे थे और उन्हें किसी के साथ भी रहने में परेशानी नहीं थी। चूँकि पाकिस्तान की स्थापना ही धर्म के आधार पर हुई थी और वह एक ‘इस्लामिक देश’ कहलाने के लिए भारत से अलग हुआ था, किन्तु इसके बावजूद भारत ने ‘पंथ निरपेक्ष’ होना स्वीकार किया। भारत, जो कि पृथ्वी की सबसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति है, जिसके सनातनी मूल्यों ने पश्चिम तक के विचारकों को प्रभावित किया, ने अपना उदार स्वरूप अक्षुण्ण रखा। हमारा देश आज भी कई विभेदकारी शक्तियों से दो-चार है एवं कई बार हमारी यही उदारता ही विभेदकारी शक्तियों को शह देती हुई भी प्रतीत होती है। कारण है – संविधान के निर्माण के समय से ही बिना हिंदुत्व को जाने, उसको अवहेलित करने के हर वे तरीक़े आज़माए गए, जिससे हम सगर्व एक 'हिन्दू राष्ट्र ' कहला सकते थे। उदारता, हिन्दू धर्म का मूल स्वभाव है और इतिहास गवाह है कि हमने बाहर से आए आगंतुकों का हृदय से स्वागत किया है।
मुस्लिम लीग ने 1940 के लाहौर अधिवेशन में लीग के अध्यक्ष मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि "मुसलमान किसी भी अर्थ में स्वयं में एक राष्ट्र हैं। भारत की समस्या को मात्र दो समुदायों की ही समस्या माना गया, तो यह समस्या हल नहीं होगी, क्योंकि यह दो राष्ट्रों की समस्या है और इससे इसी तरह निपटा जाना चाहिए।" आगे उन्होंने यह भी कहा कि "राष्ट्र की किसी भी परिभाषा से मुसलमान अलग राष्ट्र ही कहलाएँगे और उनकी अपनी सरजमीं, अपना इलाक़ा और अपना राज्य होना ही चाहिए।" ('स्ट्रगल फॉर पाकिस्तान', पृष्ठ 128-129 बाय आई. एच. क़ुरैशी, कराची)
अपनी किताब 'पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ़ इंडिया' में संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं कि "मुस्लिम कानूनों के अनुसार दुनिया दो पक्षों में बँटी है - दारूल-इस्लाम (इस्लाम का आवास) और दारूल-हर्ब (संघर्ष का देश)। वह देश 'दारूल-इस्लाम' कहलाता है, जहाँ मुसलमानों का राज हो। 'दारूल-हर्ब' वे देश हैं, जहाँ मुसलमान रहते तो हैं, पर वे वहाँ के शासक नहीं हैं। अतः भारत; मुसलमानों की भूमि तो हो सकती है, मगर 'बराबरी से रहते हुए हिन्दू और मुसलमानों की साझा भूमि नहीं हो सकती'। यह मुसलमानों की ज़मीन भी केवल तभी हो सकती है, जब इस पर मुसलमानों का शासन हो।"
इसके विपरीत भारत का दर्शन, जो कि सनातन धर्म से उपजा है, वह कहता है - "वसुधैव कुटुम्बकम", यानी सम्पूर्ण धरती ही अपना कुटुम्ब है। केवल यह दो शब्द ही हिन्दुओं की विचाारधारा की व्याख्या करने को पर्याप्त हैं। हम सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के उनके स्वरूपानुसार ही अपनाते आए हैं। भारत के संविधान में जहॉं एक ओर सिंधु (हिन्दू) घाटी सभ्यता , वैदिक आश्रम, भगवान नटराज, रामायण (भगवान राम, सीता माता एवं लक्ष्मण जी), गीतोपदेश (अर्जुन को उपदेश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण), भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, प्रतापी राजा विक्रमादित्य की सभा, विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्व विद्यालय, महाबलीपुरम के शिलालेख, श्री गुरू गोविंद सिंह, वीर शिवाजी महाराज, झॉंसी की रानी लक्ष्मीबाई इत्यादि ईश्वरीय एवं मानव विभूतियों के चित्रों को स्थान दिया गया, वहीं दूसरी ओर संविधान के अलावा भारत की संवैधानिक संस्थाओं में वेद एवं उपनिषद की सूक्तियों का भी स्थान -स्थान पर प्रयोग किया गया है, जैसे - राष्ट्रीय प्रतीक सारनाथ के अशोक स्तम्भ के नीचे 'मुंडका उपनिषद' का ''सत्यमेव जयते'' लिखा होता है, वहीं सुप्रीम कोर्ट का सूत्र वाक्य है - ''यतो धर्मस्ततो जयः'', जो कि महाभारत के एक श्लोक से लिया गया है एवं जिसका अर्थ होता है कि 'जहॉं धर्म है, वहॉं जीत है।' ऑर्कोलोजी सर्वे ऑफ इंडिया (भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग) का ''प्रत्नकीर्तिमपावृणु'', जिसका अर्थ होता है - 'प्रयत्नपूर्वक ही उपलब्धि प्राप्त होती है', ऑल इंडिया रेडियो का ''बहुजनहिताय बहुजनसुखाय'' जिसका अर्थ होता है – ‘सभी जन के हित और सुख के लिए’, इंटेलिजेंस ब्यूरो का ''जागृतम् अहर्निशं'' जिसका अर्थ होता है – ‘हमेशा जाग्रत अथवा सचेत रहें’, भारतीय वायु सेना का ‘‘नभ:स्पृशं दीप्तम्’’ अर्थात् ‘आकाश को छूना’। राज्य सभा में सभापति जी की कुर्सी के ऊपर ''धर्मचक्र प्रवर्तनाय'' लिखा हुआ है, जो कि भगवान बुद्ध के पहले प्रवचन से लिया गया है इत्यादि। इसके अलावा संसद में दीवारों पर कई वैदिक श्लोक भी लिखे हुए हैं। इससे यह साफ है कि हिंदुत्व , भारतीय संविधान की आत्मा है और इसे हिंदुत्व से इतर स्वरूप में व्याखित करना अनुचित ही है।
इस बात को भी खारिज करना चाहिए, कि हमारा संविधान हमें पश्चिम से अथवा पश्चिम की प्रेरणा से मिला है, प्रत्युत हमें दृढ़ता से यह कहना चाहिए कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, गणतंत्र, संप्रभुता जैसे संवैधानिक मूल्य और आदर्श भारतीय मूल्य और हिंदुत्व के आदर्श हैं। इसलिए उसकी सामग्री, विस्तार और व्याख्या भारत के आदर्शों और प्रथाओं पर आधारित होनी चाहिए। हिंदुत्व भाव के बिना भारतीय संविधान की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि हिंदुत्व ही संविधान की आत्मा है।
306, कान्हा अपार्टमेंट,
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इंदौर - 452 018 (मध्य प्रदेश)
मो.: 93292-33344
ई मेल: durgeshsadh@gmail.com
हमारा देश जब स्वतंत्र हुआ, तब स्वराज को पुनरस्थापित करने के लिए एक लिखित संविधान की आवश्यकता महसूस हुई। चूँकि हमारा देश एक बहुविध देश है, अत: विविधताओं से भरे इस देश को चलाने के लिए विवेचित शासन प्रणाली की दरकार थी, जो संविधान ने पूर्ण की। हमारे देश का संविधान 26 नवंबर 1949 को पारित हुआ था एवं 26 जनवरी 1950 से इसे लागू किया गया।
हमारे देश का संविधान सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। यह 22 भागों में विभाजित है एवं इसमें 395 अनुच्छेद एवं 12 अनुसूचियॉं हैं। इन 22 भागों में मुख्यतः नागरिकता, मूलभूत अधिकार, मूल कर्तव्य, संघ, राज्य , पंचायत, नगर पालिकाऍं, अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र इत्यादि हैं। संविधान के लागू होने से लेकर अभी तक इसमें 127 संशोधन विधेयक संसद में लाए गए, जिनमें से 105 संशोधन विधेयक पारित होकर क़ानून का रूप ले चुके हैं।
संविधान सभी की प्रथम बैठक 1946 में हुई थी, इसके बाद देश दो भागों में बँट चुका था – भारत और पाकिस्तान उल्लेखनीय है कि बँटवारे की मॉंग मुस्लिम पक्ष की ओर से आई थी, भारत के हिन्दू तो सदियों से अन्याय धर्मों के लोगों के साथ रहते आ रहे थे और उन्हें किसी के साथ भी रहने में परेशानी नहीं थी। चूँकि पाकिस्तान की स्थापना ही धर्म के आधार पर हुई थी और वह एक ‘इस्लामिक देश’ कहलाने के लिए भारत से अलग हुआ था, किन्तु इसके बावजूद भारत ने ‘पंथ निरपेक्ष’ होना स्वीकार किया। भारत, जो कि पृथ्वी की सबसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति है, जिसके सनातनी मूल्यों ने पश्चिम तक के विचारकों को प्रभावित किया, ने अपना उदार स्वरूप अक्षुण्ण रखा। हमारा देश आज भी कई विभेदकारी शक्तियों से दो-चार है एवं कई बार हमारी यही उदारता ही विभेदकारी शक्तियों को शह देती हुई भी प्रतीत होती है। कारण है – संविधान के निर्माण के समय से ही बिना हिंदुत्व को जाने, उसको अवहेलित करने के हर वे तरीक़े आज़माए गए, जिससे हम सगर्व एक 'हिन्दू राष्ट्र ' कहला सकते थे। उदारता, हिन्दू धर्म का मूल स्वभाव है और इतिहास गवाह है कि हमने बाहर से आए आगंतुकों का हृदय से स्वागत किया है।
मुस्लिम लीग ने 1940 के लाहौर अधिवेशन में लीग के अध्यक्ष मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि "मुसलमान किसी भी अर्थ में स्वयं में एक राष्ट्र हैं। भारत की समस्या को मात्र दो समुदायों की ही समस्या माना गया, तो यह समस्या हल नहीं होगी, क्योंकि यह दो राष्ट्रों की समस्या है और इससे इसी तरह निपटा जाना चाहिए।" आगे उन्होंने यह भी कहा कि "राष्ट्र की किसी भी परिभाषा से मुसलमान अलग राष्ट्र ही कहलाएँगे और उनकी अपनी सरजमीं, अपना इलाक़ा और अपना राज्य होना ही चाहिए।" ('स्ट्रगल फॉर पाकिस्तान', पृष्ठ 128-129 बाय आई. एच. क़ुरैशी, कराची)
अपनी किताब 'पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ़ इंडिया' में संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं कि "मुस्लिम कानूनों के अनुसार दुनिया दो पक्षों में बँटी है - दारूल-इस्लाम (इस्लाम का आवास) और दारूल-हर्ब (संघर्ष का देश)। वह देश 'दारूल-इस्लाम' कहलाता है, जहाँ मुसलमानों का राज हो। 'दारूल-हर्ब' वे देश हैं, जहाँ मुसलमान रहते तो हैं, पर वे वहाँ के शासक नहीं हैं। अतः भारत; मुसलमानों की भूमि तो हो सकती है, मगर 'बराबरी से रहते हुए हिन्दू और मुसलमानों की साझा भूमि नहीं हो सकती'। यह मुसलमानों की ज़मीन भी केवल तभी हो सकती है, जब इस पर मुसलमानों का शासन हो।"
इसके विपरीत भारत का दर्शन, जो कि सनातन धर्म से उपजा है, वह कहता है - "वसुधैव कुटुम्बकम", यानी सम्पूर्ण धरती ही अपना कुटुम्ब है। केवल यह दो शब्द ही हिन्दुओं की विचाारधारा की व्याख्या करने को पर्याप्त हैं। हम सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के उनके स्वरूपानुसार ही अपनाते आए हैं। भारत के संविधान में जहॉं एक ओर सिंधु (हिन्दू) घाटी सभ्यता , वैदिक आश्रम, भगवान नटराज, रामायण (भगवान राम, सीता माता एवं लक्ष्मण जी), गीतोपदेश (अर्जुन को उपदेश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण), भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, प्रतापी राजा विक्रमादित्य की सभा, विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्व विद्यालय, महाबलीपुरम के शिलालेख, श्री गुरू गोविंद सिंह, वीर शिवाजी महाराज, झॉंसी की रानी लक्ष्मीबाई इत्यादि ईश्वरीय एवं मानव विभूतियों के चित्रों को स्थान दिया गया, वहीं दूसरी ओर संविधान के अलावा भारत की संवैधानिक संस्थाओं में वेद एवं उपनिषद की सूक्तियों का भी स्थान -स्थान पर प्रयोग किया गया है, जैसे - राष्ट्रीय प्रतीक सारनाथ के अशोक स्तम्भ के नीचे 'मुंडका उपनिषद' का ''सत्यमेव जयते'' लिखा होता है, वहीं सुप्रीम कोर्ट का सूत्र वाक्य है - ''यतो धर्मस्ततो जयः'', जो कि महाभारत के एक श्लोक से लिया गया है एवं जिसका अर्थ होता है कि 'जहॉं धर्म है, वहॉं जीत है।' ऑर्कोलोजी सर्वे ऑफ इंडिया (भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग) का ''प्रत्नकीर्तिमपावृणु'', जिसका अर्थ होता है - 'प्रयत्नपूर्वक ही उपलब्धि प्राप्त होती है', ऑल इंडिया रेडियो का ''बहुजनहिताय बहुजनसुखाय'' जिसका अर्थ होता है – ‘सभी जन के हित और सुख के लिए’, इंटेलिजेंस ब्यूरो का ''जागृतम् अहर्निशं'' जिसका अर्थ होता है – ‘हमेशा जाग्रत अथवा सचेत रहें’, भारतीय वायु सेना का ‘‘नभ:स्पृशं दीप्तम्’’ अर्थात् ‘आकाश को छूना’। राज्य सभा में सभापति जी की कुर्सी के ऊपर ''धर्मचक्र प्रवर्तनाय'' लिखा हुआ है, जो कि भगवान बुद्ध के पहले प्रवचन से लिया गया है इत्यादि। इसके अलावा संसद में दीवारों पर कई वैदिक श्लोक भी लिखे हुए हैं। इससे यह साफ है कि हिंदुत्व , भारतीय संविधान की आत्मा है और इसे हिंदुत्व से इतर स्वरूप में व्याखित करना अनुचित ही है।
इस बात को भी खारिज करना चाहिए, कि हमारा संविधान हमें पश्चिम से अथवा पश्चिम की प्रेरणा से मिला है, प्रत्युत हमें दृढ़ता से यह कहना चाहिए कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, गणतंत्र, संप्रभुता जैसे संवैधानिक मूल्य और आदर्श भारतीय मूल्य और हिंदुत्व के आदर्श हैं। इसलिए उसकी सामग्री, विस्तार और व्याख्या भारत के आदर्शों और प्रथाओं पर आधारित होनी चाहिए। हिंदुत्व भाव के बिना भारतीय संविधान की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि हिंदुत्व ही संविधान की आत्मा है।
306, कान्हा अपार्टमेंट,
नंदगॉंव कॉलोनी, बख्तावर राम नगर के पास,
इंदौर - 452 018 (मध्य प्रदेश)
मो.: 93292-33344
ई मेल: durgeshsadh@gmail.com

परिवार सही तो राष्ट्र सही : चिन्तक विनोद त्रिवेदी
प्रत्येक राष्ट्र की अपनी संस्कृति और संस्कार होते हैं । किसी भी देश की संस्कृति की उस देश में रहने वाले नागरिकों पर स्पष्ट रूप से प्रभाव होता है । व्यक्ति जिस देश, समाज व परिवार में जन्म लेता है उसी के अनुरूप व्यक्ति के जीवन में संस्कृति और संस्कारों का बीजारोपण होता है। संस्कृति का अर्थ प्राचीन काल से चले आ रहे संस्कारों से है।
भारतीय संस्कृति व्यक्ति में सुसंस्कार उत्पन्न करती है, मानवता और धर्म को दृढ़ बनाती है। लेकिन दुर्भाग्य से आज इसका ह्रास हो रहा है। एक समय था जब शिक्षा में इसका समावेश था। आज की शिक्षा मशीनी मानव बनाने की दिशा में सिर्फ व्यावसायिक शिक्षा तक सीमित रह गयी है ।
आज की शिक्षा यह बताती है कि कौन से कोर्से करने से क्या नौकरी या क्या जॉब मिलेगी। डॉ. इंजिनियर या सी ए, कौन सी पढाई करने से बनेंगे । वह यह नहीं बताती कि कौन से कोर्से से उसमे मानवीय गुण ( कर्तव्यनिष्ठा, विनम्रता, चरित्रवान, उदारता, परिश्रमी ) आयेंगे। आज पाठ्यक्रम से यह विषय गायब है ।
व्यक्ति दुनिया में आता है जीवन जीने के लिए लेकिन वास्तव में वह अनावश्यक अन्य उलझनों में उलझ जाता है । मनुष्य और पशु, पक्षी जानवर में अंतर है तो सिर्फ मस्तिष्क का। मनुष्य महत्वाकांक्षी होता है, सोच सकता है। अपने जीने के लिए सामान इकठ्ठा करता है जबकि पशु पक्षी इकठ्ठा नहीं करते । मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है वह समाज में कुटुंब बनाकर रहता है ।अपने लिए कुछ नीति और नियम तय करता है । व्यक्ति जब जीवन जीता है तो उसमे सुख दुःख के कई पड़ाव आते हैं । न तो हमेशा सुख रहता है और न ही हमेशा दुःख रहता है । संस्कृति और संस्कारों का महत्व यहीं समझा जा सकता है । संस्कार जीवन की कठिन परिस्थितियों में हमारा साथ देते हैं । संस्कार ही व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करते हैं। यही वह मार्ग है, जिस को अपनाकर मनुष्य जीवन में आतंरिक सुख, शान्ति, धैर्य और मान-सम्मान को प्राप्त करता है । नैतिकता, जीवन मूल्य,नीति नियम व्यक्ति को संस्कार ही सिखाते हैं ।
संस्कार किसी शाला में नहीं बल्कि दादा दादी,नाना नानी,माता पिता के प्रतिदिन के नित कार्यों को देखकर बच्चों में आता है । मंदिर, अध्यात्म केंद्र हमारे संस्कारों की पाठशाला हैं। माता पिता अक्सर यह शिकायत करते हैं हमारा बच्चा सुनता ही नहीं । वह वही सीखते हैं जो देखते हैं । वे माता -पिता की नक़ल करते हैं। ३-४ साल की उम्र से ही शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह हमें बच्चों में संस्कार पर भी विशेष जोर देना चाहिए ताकि उनकी जड़ें मजबूत रहे। आज प्रायः छोटी छोटी बातों पर लोग मरने मारने पर उतारू हो जा रहे हैं, नवयुवक जरा सी बात पर आत्महत्या करने लग जा रहे हैं । उनमे घोर निराशा, कुंठा भरा हुआ है । जीवन सदैव एक समान नहीं रहता, उसमे कई चुनौतियाँ आती हैं । उन चुनौतियों का सामना करने के लिए संस्कृति और संस्कार ही काम आता है । जिस तरह व्यक्तिगत जीवन में संस्कार एक ताकत के रूप में काम करता है, उसी तरह यह परिवार, समाज और देश पर भी लागू होता है। हम पर शासन करने के लिए आक्रमणकारी ने सबसे पहले हमारी संस्कृति और संस्कार पर ही हमला किया था।
सपने देखना और उसे साकार करना अच्छी बात है लेकिन लगातार धैर्य पूर्वक और मेहनत के साथ । व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से देश बनता है । इसलिए जैसा हमारा परिवार होगा हमारा देश भी वैसा ही बनेगा ।
भारतीय संस्कृति व्यक्ति में सुसंस्कार उत्पन्न करती है, मानवता और धर्म को दृढ़ बनाती है। लेकिन दुर्भाग्य से आज इसका ह्रास हो रहा है। एक समय था जब शिक्षा में इसका समावेश था। आज की शिक्षा मशीनी मानव बनाने की दिशा में सिर्फ व्यावसायिक शिक्षा तक सीमित रह गयी है ।
आज की शिक्षा यह बताती है कि कौन से कोर्से करने से क्या नौकरी या क्या जॉब मिलेगी। डॉ. इंजिनियर या सी ए, कौन सी पढाई करने से बनेंगे । वह यह नहीं बताती कि कौन से कोर्से से उसमे मानवीय गुण ( कर्तव्यनिष्ठा, विनम्रता, चरित्रवान, उदारता, परिश्रमी ) आयेंगे। आज पाठ्यक्रम से यह विषय गायब है ।
व्यक्ति दुनिया में आता है जीवन जीने के लिए लेकिन वास्तव में वह अनावश्यक अन्य उलझनों में उलझ जाता है । मनुष्य और पशु, पक्षी जानवर में अंतर है तो सिर्फ मस्तिष्क का। मनुष्य महत्वाकांक्षी होता है, सोच सकता है। अपने जीने के लिए सामान इकठ्ठा करता है जबकि पशु पक्षी इकठ्ठा नहीं करते । मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है वह समाज में कुटुंब बनाकर रहता है ।अपने लिए कुछ नीति और नियम तय करता है । व्यक्ति जब जीवन जीता है तो उसमे सुख दुःख के कई पड़ाव आते हैं । न तो हमेशा सुख रहता है और न ही हमेशा दुःख रहता है । संस्कृति और संस्कारों का महत्व यहीं समझा जा सकता है । संस्कार जीवन की कठिन परिस्थितियों में हमारा साथ देते हैं । संस्कार ही व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करते हैं। यही वह मार्ग है, जिस को अपनाकर मनुष्य जीवन में आतंरिक सुख, शान्ति, धैर्य और मान-सम्मान को प्राप्त करता है । नैतिकता, जीवन मूल्य,नीति नियम व्यक्ति को संस्कार ही सिखाते हैं ।
संस्कार किसी शाला में नहीं बल्कि दादा दादी,नाना नानी,माता पिता के प्रतिदिन के नित कार्यों को देखकर बच्चों में आता है । मंदिर, अध्यात्म केंद्र हमारे संस्कारों की पाठशाला हैं। माता पिता अक्सर यह शिकायत करते हैं हमारा बच्चा सुनता ही नहीं । वह वही सीखते हैं जो देखते हैं । वे माता -पिता की नक़ल करते हैं। ३-४ साल की उम्र से ही शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह हमें बच्चों में संस्कार पर भी विशेष जोर देना चाहिए ताकि उनकी जड़ें मजबूत रहे। आज प्रायः छोटी छोटी बातों पर लोग मरने मारने पर उतारू हो जा रहे हैं, नवयुवक जरा सी बात पर आत्महत्या करने लग जा रहे हैं । उनमे घोर निराशा, कुंठा भरा हुआ है । जीवन सदैव एक समान नहीं रहता, उसमे कई चुनौतियाँ आती हैं । उन चुनौतियों का सामना करने के लिए संस्कृति और संस्कार ही काम आता है । जिस तरह व्यक्तिगत जीवन में संस्कार एक ताकत के रूप में काम करता है, उसी तरह यह परिवार, समाज और देश पर भी लागू होता है। हम पर शासन करने के लिए आक्रमणकारी ने सबसे पहले हमारी संस्कृति और संस्कार पर ही हमला किया था।
सपने देखना और उसे साकार करना अच्छी बात है लेकिन लगातार धैर्य पूर्वक और मेहनत के साथ । व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से देश बनता है । इसलिए जैसा हमारा परिवार होगा हमारा देश भी वैसा ही बनेगा ।

वसंत पंचमी
वसंत पञ्चमी भारत वर्ष के महत्वपूर्ण त्योंहारों में से एक है, और हो भी क्यों नहीं। जो दिन आर्थिक, सामाजिक , धार्मिक, शारीरिक एवं सभी तरह की आनेवाली खुशियों का सन्देश लेकर आता है, वह महत्वपूर्ण तो होगा ही।चारों तरफ फूलों की महक फैलाने वाली, खुशियाली बिखेरनेवाली वसंत ऋतू का आगमन इसी दिन से होता है।भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने श्रीमुख से जिस ऋतू को अपने समकक्ष बताया हो उसकी महिमा कौन बता सकता है। श्रीमद्भगवत गीता के अध्याय 10 के श्लोक 35 में भगवान् अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को बताते है,
"बृहत्साम तथा साम्नाम् गायत्री छन्दसामहं। मासानाम् मार्गशीर्षोअहम्ऋतूनाम् कुसुमाकरः"।।35।।
यानि मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ, छन्दों में मैं गायत्री हूँ। महीनों में मैं मार्गशीर्ष और ऋतुओं में मैं फूलों की जननी वसंत हूँ।।
मान्यताओं के अनुसार यह देवी सरस्वती का जन्मदिन है। कंही कंही यह भी वर्णन आया है कि यह माँ महालक्ष्मी का भी जन्मदिवस है। इसीलिए इसे सरस्वती पूजन दिवस और श्री पञ्चमी भी कहा जाता है।
देवी सरस्वती ज्ञान, विद्या, वाणी और बुद्धि की प्रणेता है। हमारे आचार, व्यवहार और मनोवृत्तयों को संरक्षण प्रदान करती है। इसीलिए वसंत पञ्चमी के दिन माँ सरस्वती के पूजन अर्चन का विशेष महत्व बताया गया है। बहुत से स्कूल कोलेजों में भी आज के दिन विद्यार्थियों को सरस्वती-वंदना करवाई जाती है। छोटे बच्चों के विद्या आरम्भ के लिए आज का दिन सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
वसंत पंचमी के दिन छोटे बच्चों की जीभ पर सहद से ॐ लिख कर औपचारिक़ शिक्षा का शुभ-आरम्भ किया जाता है। सामूहिक पूजाओं का भी आयोजन वसंत पञ्चमी के दिन किया जाता है। बिना माँ सरस्वती के आशीर्वाद के न तो किसी को ज्ञान की प्राप्ति होती है और न ही प्राप्त ज्ञान की अभिव्यक्ति की जा सकती है। इसीलिए वसंत पञ्चमी के दिन माँ सरस्वती का पूजन अर्चन सभी जगह धूम धाम से किया जाता है।
धार्मिक दृष्टिकोण से तो यह दिन बहुत ही शुभ एवं समृद्धि -प्रदायक है ही, इस दिन नये कार्य को प्रारम्भ करने के लिए किसी मुहूर्त की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। लेकिन सामाजिक, आर्थिक, स्वास्थ्य और वैज्ञानिक दृष्टि से भी वसंत पञ्चमी का बहुत महत्व है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी को वसंत पञ्चमी कहा जाता है। वसंत ऋतू के आगमन की सूचना देता यह दिन उत्साह और उमंगों से भरा आता है।मार्गशीश और पौष की जकड़न भरी ठण्ड से निज़ाद दिलाकर गुलाबी ठण्ड में परिवर्तित करने वाला मौषम साथ लेकर आता है । शारीरिक दृष्टि से न केवल आनन्द का मौषम बल्कि सर्दी जुखाम बुखार आदि कई बिमारियों के डर से भी छुटकारा दिलाने की शुरुवात इसी दिन से होती है।
चारों ओर फूल खिलने लगते है, नयी फसलों की शुरुवात हो जाती है। मानों यह दिन नयी चेतना का ही संचार करने वाला दिन है। हर तरफ हरियाली और खुशियाली बिखेरने के लिए ही इस ऋतू को ऋतुराज वसंत कहा जाता है। वसंत पञ्चमी इस खुशनुमा ऋतू की पूर्व सूचना देने वाली सन्देश वाहक है। इसीलिए इस दिन सभी लोग अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और उम्मीदों को बड़े उत्साह से प्रदर्शित करते है। राजस्थान में ढप (चंग नृत्य) बहुत मशहूर है। यह होलीकोत्सव के समय अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है, लेकिन इसकी शुरुवात वसंत पञ्चमी से ही की जाती है।
खिलखिलाते हुए खेतोँ को देख मन प्रसन्नता से झूमने लगता है, और किसान खेत में ही लोक गीत और ढ़प की ताल पर नाच उठता है। किसान को आने वाले दिनों में अपनी फसल से आर्थिक तंगी दूर होती हुयी लगने लगती है। सरसों के फूलों से धरती सोने से आच्छादित हो गयी हो ऐसा प्रतीत होता है । इसीलिए पीले रंग को वसंती भी कहा जाता है।
हर जगह इस त्योंहार को मनाने के तरीके अलग होते है लेकिन उत्साह और उमंग सभी जगह भरपूर देखने को मिलते है। जैसे राजस्थान में ढप (चँग ) की विशेषता है, वैसे ही गुजरात में पतंगोत्सव का बहुत महत्व है। मकर सकरान्ति से शुरू हुआ यह पर्व वसंत पञ्चमी के दिन परवान् पर चढ़ जाता है, सभी ओर पतंगे ही पतेंगे दिखाई देती है। पूरे भारत में वसंत पञ्चमी का त्योंहार बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। वसंत पञ्चमी के दिन कोई गाकर, कोई बजाकर, कोई पतंग उड़ाकर और कोई विशेष पूजाओं का आयोजन कर मन में उभरती हुयी आशाओं और उम्मीदों को मूर्तरूप प्रदान करता है।
"बृहत्साम तथा साम्नाम् गायत्री छन्दसामहं। मासानाम् मार्गशीर्षोअहम्ऋतूनाम् कुसुमाकरः"।।35।।
यानि मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ, छन्दों में मैं गायत्री हूँ। महीनों में मैं मार्गशीर्ष और ऋतुओं में मैं फूलों की जननी वसंत हूँ।।
मान्यताओं के अनुसार यह देवी सरस्वती का जन्मदिन है। कंही कंही यह भी वर्णन आया है कि यह माँ महालक्ष्मी का भी जन्मदिवस है। इसीलिए इसे सरस्वती पूजन दिवस और श्री पञ्चमी भी कहा जाता है।
देवी सरस्वती ज्ञान, विद्या, वाणी और बुद्धि की प्रणेता है। हमारे आचार, व्यवहार और मनोवृत्तयों को संरक्षण प्रदान करती है। इसीलिए वसंत पञ्चमी के दिन माँ सरस्वती के पूजन अर्चन का विशेष महत्व बताया गया है। बहुत से स्कूल कोलेजों में भी आज के दिन विद्यार्थियों को सरस्वती-वंदना करवाई जाती है। छोटे बच्चों के विद्या आरम्भ के लिए आज का दिन सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
वसंत पंचमी के दिन छोटे बच्चों की जीभ पर सहद से ॐ लिख कर औपचारिक़ शिक्षा का शुभ-आरम्भ किया जाता है। सामूहिक पूजाओं का भी आयोजन वसंत पञ्चमी के दिन किया जाता है। बिना माँ सरस्वती के आशीर्वाद के न तो किसी को ज्ञान की प्राप्ति होती है और न ही प्राप्त ज्ञान की अभिव्यक्ति की जा सकती है। इसीलिए वसंत पञ्चमी के दिन माँ सरस्वती का पूजन अर्चन सभी जगह धूम धाम से किया जाता है।
धार्मिक दृष्टिकोण से तो यह दिन बहुत ही शुभ एवं समृद्धि -प्रदायक है ही, इस दिन नये कार्य को प्रारम्भ करने के लिए किसी मुहूर्त की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। लेकिन सामाजिक, आर्थिक, स्वास्थ्य और वैज्ञानिक दृष्टि से भी वसंत पञ्चमी का बहुत महत्व है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी को वसंत पञ्चमी कहा जाता है। वसंत ऋतू के आगमन की सूचना देता यह दिन उत्साह और उमंगों से भरा आता है।मार्गशीश और पौष की जकड़न भरी ठण्ड से निज़ाद दिलाकर गुलाबी ठण्ड में परिवर्तित करने वाला मौषम साथ लेकर आता है । शारीरिक दृष्टि से न केवल आनन्द का मौषम बल्कि सर्दी जुखाम बुखार आदि कई बिमारियों के डर से भी छुटकारा दिलाने की शुरुवात इसी दिन से होती है।
चारों ओर फूल खिलने लगते है, नयी फसलों की शुरुवात हो जाती है। मानों यह दिन नयी चेतना का ही संचार करने वाला दिन है। हर तरफ हरियाली और खुशियाली बिखेरने के लिए ही इस ऋतू को ऋतुराज वसंत कहा जाता है। वसंत पञ्चमी इस खुशनुमा ऋतू की पूर्व सूचना देने वाली सन्देश वाहक है। इसीलिए इस दिन सभी लोग अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और उम्मीदों को बड़े उत्साह से प्रदर्शित करते है। राजस्थान में ढप (चंग नृत्य) बहुत मशहूर है। यह होलीकोत्सव के समय अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है, लेकिन इसकी शुरुवात वसंत पञ्चमी से ही की जाती है।
खिलखिलाते हुए खेतोँ को देख मन प्रसन्नता से झूमने लगता है, और किसान खेत में ही लोक गीत और ढ़प की ताल पर नाच उठता है। किसान को आने वाले दिनों में अपनी फसल से आर्थिक तंगी दूर होती हुयी लगने लगती है। सरसों के फूलों से धरती सोने से आच्छादित हो गयी हो ऐसा प्रतीत होता है । इसीलिए पीले रंग को वसंती भी कहा जाता है।
हर जगह इस त्योंहार को मनाने के तरीके अलग होते है लेकिन उत्साह और उमंग सभी जगह भरपूर देखने को मिलते है। जैसे राजस्थान में ढप (चँग ) की विशेषता है, वैसे ही गुजरात में पतंगोत्सव का बहुत महत्व है। मकर सकरान्ति से शुरू हुआ यह पर्व वसंत पञ्चमी के दिन परवान् पर चढ़ जाता है, सभी ओर पतंगे ही पतेंगे दिखाई देती है। पूरे भारत में वसंत पञ्चमी का त्योंहार बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। वसंत पञ्चमी के दिन कोई गाकर, कोई बजाकर, कोई पतंग उड़ाकर और कोई विशेष पूजाओं का आयोजन कर मन में उभरती हुयी आशाओं और उम्मीदों को मूर्तरूप प्रदान करता है।

" बसंत अर बुढ़ापा रो फेरौ "
: पूजाश्री
म्हारै साथहाळी सगळी पाड़ोसना, बुढ़ापा री ओर जाबा लागी है। अब ई मं तो आपसी जळण री कोई बात कोनी पण, कोई, कोई इस्सी भी है, जीपर हालताणी बुढ़ापा रो असर कोनी हुयौ है। मूंडा पर अक भी सळ कोनी दीखै । गाल भी गुलाब जियां रा लागे । ओक आद पाड़ोसन इस्सी भी है जीने केस-काळा करबारै साथ-साथ आँख्यां रा बुंआरा भी काळा करणा पड़े है।
ओक दूजी पाड़ोसन घणी आधुनिक है। बाल-काळा करबा री जगां बा तो, माथो ही मूंडा लियौ। माथो तो मुंडा लियौ पण, बुंवारा काळा करबा मंडर लागै, क्यूँ कै बा पढ़ी-लिखी है, जाणै है के खिज़ाब आँख्याँ रै आस-पास नी आणी चाईजै है। अब घणी पछतारी है कै "न तो बा लुगाई दीखै अर न बा मोट्यार दीखै। अब पछताबारै सिवाय कै बचौ ।
ओक और पाड़ोसन है जो 60 बरस रे ऊपर व्हैगी, पण बुढ़ापा सूं ज़रा भी कोनी डरै । हालताणी वसंत बीप र घणौ महरबान है। लोग कैवता रैवै कै, जाणै किसी चक्की रो आटो खावै है? पण जठाताणी मैं जाणूं हूं-, बा खुशमिजाज लुगाई है। जदै भी, बी-सूं बातचीत होवै तद बा कदैई मूंडो सुजायर बात कोनी करै, सदा ही हंसती रैवे पण, जद, बी सूं कोई इतिहास अर खाण-पाण रै बारा मं बात करल्यौ तो, फेरूं, जाणकारी री सगळी किताबां खुल जावै।"
म्हारी ओक पाड़ोसन तो घणा चोखा-चोखा पकवान खावती रैवे है, फैरूं भी सदा ही खाट पर मांदी पड़ी रैवे है ।
ई पाड़ोसन री बात जदै भी, मैं, खुशमिजाज -हाळी पाड़ोसन सूं करूं, तद बा झट अपणौ ग्यान बगारबा लाग जावै-"देख पूजा सगळा ओक ही बात रोवै कै- पैल्यां रो जमानो घणो चोखो हो । चीजां घणी सस्ती ही । खाण-पाण घणौ उम्दा हो, ई खातर पैल्यांरा लोग बेगा बूढ़ा कोनी होता हा पण "पूजा बी जमाना मं भी कितरा लोगां नै चोखा खावण नै मिलतो हो । सेठां रै काम करण हाळा दास तो दास ही हुया करता हा । तनखा दस या पंदरा-रूप्या हुया करती ही। अब इतरा सा रूप्या मं कितरो खाणो पीणो होतो हो?" आजकाल रा जमाना मं महंगाई बढ़ी है तो तनखा भी तो ओक हजार
री जगां, दस हजार व्हैगी है। कुआवत है के "सकळ पदारथ है- जग माही,
करमहीन नर पावत नाही ।
" आ बात पैल्यां भी लागू हौ, अर आज भी है । म्हारी आ पाड़ोसन जद बोलबा लागै तद बी नै चुप कराणो घणो कठिन काम है।
ख़ुशमिजाज पाड़ोसन नै, मैं एक दिन पूछ बैठी कि, बैणजी, थे सदा निरोगी रैवो हो आ घणी सुखद बात है, पण मन्नै भी थां रा जीवण मूल्यां बारा मं थोड़ो बतावो ।"
"देख पूजा ई मं बतावण री कोई बात कोनी, अब देख मैं कदै भी, बारै री चीज़ कोनी खाऊँ, अर कदै भी ठंडा पेय पदारथ कोनी पीऊं। किराया रा घर मं रैऊ हूं, जो म्हारा बाप-दादा रा, जमाना रो किरायो ही, हालताणी देणौ पड़े है । पाणी रो बिल अर बिजळी रो बिल ही भरणौ पड़ै है। नै तो मन्नै कोई घर रो टैक्स देणौ पड़ै अर न ही म्हारै घरां कोई नौकर-चाकर है। मैं ही सगळा काम करलिया करूं हूं, अब ई बात मं कीं रो नुस्खौ ?
ओक दिन अचूकच ही बा मांदी व्हैगी। मैं बीरी तबीयत पूछण नै गई। थोड़ी अठी, - बठी री बातां रै बाद, बा म्हारा सूं अचानक केवण लागी - "देख पूजा, बुढ़ापा रो फेरो' कोई न, कोनी छोड़ै, अर, अब ओ बुढ़ापा रो फेरो हो कै ब्याव रो फेरो, मैं बी नै पूच्छौ अब ई बात मं ब्याव रो फेरो कठांसू " आग्यौ ।”
बा मूंडो लटकायर बोली "पूजा मं बुढ़ापा सूं घणी डरती ही, ई खातर ही मैं ब्याव कोनी कर्यो, पण आज मैं पछतारी हूं- जद बुढ़ापो आणौ ही हो, तद ब्याव कर'र ही बुढापो आतो तो चोखो हो। म्हारै बाद म्हारो नाम लेण हाळो बसंत तो रैवतो । बसंत रेवणौ घणौ जरूरी है, पण अब कै करूं, जद "चिड़कल्यां पूरै खेत ही चुग्गी है" मैं बुढ़ापारी बात करणहाळां सू सदा ही राड़ कर बैठती ही ।
आज म्हारी पाड़ोसन मन्नै घरां ही कोनी जाबा दे री ही । मैं भी बी री
तबीयत ज्यादा खराब देख'र घरां फोन कर दियो- "कै मैं आज थोड़ी, मोड़ी हो जाऊँला घरां आबा मं / थे कोई चिंता मत करज्यौ । मोड़ी आवण रो, कारण भी घरहाळां नै बतादियौ, पौ-फाटतां ही मैं बेगी-बेगी ऊठी अर पाड़ोसन न ै जगायर कयौ कै, अब मैं घरां चालूं हूं दिन उग आयो है। बा मूंडा मं बड़बड़ाती कैवगी, कै, "मैं जाणूं हूं बुढ़ापा रा फेरा रै सागै कोई कोनी चालै। सगळा बसंत रै ही सागै चाल्या करै है ।
पाछै रैग्यो म्हारो बसंत |
ओक दूजी पाड़ोसन घणी आधुनिक है। बाल-काळा करबा री जगां बा तो, माथो ही मूंडा लियौ। माथो तो मुंडा लियौ पण, बुंवारा काळा करबा मंडर लागै, क्यूँ कै बा पढ़ी-लिखी है, जाणै है के खिज़ाब आँख्याँ रै आस-पास नी आणी चाईजै है। अब घणी पछतारी है कै "न तो बा लुगाई दीखै अर न बा मोट्यार दीखै। अब पछताबारै सिवाय कै बचौ ।
ओक और पाड़ोसन है जो 60 बरस रे ऊपर व्हैगी, पण बुढ़ापा सूं ज़रा भी कोनी डरै । हालताणी वसंत बीप र घणौ महरबान है। लोग कैवता रैवै कै, जाणै किसी चक्की रो आटो खावै है? पण जठाताणी मैं जाणूं हूं-, बा खुशमिजाज लुगाई है। जदै भी, बी-सूं बातचीत होवै तद बा कदैई मूंडो सुजायर बात कोनी करै, सदा ही हंसती रैवे पण, जद, बी सूं कोई इतिहास अर खाण-पाण रै बारा मं बात करल्यौ तो, फेरूं, जाणकारी री सगळी किताबां खुल जावै।"
म्हारी ओक पाड़ोसन तो घणा चोखा-चोखा पकवान खावती रैवे है, फैरूं भी सदा ही खाट पर मांदी पड़ी रैवे है ।
ई पाड़ोसन री बात जदै भी, मैं, खुशमिजाज -हाळी पाड़ोसन सूं करूं, तद बा झट अपणौ ग्यान बगारबा लाग जावै-"देख पूजा सगळा ओक ही बात रोवै कै- पैल्यां रो जमानो घणो चोखो हो । चीजां घणी सस्ती ही । खाण-पाण घणौ उम्दा हो, ई खातर पैल्यांरा लोग बेगा बूढ़ा कोनी होता हा पण "पूजा बी जमाना मं भी कितरा लोगां नै चोखा खावण नै मिलतो हो । सेठां रै काम करण हाळा दास तो दास ही हुया करता हा । तनखा दस या पंदरा-रूप्या हुया करती ही। अब इतरा सा रूप्या मं कितरो खाणो पीणो होतो हो?" आजकाल रा जमाना मं महंगाई बढ़ी है तो तनखा भी तो ओक हजार
री जगां, दस हजार व्हैगी है। कुआवत है के "सकळ पदारथ है- जग माही,
करमहीन नर पावत नाही ।
" आ बात पैल्यां भी लागू हौ, अर आज भी है । म्हारी आ पाड़ोसन जद बोलबा लागै तद बी नै चुप कराणो घणो कठिन काम है।
ख़ुशमिजाज पाड़ोसन नै, मैं एक दिन पूछ बैठी कि, बैणजी, थे सदा निरोगी रैवो हो आ घणी सुखद बात है, पण मन्नै भी थां रा जीवण मूल्यां बारा मं थोड़ो बतावो ।"
"देख पूजा ई मं बतावण री कोई बात कोनी, अब देख मैं कदै भी, बारै री चीज़ कोनी खाऊँ, अर कदै भी ठंडा पेय पदारथ कोनी पीऊं। किराया रा घर मं रैऊ हूं, जो म्हारा बाप-दादा रा, जमाना रो किरायो ही, हालताणी देणौ पड़े है । पाणी रो बिल अर बिजळी रो बिल ही भरणौ पड़ै है। नै तो मन्नै कोई घर रो टैक्स देणौ पड़ै अर न ही म्हारै घरां कोई नौकर-चाकर है। मैं ही सगळा काम करलिया करूं हूं, अब ई बात मं कीं रो नुस्खौ ?
ओक दिन अचूकच ही बा मांदी व्हैगी। मैं बीरी तबीयत पूछण नै गई। थोड़ी अठी, - बठी री बातां रै बाद, बा म्हारा सूं अचानक केवण लागी - "देख पूजा, बुढ़ापा रो फेरो' कोई न, कोनी छोड़ै, अर, अब ओ बुढ़ापा रो फेरो हो कै ब्याव रो फेरो, मैं बी नै पूच्छौ अब ई बात मं ब्याव रो फेरो कठांसू " आग्यौ ।”
बा मूंडो लटकायर बोली "पूजा मं बुढ़ापा सूं घणी डरती ही, ई खातर ही मैं ब्याव कोनी कर्यो, पण आज मैं पछतारी हूं- जद बुढ़ापो आणौ ही हो, तद ब्याव कर'र ही बुढापो आतो तो चोखो हो। म्हारै बाद म्हारो नाम लेण हाळो बसंत तो रैवतो । बसंत रेवणौ घणौ जरूरी है, पण अब कै करूं, जद "चिड़कल्यां पूरै खेत ही चुग्गी है" मैं बुढ़ापारी बात करणहाळां सू सदा ही राड़ कर बैठती ही ।
आज म्हारी पाड़ोसन मन्नै घरां ही कोनी जाबा दे री ही । मैं भी बी री
तबीयत ज्यादा खराब देख'र घरां फोन कर दियो- "कै मैं आज थोड़ी, मोड़ी हो जाऊँला घरां आबा मं / थे कोई चिंता मत करज्यौ । मोड़ी आवण रो, कारण भी घरहाळां नै बतादियौ, पौ-फाटतां ही मैं बेगी-बेगी ऊठी अर पाड़ोसन न ै जगायर कयौ कै, अब मैं घरां चालूं हूं दिन उग आयो है। बा मूंडा मं बड़बड़ाती कैवगी, कै, "मैं जाणूं हूं बुढ़ापा रा फेरा रै सागै कोई कोनी चालै। सगळा बसंत रै ही सागै चाल्या करै है ।
पाछै रैग्यो म्हारो बसंत |

वसंत पंचमी : मृदुला पोद्दार
आजकल सुबह-सुबह जब हम टहलने निकलते हैं, तो गमलों में, पौधों पर नन्हीं नन्हीं कलियाँ, छोटे-छोटे कोमल पत्ते दिखलाई देते हैं। चिड़ियों की चहचहाट सुनाई देती है, जो ठंड के मारे अब तक कहीं दुबकी बैठी थीं। रंग-बिरंगी तितलियाँ फूलों पर मंडराती दिखलाई देती हैं। मौसम सुहावना होने लगता है और हाड़ कंपाती ठंड धीरे-धीरे जाने लगती है। प्रकृति का यही बदलाव बसंत ऋतु के आगमन की सूचना देता है, जिसके स्वागत में हम बसंत पंचमी मनाते हैं। प्रति वर्ष माघ महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी को पूरे भारत में उमंग और उल्लास के साथ यह त्यौहार मनाया जाता है। बसंत को ऋतु राज भी कहा जाता है क्योंकि यह वर्ष का सबसे सुहावना समय होता है न कड़कड़ाती ठंड, न तनमन झुलसाने वाली गर्मी और न हीं जल-थल एक करने वाली वर्षा।
हमारे यहाँ प्रायः सभी त्यौहार पर्यावरण में आने वाले बदलाव के सूचक होते हैं। हर तरफ पेड़ पौधों पर नई पत्तियाँ-कलियाँ, फूल खिलने लगते हैं। आम के पेड़ों पर बौर आ जाते हैं और कोयल कूकने लगती है। खेतों में सरसों की फसल लहलहाने लगती है, और सारी धरती पीली नजर आती है। पीला रंग उत्साह, उमंग और उल्लास का रंग है। प्रकृति इस समय अपने पूर्ण श्रृंगार में नजर आती है। झरने, नदियाँ जो भीषण ठंड से जम गये थे, फिर से गतिमान हो जाते हैं।
बसंत पंचमी के ही दिन संगीत-कला और ज्ञान की देवी सरस्वती का उद्भव हुआ था, जिनके एक हाथ में वीणा थी और एक हाथ में पुस्तक थी। ऐसा माना जाता है वीणा वादिनी माँ शारदा की वीणा के तारों की झंकार ने ही सृष्टि को वाणी दी, चेतना दी। इस दिन कलाकारों और लेखकों द्वारा सरस्वती की आराधना का उतना ही महत्व है, जितना दीपावली के अवसर पर व्यापारियों द्वारा लक्ष्मी पूजन का माँ सरस्वती की पूजा पीले वस्त्र पहन कर पीले पुष्प अर्पित करके की जाती है।
हमारे यहाँ वसंत पंचमी का उत्सव मदनोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है इस दिन गणेश पूजन के पश्चात् रति और प्रेम के देवता कामदेव का भी पूजन किया जाता है, जिससे गृहस्थ जीवन सुखमय होता है और फिर मौसम का सुहावना होना भी मौसम को आशिकाना बना देता है। शायद तभी “बधाई हो" फिल्म जैसी स्थिति प्रौढ़ावस्था में भी आ जाती है। कामदेव के पाँच बाण (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) प्रकृति संसार में अभिसार को आमंत्रित करते हैं, यानि युगल प्रेमियों के मिलन को ।
लगभग यही समय होता है जब पश्चिमी देशों की देखा-देखी, हमारे देश में भी “वेलंटाईन डे” की धूम मच जाती है। बाजारों में, होटलों में और सड़कों पर। प्रायः बसंत पंचमी और वेलंटाईन डे पास-पास में ही आते हैं और हमारी नई पीढ़ी अपने वसंतोत्सव को भूल पाश्चात्य संस्कृति को अपना रही है। वास्तव में वेलंटाईन डे हमारे पारंपारिक वसंतोत्सव का ही पश्चिमी स्वरूप है।
बसंत पंचमी से जुड़ी हुई अनेक कहानियाँ हैं धार्मिक भी और ऐतिहासिक भी। त्रेता युग में जब भगवान राम, सीता को ढूंढ़ते हुए दण्डाकारण्य में पहुँचे तो शबरी के झूठे बेर जिस दिन खाये थे उस दिन बसंत पंचमी ही थी। इसलिये जिस शिला पर बैठकर भगवान ने बेर खाए थे उसका पूजन आज भी मध्य प्रदेश में बसंत पंचमी के दिन किया जाता है।
दूसरी ऐतिहासिक कहानी है, जो पृथ्वीराज चौहान की याद दिलाती है, जिस पर मुहम्मद गौरी ने १६ बार हमला किया था और हर बार पराजित हुआ, लेकिन पृथ्वीराज ने उसे उदारता-वश हर बार जीवन दान दिया। लेकिन जब सत्रहवीं बार हमला हुआ तो पृथ्वीराज पराजित हो गये और मुहम्मद गौरी उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और वहाँ उनकी आँखे फोड़ दीं। लेकिन गौरी ने मृत्युदण्ड देने से पहले उनके शब्द भेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चन्द्र बरदाई के परामर्श पर सुलतान ने एक ऊँची चट्टान पर बैठकर एक तवे पर जोर से प्रहार किया, तब चन्द्र बरदाई ने पृथ्वीराज को इस दोहे के रूप में संकेत दिया -
चार बांस, चौबीस गज,
अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता उपर सुल्तान है,
मत चूको चौहान।
इस इशारे को समझकर पृथ्वीराज चौहान ने जो बाण चलाया वो सीधा मुहम्मद गौरी की छाती में लगा। लेकिन चारों ओर दुश्मनों से घिरे हुए दोनों ने एक-दूसरे के पेट में छुरा झोंक कर आत्मबलिदान दिया।
यह घटना सन् ११९२ के बसंत पंचमी के दिन घटी थी। शायद इसीलिये तो नहीं है शहीदों का नारा “मेरा रंग दे बसंती चोला..."
हमारे यहाँ प्रायः सभी त्यौहार पर्यावरण में आने वाले बदलाव के सूचक होते हैं। हर तरफ पेड़ पौधों पर नई पत्तियाँ-कलियाँ, फूल खिलने लगते हैं। आम के पेड़ों पर बौर आ जाते हैं और कोयल कूकने लगती है। खेतों में सरसों की फसल लहलहाने लगती है, और सारी धरती पीली नजर आती है। पीला रंग उत्साह, उमंग और उल्लास का रंग है। प्रकृति इस समय अपने पूर्ण श्रृंगार में नजर आती है। झरने, नदियाँ जो भीषण ठंड से जम गये थे, फिर से गतिमान हो जाते हैं।
बसंत पंचमी के ही दिन संगीत-कला और ज्ञान की देवी सरस्वती का उद्भव हुआ था, जिनके एक हाथ में वीणा थी और एक हाथ में पुस्तक थी। ऐसा माना जाता है वीणा वादिनी माँ शारदा की वीणा के तारों की झंकार ने ही सृष्टि को वाणी दी, चेतना दी। इस दिन कलाकारों और लेखकों द्वारा सरस्वती की आराधना का उतना ही महत्व है, जितना दीपावली के अवसर पर व्यापारियों द्वारा लक्ष्मी पूजन का माँ सरस्वती की पूजा पीले वस्त्र पहन कर पीले पुष्प अर्पित करके की जाती है।
हमारे यहाँ वसंत पंचमी का उत्सव मदनोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है इस दिन गणेश पूजन के पश्चात् रति और प्रेम के देवता कामदेव का भी पूजन किया जाता है, जिससे गृहस्थ जीवन सुखमय होता है और फिर मौसम का सुहावना होना भी मौसम को आशिकाना बना देता है। शायद तभी “बधाई हो" फिल्म जैसी स्थिति प्रौढ़ावस्था में भी आ जाती है। कामदेव के पाँच बाण (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) प्रकृति संसार में अभिसार को आमंत्रित करते हैं, यानि युगल प्रेमियों के मिलन को ।
लगभग यही समय होता है जब पश्चिमी देशों की देखा-देखी, हमारे देश में भी “वेलंटाईन डे” की धूम मच जाती है। बाजारों में, होटलों में और सड़कों पर। प्रायः बसंत पंचमी और वेलंटाईन डे पास-पास में ही आते हैं और हमारी नई पीढ़ी अपने वसंतोत्सव को भूल पाश्चात्य संस्कृति को अपना रही है। वास्तव में वेलंटाईन डे हमारे पारंपारिक वसंतोत्सव का ही पश्चिमी स्वरूप है।
बसंत पंचमी से जुड़ी हुई अनेक कहानियाँ हैं धार्मिक भी और ऐतिहासिक भी। त्रेता युग में जब भगवान राम, सीता को ढूंढ़ते हुए दण्डाकारण्य में पहुँचे तो शबरी के झूठे बेर जिस दिन खाये थे उस दिन बसंत पंचमी ही थी। इसलिये जिस शिला पर बैठकर भगवान ने बेर खाए थे उसका पूजन आज भी मध्य प्रदेश में बसंत पंचमी के दिन किया जाता है।
दूसरी ऐतिहासिक कहानी है, जो पृथ्वीराज चौहान की याद दिलाती है, जिस पर मुहम्मद गौरी ने १६ बार हमला किया था और हर बार पराजित हुआ, लेकिन पृथ्वीराज ने उसे उदारता-वश हर बार जीवन दान दिया। लेकिन जब सत्रहवीं बार हमला हुआ तो पृथ्वीराज पराजित हो गये और मुहम्मद गौरी उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और वहाँ उनकी आँखे फोड़ दीं। लेकिन गौरी ने मृत्युदण्ड देने से पहले उनके शब्द भेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चन्द्र बरदाई के परामर्श पर सुलतान ने एक ऊँची चट्टान पर बैठकर एक तवे पर जोर से प्रहार किया, तब चन्द्र बरदाई ने पृथ्वीराज को इस दोहे के रूप में संकेत दिया -
चार बांस, चौबीस गज,
अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता उपर सुल्तान है,
मत चूको चौहान।
इस इशारे को समझकर पृथ्वीराज चौहान ने जो बाण चलाया वो सीधा मुहम्मद गौरी की छाती में लगा। लेकिन चारों ओर दुश्मनों से घिरे हुए दोनों ने एक-दूसरे के पेट में छुरा झोंक कर आत्मबलिदान दिया।
यह घटना सन् ११९२ के बसंत पंचमी के दिन घटी थी। शायद इसीलिये तो नहीं है शहीदों का नारा “मेरा रंग दे बसंती चोला..."

अनुभवों का सार कहावतें - दीप्ति चौधरी
भारत विभिन्न भाषा और बोली वाला देश है. यहाँ सौ किलोमीटर पर बोली और पहनावा बदल जाता है. कहते हैं बोली के द्वारा उस क्षेत्र की लोक संस्कृति का पता लगाया जा सकता है. इन्ही बोलिओं में कुछ कुछ भाषाओँ में कुछ अलग-अलग कहावतें, मुहावरें या ऐसे शब्द होते हैं जिनको बोलने से अगला इंसान इनके अन्दर छिपे बात को समझ जाता है.
मेरा बचपन राजस्थान में बीता.इसलिए शायद मै वहां की लोकसंस्कृति बोली पहनावा आदि जो कि आज भी मेरे जीवन में अपनी एक अलग पहचान रखते हैं. बचपन से ही मुझे बातों - बातों में बोली जाने वाली कहावतें बहुत पसंद आती है, जो कि मेरे दादाजी हमें सुनाया करते थे. उनके पीछे की कहानियां भी. क्योंकि तब टीवी का जमाना नहीं था,सर्दिओं की रातों में सिगड़ी की आग से हाथ सेकते और दादाजी की कहानियां हम बड़े मन से सुनते थे.
वैसे तो बहुत सारी कहावतें हैं जैसे - " वो पानी मुल्तान गयो ", " म्हारी बोली रो रस झरे", " बेटों वन र सीख्यो जावें बाप बन र नी ", " निन्यानवे रो चक्कर ". ऐसी और भी बहुत सी कहावतें राजस्थानी भाषा में बोली जाती है.जो आज लुप्तप्राय सी होती जा रही है. पाठकों मै ऐसी ही कुछ कहावतें और उनके पीछे की कहानी को आपके साथ साझा करनी चाहती हूँ-
" निन्यानबे रो चक्कर "
धन और मनुष्य में कौन बड़ा है तो सभी का जवाब मनुष्य होगा. लेकिन जैसे जैसे धन बढ़ता है आदमी उसका गुलाम होता जाता है, उसका सुख चैन नीद सब उड़ा देता है.
पुराने समय की बात है. एक शहर में एक शेठ रहता था.रोज सुबह दुकान जाता और देर रात को घर आता . रात - दिन सिर्फ कमाई की बात सोचता.न कभी अपने आराम के बारे में सोचता और न ही कभी पत्नी बच्चों के साथ बैठकर बातें करता और न ही कभी मंदिर जाता.शेठ के घर के पीछे एक मोची रहता था. दिन भर जूते सिलता और जैसी भी थोड़ी बहुत कमाई होती उसमे सूखी सूखी रोटी अपने पत्नी और बच्चों के साथ बैठकर खाता. रात को सभी मिलकर भगवान् के भजन गाता और बच्चों को कहानियां सुनाता. फिर आराम से सो जाता. उनके जीवन में एक तरह का संतोष था.
लेकिन शेठ की पत्नी ये सब देखती और सोचती धन तो हमारे घर में बहुत है, पर कोई हंसी ख़ुशी नहीं है. शेठ जी आते हैं तब तक बच्चे सो जाते हैं. कभी कभी बच्चे सो जाते तो कभी बात किये कई दिन हो जाते.
एक दिन बातों बातों में शेठ की पत्नी ये बात अपने पति को कह दिया. तब शेठ मुस्कुरा कर बोला शेठानी ये अभी तक निन्यानबे के चक्कर में नहीं पड़ा है. इसलिए सुख चैन से है. सेठानी बोली ये निन्यानबे का क्या चक्कर है?
एक रात शेठ ने मोची के आँगन में पैसे से भरी पोटली फेक दिया. मोची जब सुबह उठा तो पैसों की पोटली पाकर बहुत खुश हुआ. भगवान् को बार बार धन्यवाद् देने लगा. वह पोटली को गिनना शुरू करता है. कुल निन्यानबे सिक्के थे. सौ में एक कम. मोची और उसकी पत्नी सोचते हैं की यदि सौ होता तो कितना अच्छा रहता. मोची बोला कोई बात नहीं, थोड़ी मेहनत और करके सौ तो पूरा कर दूंगा.
उसी दिन से मोची दुकान पर जल्दी जाने लगा, ज्यादा काम करता. घर पर देर से आता. उसके बच्चे सो जाते. कई दिनों बाद सेठानी ने सोचा की आजकल शाम को मोची के घर से भजन कीर्तन की आवाज नहीं आ रही है.उसने शेठ से पुछा. शेठ ने बोला शेठानी मोची निन्यानबे के चक्कर में पड़ में पड़ गया है. जब तक रुपयों की भूख नहीं थी तब तक सुख चैन था. भजन कीर्तन होता था, अब धन की भूख हो गई है. इसलिए सब ख़तम हो गया है.
यही सब हमारे जीवन में भी हो रहा है. एक घर नहीं दो घर चाहिए,एक कार नहीं महँगी और बड़ी कार चाहिए, और न जाने कितनी इच्छाएं हैं जो दिन ब दिन बढती जा रही है. इस और की चाह में ही मनुष्य के जीवन का सुख चैन समाप्त हो गया है. अगले अंक में एक और नयी कहावत और कहानी के साथ फिर मिलेंगे.
(लेखिका भारत विकास परिषद् से जुडी हुई हैं.)
मेरा बचपन राजस्थान में बीता.इसलिए शायद मै वहां की लोकसंस्कृति बोली पहनावा आदि जो कि आज भी मेरे जीवन में अपनी एक अलग पहचान रखते हैं. बचपन से ही मुझे बातों - बातों में बोली जाने वाली कहावतें बहुत पसंद आती है, जो कि मेरे दादाजी हमें सुनाया करते थे. उनके पीछे की कहानियां भी. क्योंकि तब टीवी का जमाना नहीं था,सर्दिओं की रातों में सिगड़ी की आग से हाथ सेकते और दादाजी की कहानियां हम बड़े मन से सुनते थे.
वैसे तो बहुत सारी कहावतें हैं जैसे - " वो पानी मुल्तान गयो ", " म्हारी बोली रो रस झरे", " बेटों वन र सीख्यो जावें बाप बन र नी ", " निन्यानवे रो चक्कर ". ऐसी और भी बहुत सी कहावतें राजस्थानी भाषा में बोली जाती है.जो आज लुप्तप्राय सी होती जा रही है. पाठकों मै ऐसी ही कुछ कहावतें और उनके पीछे की कहानी को आपके साथ साझा करनी चाहती हूँ-
" निन्यानबे रो चक्कर "
धन और मनुष्य में कौन बड़ा है तो सभी का जवाब मनुष्य होगा. लेकिन जैसे जैसे धन बढ़ता है आदमी उसका गुलाम होता जाता है, उसका सुख चैन नीद सब उड़ा देता है.
पुराने समय की बात है. एक शहर में एक शेठ रहता था.रोज सुबह दुकान जाता और देर रात को घर आता . रात - दिन सिर्फ कमाई की बात सोचता.न कभी अपने आराम के बारे में सोचता और न ही कभी पत्नी बच्चों के साथ बैठकर बातें करता और न ही कभी मंदिर जाता.शेठ के घर के पीछे एक मोची रहता था. दिन भर जूते सिलता और जैसी भी थोड़ी बहुत कमाई होती उसमे सूखी सूखी रोटी अपने पत्नी और बच्चों के साथ बैठकर खाता. रात को सभी मिलकर भगवान् के भजन गाता और बच्चों को कहानियां सुनाता. फिर आराम से सो जाता. उनके जीवन में एक तरह का संतोष था.
लेकिन शेठ की पत्नी ये सब देखती और सोचती धन तो हमारे घर में बहुत है, पर कोई हंसी ख़ुशी नहीं है. शेठ जी आते हैं तब तक बच्चे सो जाते हैं. कभी कभी बच्चे सो जाते तो कभी बात किये कई दिन हो जाते.
एक दिन बातों बातों में शेठ की पत्नी ये बात अपने पति को कह दिया. तब शेठ मुस्कुरा कर बोला शेठानी ये अभी तक निन्यानबे के चक्कर में नहीं पड़ा है. इसलिए सुख चैन से है. सेठानी बोली ये निन्यानबे का क्या चक्कर है?
एक रात शेठ ने मोची के आँगन में पैसे से भरी पोटली फेक दिया. मोची जब सुबह उठा तो पैसों की पोटली पाकर बहुत खुश हुआ. भगवान् को बार बार धन्यवाद् देने लगा. वह पोटली को गिनना शुरू करता है. कुल निन्यानबे सिक्के थे. सौ में एक कम. मोची और उसकी पत्नी सोचते हैं की यदि सौ होता तो कितना अच्छा रहता. मोची बोला कोई बात नहीं, थोड़ी मेहनत और करके सौ तो पूरा कर दूंगा.
उसी दिन से मोची दुकान पर जल्दी जाने लगा, ज्यादा काम करता. घर पर देर से आता. उसके बच्चे सो जाते. कई दिनों बाद सेठानी ने सोचा की आजकल शाम को मोची के घर से भजन कीर्तन की आवाज नहीं आ रही है.उसने शेठ से पुछा. शेठ ने बोला शेठानी मोची निन्यानबे के चक्कर में पड़ में पड़ गया है. जब तक रुपयों की भूख नहीं थी तब तक सुख चैन था. भजन कीर्तन होता था, अब धन की भूख हो गई है. इसलिए सब ख़तम हो गया है.
यही सब हमारे जीवन में भी हो रहा है. एक घर नहीं दो घर चाहिए,एक कार नहीं महँगी और बड़ी कार चाहिए, और न जाने कितनी इच्छाएं हैं जो दिन ब दिन बढती जा रही है. इस और की चाह में ही मनुष्य के जीवन का सुख चैन समाप्त हो गया है. अगले अंक में एक और नयी कहावत और कहानी के साथ फिर मिलेंगे.
(लेखिका भारत विकास परिषद् से जुडी हुई हैं.)

गुलशन बावरा : भाव, भाषा, वेदना के गीतकार
अनंत श्रीमाली
मित्रो, आपने यह गीत अवश्य सुना होगा "मेरे देश की धरती सोना उगले उगले"। 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्व पर ये गीत ही सुबह सुबह ऊर्जा देता है। महेंद्र कपूर की आवाज़, मनोज कुमार पर फिल्माया और "उपकार" के इस कालजयी गीत के गीतकार का नाम-गुलशन मेहता जिन्हें हम गुलशन बावरा के नाम से जानते हैं। 7 अगस्त (2009)को उनकी पुण्यतिथि है। 12 अप्रैल, 1938 को अविभाजित भारत, पंजाब प्रोविंस के शेखपुरा (लाहौर के पास, अब पाकिस्तान) में जन्मे गुलशन जी के पिता रूपलाल मेहता का कंस्ट्रक्शन का व्यवसाय था।
अपने भाई चमन लाल मेहता के साथ पिता लाभचंद जी के सहित छोटा सा परिवार था। मां विद्यावती धार्मिक प्रवृत्ति की, संगीत की ज्ञाता थी। उनका बचपन उन्हीं के साथ बीता। तब वे छह वर्ष के थे। देश विभाजन के समय सांप्रदायिक दंगों में उनकी आंखों के सामने माता पिता की हत्या(पिता को तलवार से और मां को गोली से) हुई। उनके बड़े भाई रात के अंधेरे में, खेतों में छुपते छुपाते मिलिट्री ट्रक में बैठकर बड़ी बहन के पास जयपुर आए। तब गुलशन जी की उम्र 10 वर्ष थी। कुछ दिन तक यहीं रहे। फिर बड़े भाई की नौकरी दिल्ली लगने से वे दिल्ली आ गए। वहीं से स्नातक की । फिर रेलवे में, कोटा में नौकरी लगी लेकिन वहां गए तो पता चला पद भर गया । तब उन्हें मुंबई में 1955 रेलवे में गुड्स क्लर्क की नौकरी लगी।
उनका काम था पंजाब से जो गेहूं आता था उसके बोरों को गोदाम में रखवाना । गेहूं की बालियों और उसे देखकर ही संभवत: "मेरे देश की धरती" जैसा गाना उपजा होगा । यह गीत राज साहब ने "जिस देश में गंगा बहती है" के लिए लिखवाया था और पसंद भी था लेकिन शैलेंद्र का गीत "होठों पर सच्चाई.. जहां दिल में सफाई रहती हैं" भारी पड़ा। मजे की बात ये है कि शैलेन्द्र और गुलशन जी दोनों रेलवे कर्मचारी थे।
वैसे वे 6 वर्ष की उम्र से ही कविता लिखने लग गए थे। इसलिए सरकारी नौकरी में मन लगा नहीं और छोड़ दी। 8 वर्षों तक मुंबई में कड़ा संघर्ष किया। मनोज कुमार दिल्ली के थे और मित्र थे । कुछ रास्ता बना। पहली फिल्म "चंद्र सेना" थी। "सट्टा बाजार" के गीत "चांदी के चंद टुकड़े" बहुत लोकप्रिय हुआ। इसके पोस्टर में केवल 3 नाम थे निर्देशक रवींद्र दवे, संगीतकार कल्याणजी आनंदजी और गीतकार गुलशन बावरा। उनकी दुबली-पतली, लंबी काया, हाफ रंग बिरंगा, चितकबरा शर्ट और हुलिया देख कर फिल्म वितरक शांति भाई दवे ने उन्हें "बावरा" नाम दिया। तुम गीतकार कम, बावरा ज्यादा लगते हो । इस दीवाने ने भी नाम बावरा रख लिया।
शौकिया तौर पर कुछ फिल्मों में कॉमिक रोल भी किये । "उपकार " में मोहन चोटी के भाई बने थे। "जंजीर" में उन पर उन्हीं का गीत फिल्माया गया था (दीवाने हैं दीवानों को नजर चाहिए) रफी- लता साहब ने ताड़देव के स्टुडियो में गीत रिकॉर्ड कर दिया था। उस दिन रफी साहब का रोजा था। उसी समय गुलशन बावरा जी स्टूडियो में आए, उन्होंने रफी साहब से कहा कि यह गीत इस नाचीज पर फिल्माया जाना है तब रफी साहब ने थोड़ी सी, आवाज़ बदल कर (रोजे के बावजूद) अलग ढंग से दुबारा इसकी रिकॉर्डिंग की । फिर यह गीत और गुलशन जी सुपर डुपर रहे।
मां की संगत के कारण कुछ भजन भी लिखे। रोमांटिक इमेज वाले बावरा जी ने वियोग, श्रृंगार के खूब गीत लिखे(खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे, कसमे वादे निभाएंगे हम, आती रहेंगी बहारें) हालांकि उनका दीवानापन एक तरफा होता था। कल्याण जी आनंद जी के संगीत निर्देशन में 69 गीत तो आर डी बर्मन के साथ 150 गीत लिखे।
"जंजीर" ने (यारी है ईमान मेरा) उपकार किया और फिल्म फेयर दिलाया । "उपकार" ने भी फिल्म फेयर दिलवाया। 42 वर्षों के फिल्मी कैरियर में उन्होंने 240 गीत लिखे । वे उस ज़माने के सबसे महंगे गीतकार माने जाते थे। एक गीत के एक लाख रुपये तक लिए उन्होंने। इतनी राशि में उस समय बढ़िया फ्लैट आ जाता था परंतु पैसों की लालच में कभी भी गीतों के स्तर के साथ समझौता नहीं किया। वे लिखने के लिए नहीं लिखते थे। जब मन, मूड और मस्तिष्क काम करता था तो लिखते थे। तभी उनकी कलम से शानदार गीत निकले। हर मौके(सिचुएशन) के लिए उनके तरकश में गीत होते थे। हल्के-फुल्के पर स्तरीय गीत भी उन्होंने लिखे- (दुक्की पे दुक्की हो, किसी पे दिल अगर आ जाए) या उदासी के गीत हों- लहरों की तरह यादें दिल से टकराती है, बना के क्यों बिगाड़ा रे, तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे , जाने क्या हुआ रे या महमूद पर फिल्माया गीत मुस्कुरा रे लाडले मुस्कुरा , आपसे हमको बिछड़े हुए, अगर तुम ना होते ...जैसे सैकड़ों गीत हैं। "विश्वास" का गीत "चांदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया "अद्भुत सफल रहा। । उन्हें 2012 में मरणोपरांत किशोर कुमार सम्मान भी मिला। 1995 में आई "हकीकत" उनकी अंतिम गीत वाली फिल्म थी जिसके बोल थे- पपिया झपिया पा लें हम, अंखियों के पेंच लड़ा लें...। कुछ लोग 1999 में बनी अंतिम फिल्म "जुल्मी" को मानते हैं।
वे बोर्ड ऑफ इंडियन फार्मिंग राइटर सोसायटी के निदेशक रहे । गुलशन जी शादी के पहले और बाद में अपने दोस्त के घर पत्नी मंजू के (उनकी कोई संतान नहीं थी) साथ रहते थे। शादी के बाद मित्र से विवाद होने पर अलग रहने लगे और कुछ पैसों से गृहस्थी चलने लगी। तब उन्होंने छोटा फ्लैट किराए पर लिया। ठीक ठाक पैसे आने पर बड़ा फ्लैट ले लिया । छोटे फ्लैट में कुछ विवाद होने पर वह 10-12 साल बंद रहा, जिसमें उनकी बहुत मूल्यवान, कीमती चीजें, गीतों की डायरी, तस्वीरें, दुर्लभ वस्तुएं खराब हो गई । फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और नई शुरुआत की । वे भाव, भाषा, संवेदना, वेदना के गीतकार थे । बनी बनाई धुन, संगीत पर बैठाने के लिए गीत नहीं लिखते थे । शब्द या भाषा से खिलवाड़ बिल्कुल पसंद नहीं था। (देखें-तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे या आशा भोंसले का "खेल खेल में", आर डी बर्मन के संगीत का गीत "सपना मेरा टूट गया" आशा भोंसले, रवि मल्होत्रा की रवि टंडन वाली "झूठा कहीं का" फिल्म का गीत "जीवन के हर मोड़ पर" या "रफूचक्कर" का गीत "कितने भी तू कर ले सितम", "लाल बंगला" का उषा खन्ना संगीतकार, मुकेश का गीत "चांद को क्या मालूम" आदि)। एक फिल्म "मानवता" प्रदर्शित नहीं हो पाई। वे गीतों में लच्छेदार भाषा का प्रयोग नहीं करते थे। हालांकि वे स्पष्ट कहते थे कि गीत को व्याकरण की अशुद्धियों और वैचारिक गड़बड़ियों से परे होना चाहिए।
फिल्मी दुनिया के होने के बावजूद तड़क-भड़क, चकाचौंध से दूर, ईश्वर में आस्था रखने वाले बावरा जी का निधन 7 अगस्त को मुंबई के बांद्रा स्थित पाली हिल निवास में लंबी बीमारी के बाद, दिल का दौरा पड़ने से हुआ। उनकी अंतिम इच्छानुसार देह जेजे अस्पताल दान कर दी गई। मुंबई निवासी व्यंग्यकार और लोकप्रिय कवि डॉ वागीश सारस्वत के माध्यम से मुझे युवा कवि भाई देवदत्त देव की पुस्तक का लोकार्पण मुंबई के कांदिवली के तेरापंथ भवन में था। गुलशन जी मुख्य अतिथि थे, कार्यक्रम के संचालन का मुझे अवसर मिला । तब उनसे हुई भेंट आज तक याद है।
हंसमुख मिजाज वाले गुलशन बावरा ने "खुद को रुला के जग को हंसाया। " उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि उन्हीं के शब्दों से "ता कयामत है जो चिरागों की तरह जलते रहें, प्यार हो बंदों से ये..." अब वे " जीवन के हर मोड़ पर मिल जाएंगे हमसफर" यह संभव नहीं है. जन्म दिन पर पुण्य स्मरण।
( लेखक सुप्रसिद्ध व्यंगकार, मंच संचालक और स्तंभकार हैं.)
मित्रो, आपने यह गीत अवश्य सुना होगा "मेरे देश की धरती सोना उगले उगले"। 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्व पर ये गीत ही सुबह सुबह ऊर्जा देता है। महेंद्र कपूर की आवाज़, मनोज कुमार पर फिल्माया और "उपकार" के इस कालजयी गीत के गीतकार का नाम-गुलशन मेहता जिन्हें हम गुलशन बावरा के नाम से जानते हैं। 7 अगस्त (2009)को उनकी पुण्यतिथि है। 12 अप्रैल, 1938 को अविभाजित भारत, पंजाब प्रोविंस के शेखपुरा (लाहौर के पास, अब पाकिस्तान) में जन्मे गुलशन जी के पिता रूपलाल मेहता का कंस्ट्रक्शन का व्यवसाय था।
अपने भाई चमन लाल मेहता के साथ पिता लाभचंद जी के सहित छोटा सा परिवार था। मां विद्यावती धार्मिक प्रवृत्ति की, संगीत की ज्ञाता थी। उनका बचपन उन्हीं के साथ बीता। तब वे छह वर्ष के थे। देश विभाजन के समय सांप्रदायिक दंगों में उनकी आंखों के सामने माता पिता की हत्या(पिता को तलवार से और मां को गोली से) हुई। उनके बड़े भाई रात के अंधेरे में, खेतों में छुपते छुपाते मिलिट्री ट्रक में बैठकर बड़ी बहन के पास जयपुर आए। तब गुलशन जी की उम्र 10 वर्ष थी। कुछ दिन तक यहीं रहे। फिर बड़े भाई की नौकरी दिल्ली लगने से वे दिल्ली आ गए। वहीं से स्नातक की । फिर रेलवे में, कोटा में नौकरी लगी लेकिन वहां गए तो पता चला पद भर गया । तब उन्हें मुंबई में 1955 रेलवे में गुड्स क्लर्क की नौकरी लगी।
उनका काम था पंजाब से जो गेहूं आता था उसके बोरों को गोदाम में रखवाना । गेहूं की बालियों और उसे देखकर ही संभवत: "मेरे देश की धरती" जैसा गाना उपजा होगा । यह गीत राज साहब ने "जिस देश में गंगा बहती है" के लिए लिखवाया था और पसंद भी था लेकिन शैलेंद्र का गीत "होठों पर सच्चाई.. जहां दिल में सफाई रहती हैं" भारी पड़ा। मजे की बात ये है कि शैलेन्द्र और गुलशन जी दोनों रेलवे कर्मचारी थे।
वैसे वे 6 वर्ष की उम्र से ही कविता लिखने लग गए थे। इसलिए सरकारी नौकरी में मन लगा नहीं और छोड़ दी। 8 वर्षों तक मुंबई में कड़ा संघर्ष किया। मनोज कुमार दिल्ली के थे और मित्र थे । कुछ रास्ता बना। पहली फिल्म "चंद्र सेना" थी। "सट्टा बाजार" के गीत "चांदी के चंद टुकड़े" बहुत लोकप्रिय हुआ। इसके पोस्टर में केवल 3 नाम थे निर्देशक रवींद्र दवे, संगीतकार कल्याणजी आनंदजी और गीतकार गुलशन बावरा। उनकी दुबली-पतली, लंबी काया, हाफ रंग बिरंगा, चितकबरा शर्ट और हुलिया देख कर फिल्म वितरक शांति भाई दवे ने उन्हें "बावरा" नाम दिया। तुम गीतकार कम, बावरा ज्यादा लगते हो । इस दीवाने ने भी नाम बावरा रख लिया।
शौकिया तौर पर कुछ फिल्मों में कॉमिक रोल भी किये । "उपकार " में मोहन चोटी के भाई बने थे। "जंजीर" में उन पर उन्हीं का गीत फिल्माया गया था (दीवाने हैं दीवानों को नजर चाहिए) रफी- लता साहब ने ताड़देव के स्टुडियो में गीत रिकॉर्ड कर दिया था। उस दिन रफी साहब का रोजा था। उसी समय गुलशन बावरा जी स्टूडियो में आए, उन्होंने रफी साहब से कहा कि यह गीत इस नाचीज पर फिल्माया जाना है तब रफी साहब ने थोड़ी सी, आवाज़ बदल कर (रोजे के बावजूद) अलग ढंग से दुबारा इसकी रिकॉर्डिंग की । फिर यह गीत और गुलशन जी सुपर डुपर रहे।
मां की संगत के कारण कुछ भजन भी लिखे। रोमांटिक इमेज वाले बावरा जी ने वियोग, श्रृंगार के खूब गीत लिखे(खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे, कसमे वादे निभाएंगे हम, आती रहेंगी बहारें) हालांकि उनका दीवानापन एक तरफा होता था। कल्याण जी आनंद जी के संगीत निर्देशन में 69 गीत तो आर डी बर्मन के साथ 150 गीत लिखे।
"जंजीर" ने (यारी है ईमान मेरा) उपकार किया और फिल्म फेयर दिलाया । "उपकार" ने भी फिल्म फेयर दिलवाया। 42 वर्षों के फिल्मी कैरियर में उन्होंने 240 गीत लिखे । वे उस ज़माने के सबसे महंगे गीतकार माने जाते थे। एक गीत के एक लाख रुपये तक लिए उन्होंने। इतनी राशि में उस समय बढ़िया फ्लैट आ जाता था परंतु पैसों की लालच में कभी भी गीतों के स्तर के साथ समझौता नहीं किया। वे लिखने के लिए नहीं लिखते थे। जब मन, मूड और मस्तिष्क काम करता था तो लिखते थे। तभी उनकी कलम से शानदार गीत निकले। हर मौके(सिचुएशन) के लिए उनके तरकश में गीत होते थे। हल्के-फुल्के पर स्तरीय गीत भी उन्होंने लिखे- (दुक्की पे दुक्की हो, किसी पे दिल अगर आ जाए) या उदासी के गीत हों- लहरों की तरह यादें दिल से टकराती है, बना के क्यों बिगाड़ा रे, तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे , जाने क्या हुआ रे या महमूद पर फिल्माया गीत मुस्कुरा रे लाडले मुस्कुरा , आपसे हमको बिछड़े हुए, अगर तुम ना होते ...जैसे सैकड़ों गीत हैं। "विश्वास" का गीत "चांदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया "अद्भुत सफल रहा। । उन्हें 2012 में मरणोपरांत किशोर कुमार सम्मान भी मिला। 1995 में आई "हकीकत" उनकी अंतिम गीत वाली फिल्म थी जिसके बोल थे- पपिया झपिया पा लें हम, अंखियों के पेंच लड़ा लें...। कुछ लोग 1999 में बनी अंतिम फिल्म "जुल्मी" को मानते हैं।
वे बोर्ड ऑफ इंडियन फार्मिंग राइटर सोसायटी के निदेशक रहे । गुलशन जी शादी के पहले और बाद में अपने दोस्त के घर पत्नी मंजू के (उनकी कोई संतान नहीं थी) साथ रहते थे। शादी के बाद मित्र से विवाद होने पर अलग रहने लगे और कुछ पैसों से गृहस्थी चलने लगी। तब उन्होंने छोटा फ्लैट किराए पर लिया। ठीक ठाक पैसे आने पर बड़ा फ्लैट ले लिया । छोटे फ्लैट में कुछ विवाद होने पर वह 10-12 साल बंद रहा, जिसमें उनकी बहुत मूल्यवान, कीमती चीजें, गीतों की डायरी, तस्वीरें, दुर्लभ वस्तुएं खराब हो गई । फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और नई शुरुआत की । वे भाव, भाषा, संवेदना, वेदना के गीतकार थे । बनी बनाई धुन, संगीत पर बैठाने के लिए गीत नहीं लिखते थे । शब्द या भाषा से खिलवाड़ बिल्कुल पसंद नहीं था। (देखें-तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे या आशा भोंसले का "खेल खेल में", आर डी बर्मन के संगीत का गीत "सपना मेरा टूट गया" आशा भोंसले, रवि मल्होत्रा की रवि टंडन वाली "झूठा कहीं का" फिल्म का गीत "जीवन के हर मोड़ पर" या "रफूचक्कर" का गीत "कितने भी तू कर ले सितम", "लाल बंगला" का उषा खन्ना संगीतकार, मुकेश का गीत "चांद को क्या मालूम" आदि)। एक फिल्म "मानवता" प्रदर्शित नहीं हो पाई। वे गीतों में लच्छेदार भाषा का प्रयोग नहीं करते थे। हालांकि वे स्पष्ट कहते थे कि गीत को व्याकरण की अशुद्धियों और वैचारिक गड़बड़ियों से परे होना चाहिए।
फिल्मी दुनिया के होने के बावजूद तड़क-भड़क, चकाचौंध से दूर, ईश्वर में आस्था रखने वाले बावरा जी का निधन 7 अगस्त को मुंबई के बांद्रा स्थित पाली हिल निवास में लंबी बीमारी के बाद, दिल का दौरा पड़ने से हुआ। उनकी अंतिम इच्छानुसार देह जेजे अस्पताल दान कर दी गई। मुंबई निवासी व्यंग्यकार और लोकप्रिय कवि डॉ वागीश सारस्वत के माध्यम से मुझे युवा कवि भाई देवदत्त देव की पुस्तक का लोकार्पण मुंबई के कांदिवली के तेरापंथ भवन में था। गुलशन जी मुख्य अतिथि थे, कार्यक्रम के संचालन का मुझे अवसर मिला । तब उनसे हुई भेंट आज तक याद है।
हंसमुख मिजाज वाले गुलशन बावरा ने "खुद को रुला के जग को हंसाया। " उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि उन्हीं के शब्दों से "ता कयामत है जो चिरागों की तरह जलते रहें, प्यार हो बंदों से ये..." अब वे " जीवन के हर मोड़ पर मिल जाएंगे हमसफर" यह संभव नहीं है. जन्म दिन पर पुण्य स्मरण।
( लेखक सुप्रसिद्ध व्यंगकार, मंच संचालक और स्तंभकार हैं.)

हमें क्या मिला था और हम क्या छोड़ के जायेंगे :
डॉ. शिखा माहेश्वरी
जब कोई काम या किसी व्यक्ति की मदद की बात आती है तो मुँह से सबसे पहले निकलता है कि इसमें मुझे क्या मिलेगा या इससे मुझे क्या मिलेगा? स्वार्थ कोई गलत चीज नहीं है। पर तब तक स्वार्थ सही है जब तक अपनी भलाई में किसी की बुराई न हो रही हो।
वर्तमान जगत में हर कोई स्वार्थी है। लेकिन जब हम एक केंद्र से हट कर संपूर्ण विश्वव्यापी, समाजव्यापी, जगतव्यापी संरचना की बात करते हैं तो हमें उस ओर जरुर लक्ष्य देना चाहिए कि हमारी पीढ़ी ने हमें क्या दिया था और हम अपनी पीढ़ी को क्या देकर जायेंगे?
इतिहास, परंपरा, पेड़, जल, समाज, संस्कृति पर विचार करें तो हम पाएंगे कि हमें
मिला अनगिनत था| लेकिन हम भावी पीढ़ी के लिए बस इतना ही छोड़कर जायेंगे कि
ऊँगलियों पर गिना जा सके| १५ अगस्त १९४७ को जब भारत आजाद हुआ था, तब एक व्यक्ति के हिस्से में ३१६ पेड़ थे और वर्तमान औद्योगिक जगत में ६१ व्यक्ति के हिस्से में एक पेड़ है| अब कल्पना की जा सकती है कि हम अपनी भावी पीढ़ी को ऑक्सीजन के सिलेंडर से श्वास लेने की ओर धकेल रहे हैं।
हमें अनगिनत नदियाँ, तालाब, कुएँ, झरने, जलाशय प्राप्त थे। गंगा, गोदावरी, नर्मदा, तापी, महानंदा आदि अनगिनत बड़ी-बड़ी व शुद्ध जलाशय प्राप्त थे। लेकिन वर्तमान में नदियों में छोड़ा जा रहा कंपनियों का कचरा, शहरों की गंदगी ने नदी और नालों में फर्क करना मुश्किल कर दिया है। वैज्ञानिक बताते हैं कि बड़ी-बड़ी मुख्य सुप्रसिद्ध नदियों का पानी आचमन करने लायक भी नहीं रहा है। और अब हम शुद्धता के नाम पर मिलने वाले मिनरल पानी पर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यही हाल रहा तो हम भावी पीढ़ी को सिर्फ नदी के चित्र दिखा पाएंगे| लेकिन नदी के जल, उसकी शुद्धि, उसकी पवित्रता, उसका गुण, धर्म, प्रकृति नहीं दिखा पाएंगे| और न ही उन्हें पीने के लिए एवं पूजा पाठ के लिए जल का उपयोग व महत्त्व बता पाएंगे। पूजा-पाठ, अर्पण, तर्पण में भी नदी का ही सहारा लिया जाता है और नदी के किनारे किया जाता है। जब नदियाँ नहीं रहेंगी तो ये सब क्रियाएं, मान्यताएं भी समाप्त हो जाएँगी| एक युग के बाद संस्कृति किसी बच्ची का नाम हो सकेगा। लेकिन संस्कृति, सभ्यता का असली रंग, रूप, पहचान, महत्त्व शायद गिने चुने लोगों को ही ज्ञात रहेगा।
गाय को हिंदू संस्कृति में माता से संबोधित किया जाता है क्योंकि उसमें ३३ करोड़ देवी देवताओं का वास है| गाय की हम बछबारस के दिन बड़ी श्रध्दा से पूजा करते हैं। हर अवसर पर गोमूत्र, गाय का गोबर, गाय का दूध और दूध से बने घी, छाछ, लस्सी, दही का उपयोग किया जाता है। जो प्राकृतिक गुण गाय के दूध उससे बनी वस्तुओं में मिलता है वह गुण अन्य जानवरों के दूध में नहीं मिलता| गाय के स्पर्श मात्र करने से स्ट्रेस, एंग्जायटी दूर
हो जाता है और मन शांत हो जाता है। गाय का गोबर कितनी ही वर्षा हो, कितनी ही गर्मी हो, कितनी ही सर्दी हो, लेकिन वह हमेशा ह्यूमन टेम्परेचर पर ही रहता है। यह गुण अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। एक बात और ध्यातव्य है कि सिर्फ और सिर्फ गाय के मूत्र से शुद्धि होती है और गाय के मलमूत्र को ही गोबर कहा जाता है। अन्य किसी भी जानवर के मलमूत्र को गोबर की संज्ञा नहीं दी गई है। और वर्तमान परिस्थिति देखें तो हमने ही गाय की परिस्थिति सोचनीय बना दी है। उसका जीना दुश्वार कर दिया है। गाय को दरबदर कचरे के ढेर में मुँह डालने के लिए छोड़ दिया है। अपनी राजनीतिक दाल गलाने के लिए गौ मांस का भक्षण करने की प्रतिस्पर्धा की जा रही है। अभी हाल ही में राजस्थान के एक गाँव में एक गाय की मृत्यु हो गई और उसके पेट में ६० किलो प्लास्टिक मिली। गाय हमें पौष्टिक दूध, दही, घी दे रही है और हम उसे प्लास्टिक दे रहे हैं। यही क्रिया चलती रही तो गाय की मूर्ति ही घर में बचेगी। लेकिन साक्षात गाय के दर्शन दुर्लभ ही होंगे। शास्त्रों में भी कहा गया है और वैज्ञानिकों ने भी माना है कि गाय के दूध से बने घी से यज्ञ, हवन, पूजा-पाठ करते हैं तो वातावरण शुद्ध होता है। लेकिन भैंस के दूध से बने घी से यज्ञ, हवन करते हैं तो वातावरण को हानि पहुँचती है। जिसको हम प्लास्टिक खाने पर मजबूर कर रहे हैं वह प्राणी वह गाय हमारे वातावरण से लेकर हमारी संस्कृति तक को बचाने का सामर्थ्य रखती है।
दिन प्रतिदिन पेड़ लगाओ पेड़ बचाओ आदि अभियान होते रहते हैं लेकिन फिर भी समस्या जस की तस है। हमने वह परिस्थिति ही क्यों उत्पन्न की जिसमें हमें यह सब करना पड़े सोच समझ कर कार्य करते तो यह परिस्थिति न उपजती। पेड़ नहीं हैं छाँव नहीं है और साथ ही साथ हमने मिटटी की उर्वरा को भी क्षति पहुँचाई है। एक चुटकी मिट्टी में सवा पांच करोड़ जीवाश्म पाए जाने चाहिए। लेकिन मिटटी को दिन-रात तरह-तरह की दवाई डाल-डाल कर हमने वो सब नष्ट कर दिया है और वर्तमान में सिर्फ चार लाख जीवाश्म रह गए हैं। और भविष्य में भी इसी तरह पेड़ कटते रहे और हानिकारक दवाइयों का उपयोग होता रहा तो यह संख्या नष्ट की कगार पर आ जाएगी। पेड़ नहीं है तो बारिश में अनियमितता बढ़ती जा रही है। कहीं सूखा, कहीं बाढ़, बेमौसम बारिश आदि भी इसी के परिणाम हैं। यह सब इतनी धीमी गति से हुआ कि हमें परिवर्तन का आभास नहीं हो सका।
लेकिन अब यह इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि हम गति को पकड़ नहीं पा रहे हैं। हमें अनगिनत पुराण, आख्यान, व्याख्यान प्राप्त थे। हमें गीता, रामायण, वेद, पुराण प्राप्त हैं। लेकिन उन्हें पढने व समझने की क्षमता का क्षरण हो रहा है। एक भी मंत्र हमें कंठस्थ नहीं है। एक भी ग्रन्थ हमने उठाकर नहीं देखा। हमारे पूर्वजों को भी २४ घंटे, सात दिन ही मिले थे और हमें भी उतना ही मिला है। लेकिन उन्होंने उपयोग किया, सदुपयोग किया, सन्निवेश किया और हम दुरूपयोग कर रहे हैं और फिर हम कहते हैं कि हमारे पास समय नहीं है, हम बड़े व्यस्त हैं।
इन पुराणों, वेदों में जो लिखा गया है वह हमें शायद कोई वेबसाइट भी न बता पाए और न ही समझा पाए। हमें भूले भटके एकाध नाम याद हो क्योंकि घर में बुजुर्ग पाठ करते हैं। लेकिन हमारी भावी पीढ़ी को शायद नाम भी पता रहें क्योंकि जब हम खुद पारायण नहीं करते तो उन्हें इसकी आदत कैसे रखवा पायेंगे। और इस
तरह से मिली एक संस्कृति को हम अगली पीढ़ी की संस्कृति नहीं बना पाएंगे। इस बाजारवाद, भोगवाद, प्रगतिवाद, औद्योगीकरण, भूमंडलीकरण ने इतने वादों को जन्म दे दिया है कि अब हम खुद त्रस्त हो रहे हैं। स्वयं से वादा करें और कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर ध्यान दें तो हम शायद हमें जो मिला वह हम भावी पीढ़ी को दे सकेंगे अन्यथा स्वप्न स्वप्न ही रह जायेगा और हम हाथ मलते हुए कहेंगे कि हमें क्या मिला।
जब कोई काम या किसी व्यक्ति की मदद की बात आती है तो मुँह से सबसे पहले निकलता है कि इसमें मुझे क्या मिलेगा या इससे मुझे क्या मिलेगा? स्वार्थ कोई गलत चीज नहीं है। पर तब तक स्वार्थ सही है जब तक अपनी भलाई में किसी की बुराई न हो रही हो।
वर्तमान जगत में हर कोई स्वार्थी है। लेकिन जब हम एक केंद्र से हट कर संपूर्ण विश्वव्यापी, समाजव्यापी, जगतव्यापी संरचना की बात करते हैं तो हमें उस ओर जरुर लक्ष्य देना चाहिए कि हमारी पीढ़ी ने हमें क्या दिया था और हम अपनी पीढ़ी को क्या देकर जायेंगे?
इतिहास, परंपरा, पेड़, जल, समाज, संस्कृति पर विचार करें तो हम पाएंगे कि हमें
मिला अनगिनत था| लेकिन हम भावी पीढ़ी के लिए बस इतना ही छोड़कर जायेंगे कि
ऊँगलियों पर गिना जा सके| १५ अगस्त १९४७ को जब भारत आजाद हुआ था, तब एक व्यक्ति के हिस्से में ३१६ पेड़ थे और वर्तमान औद्योगिक जगत में ६१ व्यक्ति के हिस्से में एक पेड़ है| अब कल्पना की जा सकती है कि हम अपनी भावी पीढ़ी को ऑक्सीजन के सिलेंडर से श्वास लेने की ओर धकेल रहे हैं।
हमें अनगिनत नदियाँ, तालाब, कुएँ, झरने, जलाशय प्राप्त थे। गंगा, गोदावरी, नर्मदा, तापी, महानंदा आदि अनगिनत बड़ी-बड़ी व शुद्ध जलाशय प्राप्त थे। लेकिन वर्तमान में नदियों में छोड़ा जा रहा कंपनियों का कचरा, शहरों की गंदगी ने नदी और नालों में फर्क करना मुश्किल कर दिया है। वैज्ञानिक बताते हैं कि बड़ी-बड़ी मुख्य सुप्रसिद्ध नदियों का पानी आचमन करने लायक भी नहीं रहा है। और अब हम शुद्धता के नाम पर मिलने वाले मिनरल पानी पर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यही हाल रहा तो हम भावी पीढ़ी को सिर्फ नदी के चित्र दिखा पाएंगे| लेकिन नदी के जल, उसकी शुद्धि, उसकी पवित्रता, उसका गुण, धर्म, प्रकृति नहीं दिखा पाएंगे| और न ही उन्हें पीने के लिए एवं पूजा पाठ के लिए जल का उपयोग व महत्त्व बता पाएंगे। पूजा-पाठ, अर्पण, तर्पण में भी नदी का ही सहारा लिया जाता है और नदी के किनारे किया जाता है। जब नदियाँ नहीं रहेंगी तो ये सब क्रियाएं, मान्यताएं भी समाप्त हो जाएँगी| एक युग के बाद संस्कृति किसी बच्ची का नाम हो सकेगा। लेकिन संस्कृति, सभ्यता का असली रंग, रूप, पहचान, महत्त्व शायद गिने चुने लोगों को ही ज्ञात रहेगा।
गाय को हिंदू संस्कृति में माता से संबोधित किया जाता है क्योंकि उसमें ३३ करोड़ देवी देवताओं का वास है| गाय की हम बछबारस के दिन बड़ी श्रध्दा से पूजा करते हैं। हर अवसर पर गोमूत्र, गाय का गोबर, गाय का दूध और दूध से बने घी, छाछ, लस्सी, दही का उपयोग किया जाता है। जो प्राकृतिक गुण गाय के दूध उससे बनी वस्तुओं में मिलता है वह गुण अन्य जानवरों के दूध में नहीं मिलता| गाय के स्पर्श मात्र करने से स्ट्रेस, एंग्जायटी दूर
हो जाता है और मन शांत हो जाता है। गाय का गोबर कितनी ही वर्षा हो, कितनी ही गर्मी हो, कितनी ही सर्दी हो, लेकिन वह हमेशा ह्यूमन टेम्परेचर पर ही रहता है। यह गुण अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। एक बात और ध्यातव्य है कि सिर्फ और सिर्फ गाय के मूत्र से शुद्धि होती है और गाय के मलमूत्र को ही गोबर कहा जाता है। अन्य किसी भी जानवर के मलमूत्र को गोबर की संज्ञा नहीं दी गई है। और वर्तमान परिस्थिति देखें तो हमने ही गाय की परिस्थिति सोचनीय बना दी है। उसका जीना दुश्वार कर दिया है। गाय को दरबदर कचरे के ढेर में मुँह डालने के लिए छोड़ दिया है। अपनी राजनीतिक दाल गलाने के लिए गौ मांस का भक्षण करने की प्रतिस्पर्धा की जा रही है। अभी हाल ही में राजस्थान के एक गाँव में एक गाय की मृत्यु हो गई और उसके पेट में ६० किलो प्लास्टिक मिली। गाय हमें पौष्टिक दूध, दही, घी दे रही है और हम उसे प्लास्टिक दे रहे हैं। यही क्रिया चलती रही तो गाय की मूर्ति ही घर में बचेगी। लेकिन साक्षात गाय के दर्शन दुर्लभ ही होंगे। शास्त्रों में भी कहा गया है और वैज्ञानिकों ने भी माना है कि गाय के दूध से बने घी से यज्ञ, हवन, पूजा-पाठ करते हैं तो वातावरण शुद्ध होता है। लेकिन भैंस के दूध से बने घी से यज्ञ, हवन करते हैं तो वातावरण को हानि पहुँचती है। जिसको हम प्लास्टिक खाने पर मजबूर कर रहे हैं वह प्राणी वह गाय हमारे वातावरण से लेकर हमारी संस्कृति तक को बचाने का सामर्थ्य रखती है।
दिन प्रतिदिन पेड़ लगाओ पेड़ बचाओ आदि अभियान होते रहते हैं लेकिन फिर भी समस्या जस की तस है। हमने वह परिस्थिति ही क्यों उत्पन्न की जिसमें हमें यह सब करना पड़े सोच समझ कर कार्य करते तो यह परिस्थिति न उपजती। पेड़ नहीं हैं छाँव नहीं है और साथ ही साथ हमने मिटटी की उर्वरा को भी क्षति पहुँचाई है। एक चुटकी मिट्टी में सवा पांच करोड़ जीवाश्म पाए जाने चाहिए। लेकिन मिटटी को दिन-रात तरह-तरह की दवाई डाल-डाल कर हमने वो सब नष्ट कर दिया है और वर्तमान में सिर्फ चार लाख जीवाश्म रह गए हैं। और भविष्य में भी इसी तरह पेड़ कटते रहे और हानिकारक दवाइयों का उपयोग होता रहा तो यह संख्या नष्ट की कगार पर आ जाएगी। पेड़ नहीं है तो बारिश में अनियमितता बढ़ती जा रही है। कहीं सूखा, कहीं बाढ़, बेमौसम बारिश आदि भी इसी के परिणाम हैं। यह सब इतनी धीमी गति से हुआ कि हमें परिवर्तन का आभास नहीं हो सका।
लेकिन अब यह इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि हम गति को पकड़ नहीं पा रहे हैं। हमें अनगिनत पुराण, आख्यान, व्याख्यान प्राप्त थे। हमें गीता, रामायण, वेद, पुराण प्राप्त हैं। लेकिन उन्हें पढने व समझने की क्षमता का क्षरण हो रहा है। एक भी मंत्र हमें कंठस्थ नहीं है। एक भी ग्रन्थ हमने उठाकर नहीं देखा। हमारे पूर्वजों को भी २४ घंटे, सात दिन ही मिले थे और हमें भी उतना ही मिला है। लेकिन उन्होंने उपयोग किया, सदुपयोग किया, सन्निवेश किया और हम दुरूपयोग कर रहे हैं और फिर हम कहते हैं कि हमारे पास समय नहीं है, हम बड़े व्यस्त हैं।
इन पुराणों, वेदों में जो लिखा गया है वह हमें शायद कोई वेबसाइट भी न बता पाए और न ही समझा पाए। हमें भूले भटके एकाध नाम याद हो क्योंकि घर में बुजुर्ग पाठ करते हैं। लेकिन हमारी भावी पीढ़ी को शायद नाम भी पता रहें क्योंकि जब हम खुद पारायण नहीं करते तो उन्हें इसकी आदत कैसे रखवा पायेंगे। और इस
तरह से मिली एक संस्कृति को हम अगली पीढ़ी की संस्कृति नहीं बना पाएंगे। इस बाजारवाद, भोगवाद, प्रगतिवाद, औद्योगीकरण, भूमंडलीकरण ने इतने वादों को जन्म दे दिया है कि अब हम खुद त्रस्त हो रहे हैं। स्वयं से वादा करें और कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर ध्यान दें तो हम शायद हमें जो मिला वह हम भावी पीढ़ी को दे सकेंगे अन्यथा स्वप्न स्वप्न ही रह जायेगा और हम हाथ मलते हुए कहेंगे कि हमें क्या मिला।

मिटती साख के लिए नये आदर्श की जरुरत है
भानीराम सुरेका
(पूर्व राष्ट्रीय महासचिव, अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन)
कोलकाता समाज सुधार आंदोलनों की आदिभूमि है. उन्नीसवीं सदी के मध्य से यहाँ जो समाज सुधार आंदोलन चले उसका राष्ट्रीय और अन्तर्रष्ट्रीय प्रभाव पडा. चाहे वह सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन हो या विधवा विवाह याकि बाल विवाह सारे आंदोलन यहाँ से शुरू होकर राष्ट्रीय क्षितिज पर फैले और उसके सुपरिणाम भी मिले. ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय से लेकर रवीन्द्र नाथ टैगोर और काजी नज़रुल इस्लाम तक आंदोलनों का सिलसिला लगातार चला. इन आंदोलनों के पक्ष में कविता, कहानियाँ, नाटक रचे गए, शहर- गाँव में उनका मंचन हुआ और लोकगीतों के माध्यम से वे लोगों की जुबान तक पहुंचे जिससे आम आदमी की समझ में ये बातें आईं और धीरे-धीरे समाज पौराणिक रुढियों, कुप्रथाओं और अंधविश्वासों से मुक्त होने लगा. बीसवीं सदी के प्रारंभ में शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय की कहानियाँ पढ़ें, उनके उपन्यास पर चिंतन करें तो समाज को सुधारने की ललक स्पष्ट दिखाई पड़ती है.
कोलकाता में शुरू हुई इन आंदोलनों से सिर्फ बंगाली समाज का फायदा हुआ, ऎसी बात नहीं है. इन आंदोलनों ने यहाँ रह रहे अन्य समाज के लोगों को भी आकर्षित किया और वे भी अपने समाज में सुधार के प्रति गंभीर हुए. सुधार आंदोलनों का सर्वाधिक असर बंगाली समाज के बाद मारवाड़ी समाज पर पड़ा. चूँकि मारवाड़ी समाज लंबे समय से कोलकाता में रहने वाला प्रमुख समाज रहा है इसीलिए इस समाज में इन आंदोलनों का सकारात्मक प्रभाव पड़ा.
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही मारवाड़ी समाज ने छोटे-छोटे समूह बनाकर समाज सुधार के प्रति अपने प्रयासों को रंग देना शुरू किया. कलकत्ता के मारवाड़ी समाज की गतिविधियों ने देश के अन्य प्रान्तों में रह रहे मारवाड़ी समाज के लोगों को भी सक्रिय किया और वे भी इस धारा से जुड़ गए. 1885 में समाज सुधार नामक पत्रिका निकालकर बिहार के आरा के मारवाड़ियों ने बड़ी पहल की. 1910 में इस आंदोलन में एक बड़ा मोड़ आया जब इंग्लैंड से बैरिस्ट्री पास करके लौटे कालीकृष्ण खेतान को समुद्र पार करने के पाप में समाज निकाला दे दिया गया. समाज के प्रगतिशील तबके ने इसके खिलाफ मोर्चा संभाला और तीव्र आंदोलन शुरू किया. बीचबचाव में उस समय प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच चुके बिड़ला परिवार को आना पड़ा और अंततः कालीकृष्ण खेतान को समाज ने स्वीकृति प्रदान की. इसके बाद ही मारवाड़ी समाज में शिक्षा के प्रति अनुराग बढ़ा और किसी तरह व्यापार-बाणिज्य के संचालन की योग्यता से आगे बढ़कर विधिवत उच्च शिक्षा प्राप्त करने की शुरुआत हुई.
इसके बाद आंदोलन का निशाना सदियों पुराने संस्कार बने. सैकड़ों तरह की रूढ़ियों, कुप्रथाओं, अंधविश्वासों से जर्जरित मारवाड़ी समाज को नया जामा पहनाने के लिए कतिपय समर्पित समाजसेवी, विचारक सामने आये और इन्होनें बिना विरोध कि परवाह किये लगातार समाज सेवा और सुधार के कार्यक्रम हतः में लिए जिसका परिणाम आखिरकार दर्ज़नों विद्यालयों, अस्पतालों और दातव्य चिकित्सालयों के रूप में सामने आया. आज कोलकाता के बड़ाबाज़ार अंचल में विशुद्धानंद विद्यालय, माहेश्वरी विद्यालय, डीडू माहेश्वरी विद्यालय हों, या मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी, विशुद्धानंद अस्पताल ( आमहर्स्ट स्ट्रीट और बड़ाबाज़ार) सब समाज के चंदे से निर्मित ऐतिहासिक धरोहर हैं जिसने मारवाड़ी समाज की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाए.
1935 में रजवाड़ों को मतदान के अधिकार को लेकर शुरू हुए आंदोलन की परिणति अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन जैसे राष्ट्रीय प्रतिनिधि संस्था के गठन तक पहुंची और समाज को वैचारिक आधार देने के लिए चोटी के समाज सुधारक एकत्रित होकर नेतृत्व में आये. यह वह समय था जब पश्चिम बंगाल की राजनीति में भी मारवाड़ी समाज की प्रतिनिधि भागीदारी थी और एक समय 16 विधायक मारवाड़ी हुआ करते थे जो बंगाली बहुल इलाकों से जीत कर आते थे. स्वर्गीय ईश्वर दास जालान क़ानून मंत्री और बाद में विधानसभा अध्यक्ष तक बने. विजय सिंह नाहर उपमुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे.
समाज सुधार आंदोलनों का यह सिलसिला 1970 के दशक से शिथिल पड़ने लगा. पुराने समर्पित समाज सुधारकों के अवसान के बाद नयी पीढ़ी के लोग उस धारा को अक्षुण्ण नहीं रख सके.
मैं स्वयं 1979 में अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन से जुड़ा और 1983 में सम्मेलन की शाखा कोलकाता मारवाड़ी सम्मेलन का अध्यक्ष बना तो सीताराम शर्मा, जो वर्तमान में बेलारूस के मानद कौंसल जनरल हैं, भारत चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स के अध्यक्ष हैं और पूर्व में अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर चुके हैं, के साथ मिलकर हमने समाज सुधार आंदोलनों की गति बढाने के लिए उस समय सिनेमा हालों में फिल्म शुरू होने से पहले समाज सुधार संबंधी सूचना प्रचारित करने की पहल की. इससे लोगों में जागरूकता बढी.
1990 के दशक में शुरू हुए उदारीकरण और बाजारीकरण ने मारवाड़ी समाज की आर्थिक हैसियत को कितना फायदा पहुँचाया यह अनुसंधान का विषय भले हो लेकिन इस नई व्यवस्था ने समाज में उधारीकरण का जो रोग लगाया वह अब नासूर बनकर पूरे समाज की नींव को खोखला कर रहा है.
आज जब समाज को समग्रता में देखता हूँ तो बड़ी निराशा होती है. मान-मर्यादा के लिए मर मिटने वाले मारवाड़ी समाज को कतिपय लोगों की असामाजिक गतिविधि ने बदनाम कर रखा है. अर्थ की प्रचुरता ने अनर्थ को आमंत्रित कर दिया है. लोग छोटे-मोटे समारोहों में भी बड़े खर्च करके अपना रुतबा बढाने को बेताब हैं. बैंकों के लोन, आर्थिक संस्थानों से लोन, अपने सगे-संबंधियों, परिचितों से लोन लेकर बेहिसाब खर्च ने दिवाला निकालने वालों का समूह खड़ा किया है जिन्हें अपने किये पर पछतावा तक नहीं है. ये अराजक समूह अपनी करनी से पूरे समाज की इज्ज़त तार-तार कर रहे हैं.
आज देश आर्थिक मामलों में पिछड़ रहा है. भयावह मंदी, बेलगाम महंगाई, बाज़ार में नगदी का अभाव, सरकारों (राज्य या केंद्र) के पास ठोस नीतियों का भाव, व्यापारियों में भय का संचार ऎसी वजहें हैं जिसके चलते देश के लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. चारों तरफ अफरा-तफरी का आलम है. अनिश्चित भविष्य और तनावग्रस्त वर्तमान ने सभी समाजों को चिंता में डाल रखा है.
ऐसे में मारवाड़ी समाज भी अछूता नहीं रह सकता. आज इस बात की जरुरत है कि समाज की सभी अग्रणी संस्थाएं, समाज के अग्रणी सेवाकर्मी, सुधारक एक मंच पर एकत्रित हों और सामयिक चुनौतियों से जूझने तथा समाज की बेहतर छवि बनाने के लिए नए नियम प्रतिपादित करें.
सोशल मीडिया और लोकप्रिय माध्यमों में समाज को सुधारने वाली बातों का व्यापक प्रचार-प्रसार हो, समाज को बदनाम करने वाले लोगों पर अनुशासनात्मक कारवाई हो और अच्छे लोगों को पुरस्कृत कर आदर्श स्थापित किया जाए जिससे ख़त्म हो रही साख को भुलाकर पूरा समाज एक नई शूरुआत के प्रति उत्सुक दिखे.
यह कार्य बहुत आसान नहीं है लेकिन मुश्किल भी नहीं है. पूरी निष्ठा, ईमानदारी और समर्पण से अगर इसकी शुरुआत हो तो जल्द ही इसके सकारात्मक परिणाम सामने आयेंगे.
(पूर्व राष्ट्रीय महासचिव, अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन)
कोलकाता समाज सुधार आंदोलनों की आदिभूमि है. उन्नीसवीं सदी के मध्य से यहाँ जो समाज सुधार आंदोलन चले उसका राष्ट्रीय और अन्तर्रष्ट्रीय प्रभाव पडा. चाहे वह सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन हो या विधवा विवाह याकि बाल विवाह सारे आंदोलन यहाँ से शुरू होकर राष्ट्रीय क्षितिज पर फैले और उसके सुपरिणाम भी मिले. ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय से लेकर रवीन्द्र नाथ टैगोर और काजी नज़रुल इस्लाम तक आंदोलनों का सिलसिला लगातार चला. इन आंदोलनों के पक्ष में कविता, कहानियाँ, नाटक रचे गए, शहर- गाँव में उनका मंचन हुआ और लोकगीतों के माध्यम से वे लोगों की जुबान तक पहुंचे जिससे आम आदमी की समझ में ये बातें आईं और धीरे-धीरे समाज पौराणिक रुढियों, कुप्रथाओं और अंधविश्वासों से मुक्त होने लगा. बीसवीं सदी के प्रारंभ में शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय की कहानियाँ पढ़ें, उनके उपन्यास पर चिंतन करें तो समाज को सुधारने की ललक स्पष्ट दिखाई पड़ती है.
कोलकाता में शुरू हुई इन आंदोलनों से सिर्फ बंगाली समाज का फायदा हुआ, ऎसी बात नहीं है. इन आंदोलनों ने यहाँ रह रहे अन्य समाज के लोगों को भी आकर्षित किया और वे भी अपने समाज में सुधार के प्रति गंभीर हुए. सुधार आंदोलनों का सर्वाधिक असर बंगाली समाज के बाद मारवाड़ी समाज पर पड़ा. चूँकि मारवाड़ी समाज लंबे समय से कोलकाता में रहने वाला प्रमुख समाज रहा है इसीलिए इस समाज में इन आंदोलनों का सकारात्मक प्रभाव पड़ा.
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही मारवाड़ी समाज ने छोटे-छोटे समूह बनाकर समाज सुधार के प्रति अपने प्रयासों को रंग देना शुरू किया. कलकत्ता के मारवाड़ी समाज की गतिविधियों ने देश के अन्य प्रान्तों में रह रहे मारवाड़ी समाज के लोगों को भी सक्रिय किया और वे भी इस धारा से जुड़ गए. 1885 में समाज सुधार नामक पत्रिका निकालकर बिहार के आरा के मारवाड़ियों ने बड़ी पहल की. 1910 में इस आंदोलन में एक बड़ा मोड़ आया जब इंग्लैंड से बैरिस्ट्री पास करके लौटे कालीकृष्ण खेतान को समुद्र पार करने के पाप में समाज निकाला दे दिया गया. समाज के प्रगतिशील तबके ने इसके खिलाफ मोर्चा संभाला और तीव्र आंदोलन शुरू किया. बीचबचाव में उस समय प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच चुके बिड़ला परिवार को आना पड़ा और अंततः कालीकृष्ण खेतान को समाज ने स्वीकृति प्रदान की. इसके बाद ही मारवाड़ी समाज में शिक्षा के प्रति अनुराग बढ़ा और किसी तरह व्यापार-बाणिज्य के संचालन की योग्यता से आगे बढ़कर विधिवत उच्च शिक्षा प्राप्त करने की शुरुआत हुई.
इसके बाद आंदोलन का निशाना सदियों पुराने संस्कार बने. सैकड़ों तरह की रूढ़ियों, कुप्रथाओं, अंधविश्वासों से जर्जरित मारवाड़ी समाज को नया जामा पहनाने के लिए कतिपय समर्पित समाजसेवी, विचारक सामने आये और इन्होनें बिना विरोध कि परवाह किये लगातार समाज सेवा और सुधार के कार्यक्रम हतः में लिए जिसका परिणाम आखिरकार दर्ज़नों विद्यालयों, अस्पतालों और दातव्य चिकित्सालयों के रूप में सामने आया. आज कोलकाता के बड़ाबाज़ार अंचल में विशुद्धानंद विद्यालय, माहेश्वरी विद्यालय, डीडू माहेश्वरी विद्यालय हों, या मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी, विशुद्धानंद अस्पताल ( आमहर्स्ट स्ट्रीट और बड़ाबाज़ार) सब समाज के चंदे से निर्मित ऐतिहासिक धरोहर हैं जिसने मारवाड़ी समाज की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाए.
1935 में रजवाड़ों को मतदान के अधिकार को लेकर शुरू हुए आंदोलन की परिणति अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन जैसे राष्ट्रीय प्रतिनिधि संस्था के गठन तक पहुंची और समाज को वैचारिक आधार देने के लिए चोटी के समाज सुधारक एकत्रित होकर नेतृत्व में आये. यह वह समय था जब पश्चिम बंगाल की राजनीति में भी मारवाड़ी समाज की प्रतिनिधि भागीदारी थी और एक समय 16 विधायक मारवाड़ी हुआ करते थे जो बंगाली बहुल इलाकों से जीत कर आते थे. स्वर्गीय ईश्वर दास जालान क़ानून मंत्री और बाद में विधानसभा अध्यक्ष तक बने. विजय सिंह नाहर उपमुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे.
समाज सुधार आंदोलनों का यह सिलसिला 1970 के दशक से शिथिल पड़ने लगा. पुराने समर्पित समाज सुधारकों के अवसान के बाद नयी पीढ़ी के लोग उस धारा को अक्षुण्ण नहीं रख सके.
मैं स्वयं 1979 में अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन से जुड़ा और 1983 में सम्मेलन की शाखा कोलकाता मारवाड़ी सम्मेलन का अध्यक्ष बना तो सीताराम शर्मा, जो वर्तमान में बेलारूस के मानद कौंसल जनरल हैं, भारत चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स के अध्यक्ष हैं और पूर्व में अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर चुके हैं, के साथ मिलकर हमने समाज सुधार आंदोलनों की गति बढाने के लिए उस समय सिनेमा हालों में फिल्म शुरू होने से पहले समाज सुधार संबंधी सूचना प्रचारित करने की पहल की. इससे लोगों में जागरूकता बढी.
1990 के दशक में शुरू हुए उदारीकरण और बाजारीकरण ने मारवाड़ी समाज की आर्थिक हैसियत को कितना फायदा पहुँचाया यह अनुसंधान का विषय भले हो लेकिन इस नई व्यवस्था ने समाज में उधारीकरण का जो रोग लगाया वह अब नासूर बनकर पूरे समाज की नींव को खोखला कर रहा है.
आज जब समाज को समग्रता में देखता हूँ तो बड़ी निराशा होती है. मान-मर्यादा के लिए मर मिटने वाले मारवाड़ी समाज को कतिपय लोगों की असामाजिक गतिविधि ने बदनाम कर रखा है. अर्थ की प्रचुरता ने अनर्थ को आमंत्रित कर दिया है. लोग छोटे-मोटे समारोहों में भी बड़े खर्च करके अपना रुतबा बढाने को बेताब हैं. बैंकों के लोन, आर्थिक संस्थानों से लोन, अपने सगे-संबंधियों, परिचितों से लोन लेकर बेहिसाब खर्च ने दिवाला निकालने वालों का समूह खड़ा किया है जिन्हें अपने किये पर पछतावा तक नहीं है. ये अराजक समूह अपनी करनी से पूरे समाज की इज्ज़त तार-तार कर रहे हैं.
आज देश आर्थिक मामलों में पिछड़ रहा है. भयावह मंदी, बेलगाम महंगाई, बाज़ार में नगदी का अभाव, सरकारों (राज्य या केंद्र) के पास ठोस नीतियों का भाव, व्यापारियों में भय का संचार ऎसी वजहें हैं जिसके चलते देश के लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. चारों तरफ अफरा-तफरी का आलम है. अनिश्चित भविष्य और तनावग्रस्त वर्तमान ने सभी समाजों को चिंता में डाल रखा है.
ऐसे में मारवाड़ी समाज भी अछूता नहीं रह सकता. आज इस बात की जरुरत है कि समाज की सभी अग्रणी संस्थाएं, समाज के अग्रणी सेवाकर्मी, सुधारक एक मंच पर एकत्रित हों और सामयिक चुनौतियों से जूझने तथा समाज की बेहतर छवि बनाने के लिए नए नियम प्रतिपादित करें.
सोशल मीडिया और लोकप्रिय माध्यमों में समाज को सुधारने वाली बातों का व्यापक प्रचार-प्रसार हो, समाज को बदनाम करने वाले लोगों पर अनुशासनात्मक कारवाई हो और अच्छे लोगों को पुरस्कृत कर आदर्श स्थापित किया जाए जिससे ख़त्म हो रही साख को भुलाकर पूरा समाज एक नई शूरुआत के प्रति उत्सुक दिखे.
यह कार्य बहुत आसान नहीं है लेकिन मुश्किल भी नहीं है. पूरी निष्ठा, ईमानदारी और समर्पण से अगर इसकी शुरुआत हो तो जल्द ही इसके सकारात्मक परिणाम सामने आयेंगे.

जान है तो जहान है : शिवलाल सिंह देवा
साथिओं ! विश्व में हंसती खेलती जिंदगियो को लीलने की प्रक्रिया कोई नयी नहीं है.बुजुर्ग लोग बताते हैं की हमेशा इतिहास दोहराता है. पिछली शताब्दी के संवत १९६५ के लगभग में हमारे बुजुर्गों ने इससे बुरी दशा देखी थी.
आज तो हमने काफी वैज्ञानिक तरक्की भी प्राप्त कर ली है. जिससे वैक्सीन तैयार कर तथाकथित कोरोना का खात्मा तो नहीं लेकिन कुछ हद तक इसके फैलाव को रोका है. कुछ लोगों ने स्कोर ग्लोबल फ्रॉड भी कहा. कुछ लोगों ने इसे राजनीतिकों द्वारा लॉक डाउन में देरी भी बताया.खैर यह तो भविष्य के गर्भ में छिपी बातें हैं लेकिन यह तो सच है की गत वर्षों में सामान्य जनता ने मुख्यतः किसान मंजदूर एवं छोटे व्यापारिओं ने जो दुःख भोगे हैं वह आज भी शरीर में सिहरन पैदा करते है. इससे बड़ा नुकसान हमारे छोटे बच्चों की शिक्षा पर पड़ा है,जो कभी भुलाया नहीं जा सकता. हाँ गत वर्षों में बड़े राष्ट्रीय मुद्दों को जैसे कश्मीर , समस्या राम मंदिर समस्या का हल तीन तलाक मुद्दा आदि हल भी किये गए हैं लेकिन इन मुद्दों पर डीजल , पेट्रोल गैस की कीमतें किसानों पर बिना बहस लगाये गए कृषि कानून आदि मुद्दे भारी पड़ गए. आज सामान्य लोग कमाने में न लगकर जो कुछ है उसे बचाने में लग गए है,यह दौर बहुत ही मुश्किल का दौर है. अनिश्चितता का दौर बन गया है.सामाजिक रूप से कोरोना काल ने काफी कुछ सिखाया भी है,जिससे हमारे भविष्य के लिए कुछ शिक्षाएं भी मिलती है यथा ...
१- इस कठिन दौर में हमने परिवार की ताकत को पहचाना है जो धीरे-धीरे एकल परिवार में परिवर्तित हो रहे थे.
२- इस दौर में हमने जाना कि जो हो रहा है उसे हम चाहते नही और जो चाहते हैं वह नहीं हो रहा इसका मतलब प्रकृति में शक्ति कोई है जिसे चाहे प्रकृति या सर्वशक्तिमान या ईश्वर या अल्लाह कुछ भी कह सकते हैं.
३- इस त्रासदी में हमने हवा पानी धरती व् पेड़ पौधे के महत्व पर ध्यान दिया जैसा कि गृहस्थ संत शिरोमणि झुझाराम देवा बिरमसर - रतनगढ़ कहते थे कि पेड़ पौधे लगाना धर्मशाला बनाने से भी उत्तम है क्योंकि पेड़ पौधे हमें स्वास के लिए प्राण वायु, पशु पक्षिओं के लिए छाया,विश्राम व् आहार प्रदान करते हैं एवं मनुष्य को ईधन
४- परिवार के सभी सदस्यों ने मितव्ययिता व् बचत का महत्व समझा क्योंकि हम जानते है की पैसे से ख़ुशी तो नहीं खरीद सकते लेकिन बचत का पैसा मुसीबत पर काम जरूर आता है यथा -
५- कोरोना काल में हमने डॉक्टर पुलिस सफाई कर्मी आदि का सम्मान करना सीखा अर्थात काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता वर्क इस वोर्शिप (कर्म ही पूजा) का महत्व समझा ६- एक शब्द है स्वार्थी. अच्छा तो नहीं है लेकिन अपने स्वास्थ्य के प्रति हमेशा स्वार्थी होना चाहिए. सीख मिली अर्थात जो पूर्ण स्वस्थ होगा वही तो दूसरों की सेवा कर सकता है. वही बीमारी से लड़ सकता है. हमें वैक्सीन आने तक डाटाये रखा. क्योंकि वैक्सीन आने तक महामारी से लड़ाई में सरकार तथा समाज की इच्छा शक्ति काम आई. विशेषरूप से हमारे वैज्ञानिकों का धन्यवाद है जिन्होंने इतने कम समय में हमें वैक्सीन तैयार करके दी.इस काल से हमने आगे के लिए भी सीखा की शुद्ध जल ,शुद्ध हवा अनुशासन, संयम मास्क दो गज की दूरी है जरूरी.
७- इस काल से हमने यह सीखा कि कल नहीं आज खुशहाल होना चाहिए ज्यादातर हम लोग कल की चिंता में आज का महत्व भूल जाते हैं.
८-इस मुश्किल दौर में हमने हमारे सामाजिक ताने-बाने के महत्व को समझा और सामाजिक एकजुटता ही तमाम मुश्किलों का हल कर सकता है.
९- लोक डाउन के कठिन समय में महामारी से लड़ने में जनता ने जो संयम दिखाया वह काबिले तारीफ़ है तथा आगे के इस एटॉमिक एवं इलेक्ट्रॉनिक रेडिएशन की दुनिया में कब क्या हो जाय. यह संयम ही काम आएगा महसूस किआ क्योंकि वैक्सीन का मतलब कोरोना का खात्मा नहीं है हाँ फैलाव रोकेगा इसलिए हैण्ड वाश दो गज की दूरी मास्क है जरूरी. इसलिए साथिओं जान है तो जहान है.
( लेखक स्टेट बैंक ऑफ़ बीकानेर एंड जयपुर से सेवा निवृत शाखा प्रबंधक है.)
आज तो हमने काफी वैज्ञानिक तरक्की भी प्राप्त कर ली है. जिससे वैक्सीन तैयार कर तथाकथित कोरोना का खात्मा तो नहीं लेकिन कुछ हद तक इसके फैलाव को रोका है. कुछ लोगों ने स्कोर ग्लोबल फ्रॉड भी कहा. कुछ लोगों ने इसे राजनीतिकों द्वारा लॉक डाउन में देरी भी बताया.खैर यह तो भविष्य के गर्भ में छिपी बातें हैं लेकिन यह तो सच है की गत वर्षों में सामान्य जनता ने मुख्यतः किसान मंजदूर एवं छोटे व्यापारिओं ने जो दुःख भोगे हैं वह आज भी शरीर में सिहरन पैदा करते है. इससे बड़ा नुकसान हमारे छोटे बच्चों की शिक्षा पर पड़ा है,जो कभी भुलाया नहीं जा सकता. हाँ गत वर्षों में बड़े राष्ट्रीय मुद्दों को जैसे कश्मीर , समस्या राम मंदिर समस्या का हल तीन तलाक मुद्दा आदि हल भी किये गए हैं लेकिन इन मुद्दों पर डीजल , पेट्रोल गैस की कीमतें किसानों पर बिना बहस लगाये गए कृषि कानून आदि मुद्दे भारी पड़ गए. आज सामान्य लोग कमाने में न लगकर जो कुछ है उसे बचाने में लग गए है,यह दौर बहुत ही मुश्किल का दौर है. अनिश्चितता का दौर बन गया है.सामाजिक रूप से कोरोना काल ने काफी कुछ सिखाया भी है,जिससे हमारे भविष्य के लिए कुछ शिक्षाएं भी मिलती है यथा ...
१- इस कठिन दौर में हमने परिवार की ताकत को पहचाना है जो धीरे-धीरे एकल परिवार में परिवर्तित हो रहे थे.
२- इस दौर में हमने जाना कि जो हो रहा है उसे हम चाहते नही और जो चाहते हैं वह नहीं हो रहा इसका मतलब प्रकृति में शक्ति कोई है जिसे चाहे प्रकृति या सर्वशक्तिमान या ईश्वर या अल्लाह कुछ भी कह सकते हैं.
३- इस त्रासदी में हमने हवा पानी धरती व् पेड़ पौधे के महत्व पर ध्यान दिया जैसा कि गृहस्थ संत शिरोमणि झुझाराम देवा बिरमसर - रतनगढ़ कहते थे कि पेड़ पौधे लगाना धर्मशाला बनाने से भी उत्तम है क्योंकि पेड़ पौधे हमें स्वास के लिए प्राण वायु, पशु पक्षिओं के लिए छाया,विश्राम व् आहार प्रदान करते हैं एवं मनुष्य को ईधन
४- परिवार के सभी सदस्यों ने मितव्ययिता व् बचत का महत्व समझा क्योंकि हम जानते है की पैसे से ख़ुशी तो नहीं खरीद सकते लेकिन बचत का पैसा मुसीबत पर काम जरूर आता है यथा -
५- कोरोना काल में हमने डॉक्टर पुलिस सफाई कर्मी आदि का सम्मान करना सीखा अर्थात काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता वर्क इस वोर्शिप (कर्म ही पूजा) का महत्व समझा ६- एक शब्द है स्वार्थी. अच्छा तो नहीं है लेकिन अपने स्वास्थ्य के प्रति हमेशा स्वार्थी होना चाहिए. सीख मिली अर्थात जो पूर्ण स्वस्थ होगा वही तो दूसरों की सेवा कर सकता है. वही बीमारी से लड़ सकता है. हमें वैक्सीन आने तक डाटाये रखा. क्योंकि वैक्सीन आने तक महामारी से लड़ाई में सरकार तथा समाज की इच्छा शक्ति काम आई. विशेषरूप से हमारे वैज्ञानिकों का धन्यवाद है जिन्होंने इतने कम समय में हमें वैक्सीन तैयार करके दी.इस काल से हमने आगे के लिए भी सीखा की शुद्ध जल ,शुद्ध हवा अनुशासन, संयम मास्क दो गज की दूरी है जरूरी.
७- इस काल से हमने यह सीखा कि कल नहीं आज खुशहाल होना चाहिए ज्यादातर हम लोग कल की चिंता में आज का महत्व भूल जाते हैं.
८-इस मुश्किल दौर में हमने हमारे सामाजिक ताने-बाने के महत्व को समझा और सामाजिक एकजुटता ही तमाम मुश्किलों का हल कर सकता है.
९- लोक डाउन के कठिन समय में महामारी से लड़ने में जनता ने जो संयम दिखाया वह काबिले तारीफ़ है तथा आगे के इस एटॉमिक एवं इलेक्ट्रॉनिक रेडिएशन की दुनिया में कब क्या हो जाय. यह संयम ही काम आएगा महसूस किआ क्योंकि वैक्सीन का मतलब कोरोना का खात्मा नहीं है हाँ फैलाव रोकेगा इसलिए हैण्ड वाश दो गज की दूरी मास्क है जरूरी. इसलिए साथिओं जान है तो जहान है.
( लेखक स्टेट बैंक ऑफ़ बीकानेर एंड जयपुर से सेवा निवृत शाखा प्रबंधक है.)

मातृभाषाओं को रोज़गार से जोड़ने वाले
आजादी के बाद जब 1950 में संघ लोक सेवा आयोग की पहली बार परीक्षा हुई तो उसमें 3647 अभ्यर्थी शामिल हुए थे जिनमें से 240 उत्तीर्ण हुए. 1960 में 10000 बैठे थे, 1970 में 11710 बैठे थे और 1979 में यह संख्या बढ़कर एक लाख से ऊपर हो गई. इस वर्ष इस परीक्षा में कुल 1,00742 अभ्यर्थी शामिल हुए जिनमें से 703 उत्तीर्ण हुए. परीक्षा में शामिल होने वाले अभ्यर्थियों की संख्या इस वर्ष बढ़कर लगभग दसगुनी हो गई. इसका कारण यह था कि इसी वर्ष कोठारी आयोग की सिफारिशें लागू हुई थीं. कोठारी आयोग की इन सिफारिशों में अभ्यर्थियों की उम्र सीमा तो बढ़ाई ही गई थी परीक्षार्थियों को अंग्रेजी सहित संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में लिखने की छूट भी मिल गई थी. इसका परिणाम यह हुआ कि देश के दूर दराज क्षेत्रों के पिछड़े और गरीब किन्तु प्रतिभाशाली अभ्यर्थियों को भी इस सर्वाधिक प्रतिष्ठित परीक्षा में शामिल होने का पहली बार अवसर नसीब हुआ था. अपनी भाषाओं में उत्तर लिखने की छूट के कारण सदियों से वंचित दलितों और शोषितों के भीतर आत्मविश्वास तो पैदा हुआ ही, उनके भीतर अपनी भाषाओं के प्रति प्रेम और निष्ठा का भी विकास हुआ. इसके पहले तो आईसीएस करने के लिए अभ्यर्थियों को इंग्लैंड जाना पड़ता था और परीक्षा का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी थी.
भारत सरकार ने उच्च प्रशासनिक सेवाओं के लिये आयोजित सिविल सेवा परीक्षा की रिव्यू के लिए सन् 1974 में प्रो. डी.एस कोठारी ( 6.7.1906- 4.2.1993) की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई. इस कमेटी ने 1976 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी और उसी के आधार पर 1979 में भारत सरकार के उच्च पदों जैसे आईएएस, आईपीएस और बीस दूसरे विभागों के लिए एक सामान्य परीक्षा का आयोजन आरंभ हुआ. इसमें सबसे क्रान्तिकारी सुझाव अंग्रेजी सहित भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने का विकल्प था. देश भर में परीक्षा केन्द्र भी बढ़ाए गए जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में रहने वाले पिछड़े और वंचित अभ्यर्थी भी इस परीक्षा में शामिल हो सकें. इसका जो तत्काल परिणाम आया उसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है. बाद में दिन प्रति दिन हिन्दी सहित दूसरी भारतीय भाषाओं के माध्यम वाले अभ्यर्थी बढ़ते गए और ग्रामीण क्षेत्र के प्रतिभाशाली अभ्यर्थी भी इस प्रतिष्ठित सेवा में आने लगे. हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के क्षेत्र में यह ऐतिहासिक घटना थी जिसका व्यापक और दूरगामी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था.
कोठारी आयोग ने सुक्षाव दिया कि, “हम पूरे विश्वास से यह कहना चाहते हैं जो अभ्यर्थी अखिल भारतीय सेवाओं की नौकरी में आना चाहते हैं उन्हें आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं का ज्ञान होना अनिवार्य है. जिन्हें ये भाषाएँ नहीं आतीं वे सरकारी सेवाओं के लिए कत्तई उपयुक्त नहीं हैं. वास्तव में एक सही व्यक्तित्व के विकास के लिए यह जरूरी है कि हमारे नौजवानों को हमारी भाषाओं और उसके साहित्य का ज्ञान हो. इसलिए हमारी जोरदार सिफारिश है कि पहले और दूसरे चरण दोनों पर ही आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं की परीक्षा अनिवार्य हो.”(पैरा 3.22)
आयोग ने कहा कि, “हमने परीक्षाओं के संदर्भ में अंग्रेजी की बात पर भी विचार किया. अंग्रेजी का हमारे देश में एक महत्वपूर्ण स्थान है. यह अखिल भारतीय स्तर के प्रशासन के लिए संपर्क भाषा भी है. बहुत सारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी ही है. दुनिया भर के ताजा हालातों और विशेषकर विज्ञान और तकनीकी ज्ञान के लिए अंग्रेजी बहुत जरूरी भी है और इसीलिए अंग्रेजी का भी अनिवार्य पेपर होना चाहिए.” (पैरा 3.23)
सिविल सेवाओं में भारतीय भाषाओं की शुरुआत का असर था कि बाजार में विभिन्न विषयों में हिन्दी माध्यम की किताबें उपलब्ध होने लगीं. महत्वपूर्ण पुस्तकों के हिन्दी में अनुवाद होने लगे और बाजार ऐसी पुस्तकों से पट गया. राज्यों में विभिन्न भाषाओं की ग्रंथ अकादमियाँ स्थापित और सक्रिय होने लगीं.
हिन्दी के शुभचिन्तक आमतौर पर कहते हैं कि हिन्दी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा तभी मिलेगी जब उन्हें रोजगार से जोड़ा जाएगा. आजाद भारत में प्रो. डी.एस. कोठारी पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने भारतीय भाषाओं को रोजगार से जोड़ने का महान कार्य किया.
इसके पूर्व प्रो. डी. एस. कोठारी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) गठित हुआ था. इस शिक्षा आयोग के सचिव थे जे.पी.नायक (पुणे) और सह सचिव थे जे.एफ.मक्डौगल (यूनेस्को). आयोग के सदस्य थे ए.आर.डाउड (नई दिल्ली), एफ.एन.एल्विन (लंदन), आर.ए. गोपालस्वामी ( नई दिल्ली), वी.एस.झा ( लंदन), पी.एन. कृपाल, (शिक्षा सलाहकार, भारत सरकार), एम.वी.माथुर (राजस्थान विश्वविद्यालय), बी.पी. पाल ( नई दिल्ली), एस.पणंडीकर ( धारवाड़), सरोजर रेवेल्ले ( कैलीफोर्निया), के.जी.सईडेन ( शिक्षा सलाहकार, भारत सरकार), टी.सेन ( रेक्टर, यादवपुर यूनिवर्सिटी), जीन थामस ( यूनेस्को), एस.ए.शुमोवस्की ( मास्को) और सादातोशी इहारा( टोकियो). इसके अलावा दुनिया भर से शिक्षा-विशेषज्ञों के 20 सदस्यों का एक पेनल कंसल्टेंट भी नियुक्त था जिनमें जेम्स ई. एलेन ( यूएसए), सी.ई. बीबी ( हारवर्ड), पीएमएस बलैकेट (यूके), क्रिस्टोफर काक्स (यूके), फिलिप एच.कूम्ब्स (पेरिस), आंद्रे देनीरे ( हावर्ड), स्टेवान देदीजेर ( स्वीडेन), निकोलस डेविट (यूएसए) आदि प्रमुख हैं.
29 जून 1966 को इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और उसके बाद भी हर स्तर पर भरपूर चर्चा के बाद 24 जुलाई 1968 को भारत की यह प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गई. यह पूर्ण रूप से कोठारी आयोग के प्रतिवेदन पर ही आधारित थी. इसका लक्ष्य था सामाजिक दक्षता, राष्ट्रीय एकता एवं समाजवादी समाज की स्थापना. इसमें शिक्षा प्रणाली का रूपान्तरण कर 10+2+3 पद्धति पर कर दिया गया. हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित करने पर विशेष जोर दिया गया. सबके लिए शिक्षा के समान अवसर की उपलब्धता का ख्याल रखा गया. विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के साथ ही नैतिक व सामाजिक मूल्यों के विकास पर जोर दिया गया.
इस शिक्षा नीति की दो बातें बेहद चर्चित रहीं. पहली, समान विद्यालय व्यवस्था (कामन स्कूल सिस्टम) और दूसरी विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा अपनी भाषाओं में देने का प्रस्ताव.
आयोग के सुक्षाव लागू होने के बाद शिक्षा के सभी चरणों में, प्रादेशिक भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने का प्रयास हुआ. प्राथमिक शिक्षा को सिर्फ मातृभाषाओं के माध्यम से देने पर जोर दिया गया. कोठारी शिक्षा आयोग का सुक्षाव था कि प्राथमिक स्तर तक बच्चों को सिर्फ एक भाषा पढ़ाई जानी चाहिए और वह या तो मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा ही होनी चाहिए. आयोग का सुझाव था कि अंग्रेजी भाषा संसार से हमारे संपर्क का मुख्य माध्यम है और आधुनिक वैज्ञानिक युग के बढ़ते हुए ज्ञान को प्राप्त करने का भी मुख्य साधन है. इसलिए अंग्रेजी को प्रोत्साहन मिलना चाहिए और उसपर विशेष बल दिया जाना चाहिए. आयोग ने सुक्षाव दिया था कि गैर हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी के अध्ययन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि वह संघ की राजभाषा के रूप में अपना दायित्व निभा पाने में सक्षम हो सके और भारत की सभी भाषाओं के बीच सम्पर्क स्थापित करने में सहायक हो सके. आयोग ने सुझाव दिया कि पूरे देश में ईमानदारी से त्रिभाषा फार्मूला अपनाया जाना चाहिए.
कोठारी शिक्षा आयोग की शिक्षा नीति में हिन्दी और भारतीय भाषाओं को लेकर स्पष्ट निर्देश है. वहाँ ‘भाषाओं का विकास’ शीर्षक तीसरे अनुच्छेद में क्षेत्रीय भाषाओं, त्रिभाषा फार्मूला, हिन्दी, संस्कृत और अंतरराष्ट्रीय भाषाओं को लेकर अलग- अलग निर्देश है. यहाँ देश में शैक्षिक और सांस्कृतिक विकास के लिए भारतीय भाषाओं और उसके साहित्य के विकास को अनिवार्य शर्त के रूप में रेखांकित किया गया है और कहा गया है कि क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बिना न तो लोगों की रचनात्मक ऊर्जा निखरेगी, न तो शिक्षा का स्तर उन्नत होगा और न ज्ञान का आम जनता तक प्रसार हो सकेगा. बौद्धिक समुदाय और आम जनता के बीच की खाई भी यथावत बनी रहेगी. वहाँ कहा गया है कि देश में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में क्षेत्रीय भाषाएँ पहले से ही प्रयोग में हैं, इन्हें विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है.
त्रिभाषा फार्मूला को लेकर कोठारी शिक्षा आयोग के सुझाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. त्रिभाषा फार्मूला एक ऐसा प्रावधान है जिसके साथ हिन्दी क्षेत्र ने हमेशा से बेईमानी की है. कोठारी शिक्षा आयोग द्वारा हिन्दी भाषी राज्यों के लिए स्पष्ट निर्देश था कि, “हिन्दी भाषी राज्य के लोग हिन्दी और अंग्रेजी के साथ दक्षिण की कोई एक आधुनिक भाषा अपनाएंगे और इसी के साथ अहिन्दी क्षेत्र के लोग एक अपनी राज्य की भाषा, एक अंग्रेजी और एक संघ की राजभाषा हिन्दी अपनाएंगे.“ किन्तु हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी और अंग्रेजी के साथ उर्दू या संस्कृत को अपना लिया और खुद दक्षिण वालों से हिन्दी पढ़ने की अपेक्षा करते रहे. यह गलत था. संस्कृत, चाहे जितनी भी समृद्ध हो किन्तु वह आधुनिक भाषा नहीं है और इसी तरह उर्दू और हिन्दी एक ही भाषा की दो शैलियाँ मात्र हैं. ये अलग- अलग जाति की भाषाएँ नहीं है. कोठारी आयोग द्वारा प्रस्तावित त्रिभाषा फार्मूला हमारे देश की भाषा समस्या को हल करने की दिशा में आज भी सर्वाधिक उपयुक्त फार्मूला है और जरूरत उसपर ईमानदारी से अमल करने की थी किन्तु ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020’ के माध्यम से इसे अब विस्थापित कर दिया गया है.
हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में त्रिभाषा फार्मूले की बात तो बार- बार की गई है किन्तु यहाँ त्रिभाषा से क्या तात्पर्य है- इस संबंध में कुछ भी स्पष्ट नहीं है. हाँ, अनुच्छेद- 4.17 में संस्कृत को ‘महत्वपूर्ण आधुनिक भाषा’ बताते हुए कहा गया है कि, “इस प्रकार संस्कृत को त्रि-भाषा के मुख्यधारा विकल्प के साथ, स्कूल और उच्चतर शिक्षा के सभी स्तरों पर छात्रों के लिए एक महत्वपूर्ण, समृद्ध विकल्प के रूप में पेश किया जाएगा.” ऐसी दशा में यदि बंगाल, गुजरात, केरल या तमिलनाडु के लोग अपने-अपने राज्यों की भाषाएँ क्रमश: बांग्ला, गुजराती, मलयालम और तमिल के साथ संस्कृत और एक विदेशी भाषा (अंग्रेजी) पढ़ें तो त्रिभाषा फार्मूले का समुचित अनुपालन माना जाएगा. इतना ही नहीं, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुच्छेद 4.13 में स्पष्ट कहा गया है कि, “तीन भाषा के इस फार्मूले में काफी लचीलापन रखा जाएगा और किसी भी राज्य पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी.” इस तरह त्रिभाषा फार्मूले में हिन्दी के लिए कोई जगह नहीं है. हिन्दी को उसके स्थान से पदच्युत कर दिया गया है. यह भी उल्लेखनीय है कि थोपी जाने का आरोप हमेशा हिन्दी को लेकर ही लगता रहा है. हम संस्कृत का सम्मान करते हैं. उसमें भारत की सांस्क़तिक विरासत है. उसका अध्ययन होना ही चाहिए किन्तु हिन्दी को हटाकर नहीं. वह हिन्दी का विकल्प नहीं है.
कोठारी शिक्षा आयोग का सुझाव था कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सम्पन्न वर्ग और गरीब जनता के बीच गहरी खाई पैदा हो गई है. इसमें एक ओर तो ऐसी शिक्षण संस्थाएँ हैं जिनमें अमीरों तथा सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से संपन्न लोगों के बच्चे पढ़ते हैं और दूसरी ओर सरकारी शिक्षण संस्थाएँ हैं जिनमें गरीब और दलित लोगों के बच्चे पढ़ते हैं. भारतीय सामाज के सर्वांगीण विकास तथा संविधान द्वारा निर्देशित सबको अवसर की समानता उपलब्ध कराने की दृष्टि से यह स्तर-भेद खत्म होना चाहिए. अत: सरकार को चाहिए कि सभी बच्चों को स्कूलों की एक सामान्य प्रणाली में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध कराए. प्राथमिक शिक्षा के लिए विशेष रूप से इसे पड़ोसी स्कूल का प्रतिमान अपनाना चाहिए, जिसमें सब बच्चे- चाहे वे किसी भी जाति, प्रजाति, धर्म, लिंग या वर्ण के हों- मोहल्ले के एक सामान्य प्राथमिक स्कूल में पढ़ने जाएँ.
राजस्थान के उदयपुर में एक निम्न मध्यवर्गीय जैन परिवार में दौलत सिंह कोठारी का जन्म हुआ था. उनके पिता का नाम फतेहलाल कोठारी और माँ का नाम लहर बाई था. पिता प्राइमरी स्कूल के अध्यापक थे. जब दौलतसिंह कोठारी 12 साल के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया. इसके बाद वे अपने पिता के मित्र के पास इंदौर आ गए. यहीं उनकी माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा हुई. इसके आगे की उनकी शिक्षा मेवाड़ के महाराणा द्वारा दी गई छात्रवृति से हुई. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भौतिकी में एमएससी की. यहाँ उनके गुरु विश्वविख्यात भौतिकविज्ञानी मेघनाथ साहा थे. इसके बाद शोध के लिए वे कैम्ब्रिज चले गए. वहाँ न्यूक्लियर फिजिक्स के फादर कहे जाने वाले लॉर्ड अर्न्स्ट रदरफोर्ड के निर्देशन में उन्होंने डॉक्टोरेट किया. इसके बाद कोठारी भारत लौट आए और 1934 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए.
लार्ड रदरफोर्ड ने दिल्ली विश्वविद्यालय के तत्कालीन वाइस चांसलर सर मॉरिस ग्वायर को लिखा था कि “मैं बिना हिचकिचाहट कोठारी को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त करना चाहता हूँ परंतु यह नौजवान पढ़ाई पूरी करके तुरंत देश लौटना चाहता है.”
डॉ. कोठारी 1961 तक दिल्ली विश्वविद्यालय में रहे. इस दौरान वे कुछ वर्ष तक भौतिकी के विभागाध्यक्ष भी रहे. प्रो. डी.एस. कोठारी भारत के महान वैज्ञानिकों में से थे. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की विज्ञान नीति में जो लोग शामिल थे उनमें होमी भाभा, डॉ. मेघनाथ साहा, सी.वी. रमन के साथ डॉ. डी.एस.कोठारी भी थे. वे 1948 से 1961 तक रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार थे तथा 1961 से 1973 तक यूजीसी के चेयरमैन थे. वे भारत की शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक और स्तरीय बनाने के लिए गठित पहले राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष थे. वे भारत में रक्षा विज्ञान के वास्तुकार थे. वे नवल कैमिकल एंड मेटैलर्जिकल लेबोरेट्री मुंबई, इंडियन नवल फिजिकल लेबोरेट्री कोच्ची, सेंटर फॉर फायर रिसर्च दिल्ली, सॉलिड स्टेट फिजिक्स लेबोरेट्री दिल्ली, डिफेंन्स फूड रिसर्च लेबोरेट्री मैसूर, डिफेन्स इंस्टीच्यूट ऑफ फिजिओलॉजी एंड एलॉयड साइंस चेन्नई, डाइरेक्टोरेट ऑफ साइकॉलाजिकल रिसर्च नई दिल्ली, डिफेन्स इलेक्ट्रॉनिक्स एंड रिसर्च लेबोरेट्री हैदराबाद, साइंटिफिक इवेलुएशन ग्रुप दिल्ली, टेक्निकल बैलिस्टिक रिसर्च लैबोरेट्री, चंडीगढ़ आदि भारत के अधिकाँश डीआरडीओ लैब के संस्थापक थे. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा एनसीईआरटी के गठन और स्थापना में उनकी केन्द्रीय भूमिका थी. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के चांसलर भी थे. इसके अलावा प्रो. कोठारी ने इंडियन साइंस कांग्रेस के गोल्डेन जुबली सेशन 1963 की अध्यक्षता की थी और वे इंडियन नेशनल साइंस अकादमी (1973) के भी अध्यक्ष चुने गए थे.
प्रेमपाल शर्मा ने लिखा है, “गाँधी, लोहिया के बाद आजाद भारत में भारतीय भाषाओं की उन्नति के लिए जितना काम डॉ. कोठारी ने किया उतना किसी अन्य ने नहीं. यदि सिविल सेवाओं की परीक्षा में अपनी भाषाओं में लिखने की छूट न दी जाती तो गाँव, देहात के गरीब और आदिवासी लोग उच्च सेवाओं में कभी नहीं जा पाते ..... शिक्षा आयोग की सिफारिशों के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1971 में यूनेस्को द्वारा डॉ. एडगर फाउर की अध्यक्षता में जब शिक्षा के विकास पर अंतरराष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया तब उन्होंने कोठारी आयोग की रिपोर्ट को ही आधार बनाया था. इस आयोग ने अगले दो दशकों तक दुनिया के विभिन्न देशों में शिक्षा के विकास पर कार्य किया.” ( भाषा का भविष्य, पृष्ठ-112)
प्रो. डी.एस.कोठारी के व्यक्तित्व के बारे में उनकी पौत्री दीपिका कोठारी ने ‘सुनहरी स्मृतियाँ’ नाम से एक पुस्तक लिखी है. इसमें वे अपने दादा के व्यक्तित्व के बारे में कहती हैं कि विश्वविद्यालय में रहते हुए जब भी वेतन बढ़ाने की माँग आती वे अपने सहकर्मियों को यही कहते, “ऐसे अवसर तुम्हें कहाँ मिलेंगे जहाँ तुम्हें अपनी पसंद का कार्य करने के लिए पैसा भी मिलता हो और रुचि का काम भी करने दिया जा रहा हो. उसकी कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी.” शिक्षा को वे अपने जीवन में शायद सबसे उँचा दर्जा देते थे. उन्हीं के शब्दों में “शिक्षण एक उत्कृष्ट कार्य है और किसी विश्वविद्यालय का शिक्षक होना उच्चतम अकादमिक सम्मान है.” इसीलिये जीवन पर्यन्त वे शिक्षा और शिक्षण से जुड़े रहे, कभी गुरू बनकर तो कभी विद्यार्थी बनकर. (उद्धृत, भाषा का भविष्य, पृष्ठ-113)
‘न्यूक्लियर एक्सप्लोजन्स एंड देयर इफेक्ट्स’, ‘ऐटम एंड सेल्फ’, ‘नॉलेज एंड विज्डम’, ‘शिक्षा विज्ञान और मानवीय मूल्य’, ‘विज्ञान और मानवता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं.
अनेक पुरस्कारों के साथ उन्हें भारत सरकार का पद्मभूषण और पद्मविभूषण सम्मान भी प्राप्त हुआ था.
हम प्रो. दौलतसिंह कोठारी की पुण्यतिथि पर उनके द्वारा हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए किए गए उनके कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हे श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.
- डॉ. अमरनाथ
(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)
भारत सरकार ने उच्च प्रशासनिक सेवाओं के लिये आयोजित सिविल सेवा परीक्षा की रिव्यू के लिए सन् 1974 में प्रो. डी.एस कोठारी ( 6.7.1906- 4.2.1993) की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई. इस कमेटी ने 1976 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी और उसी के आधार पर 1979 में भारत सरकार के उच्च पदों जैसे आईएएस, आईपीएस और बीस दूसरे विभागों के लिए एक सामान्य परीक्षा का आयोजन आरंभ हुआ. इसमें सबसे क्रान्तिकारी सुझाव अंग्रेजी सहित भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने का विकल्प था. देश भर में परीक्षा केन्द्र भी बढ़ाए गए जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में रहने वाले पिछड़े और वंचित अभ्यर्थी भी इस परीक्षा में शामिल हो सकें. इसका जो तत्काल परिणाम आया उसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है. बाद में दिन प्रति दिन हिन्दी सहित दूसरी भारतीय भाषाओं के माध्यम वाले अभ्यर्थी बढ़ते गए और ग्रामीण क्षेत्र के प्रतिभाशाली अभ्यर्थी भी इस प्रतिष्ठित सेवा में आने लगे. हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के क्षेत्र में यह ऐतिहासिक घटना थी जिसका व्यापक और दूरगामी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था.
कोठारी आयोग ने सुक्षाव दिया कि, “हम पूरे विश्वास से यह कहना चाहते हैं जो अभ्यर्थी अखिल भारतीय सेवाओं की नौकरी में आना चाहते हैं उन्हें आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं का ज्ञान होना अनिवार्य है. जिन्हें ये भाषाएँ नहीं आतीं वे सरकारी सेवाओं के लिए कत्तई उपयुक्त नहीं हैं. वास्तव में एक सही व्यक्तित्व के विकास के लिए यह जरूरी है कि हमारे नौजवानों को हमारी भाषाओं और उसके साहित्य का ज्ञान हो. इसलिए हमारी जोरदार सिफारिश है कि पहले और दूसरे चरण दोनों पर ही आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं की परीक्षा अनिवार्य हो.”(पैरा 3.22)
आयोग ने कहा कि, “हमने परीक्षाओं के संदर्भ में अंग्रेजी की बात पर भी विचार किया. अंग्रेजी का हमारे देश में एक महत्वपूर्ण स्थान है. यह अखिल भारतीय स्तर के प्रशासन के लिए संपर्क भाषा भी है. बहुत सारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी ही है. दुनिया भर के ताजा हालातों और विशेषकर विज्ञान और तकनीकी ज्ञान के लिए अंग्रेजी बहुत जरूरी भी है और इसीलिए अंग्रेजी का भी अनिवार्य पेपर होना चाहिए.” (पैरा 3.23)
सिविल सेवाओं में भारतीय भाषाओं की शुरुआत का असर था कि बाजार में विभिन्न विषयों में हिन्दी माध्यम की किताबें उपलब्ध होने लगीं. महत्वपूर्ण पुस्तकों के हिन्दी में अनुवाद होने लगे और बाजार ऐसी पुस्तकों से पट गया. राज्यों में विभिन्न भाषाओं की ग्रंथ अकादमियाँ स्थापित और सक्रिय होने लगीं.
हिन्दी के शुभचिन्तक आमतौर पर कहते हैं कि हिन्दी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा तभी मिलेगी जब उन्हें रोजगार से जोड़ा जाएगा. आजाद भारत में प्रो. डी.एस. कोठारी पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने भारतीय भाषाओं को रोजगार से जोड़ने का महान कार्य किया.
इसके पूर्व प्रो. डी. एस. कोठारी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) गठित हुआ था. इस शिक्षा आयोग के सचिव थे जे.पी.नायक (पुणे) और सह सचिव थे जे.एफ.मक्डौगल (यूनेस्को). आयोग के सदस्य थे ए.आर.डाउड (नई दिल्ली), एफ.एन.एल्विन (लंदन), आर.ए. गोपालस्वामी ( नई दिल्ली), वी.एस.झा ( लंदन), पी.एन. कृपाल, (शिक्षा सलाहकार, भारत सरकार), एम.वी.माथुर (राजस्थान विश्वविद्यालय), बी.पी. पाल ( नई दिल्ली), एस.पणंडीकर ( धारवाड़), सरोजर रेवेल्ले ( कैलीफोर्निया), के.जी.सईडेन ( शिक्षा सलाहकार, भारत सरकार), टी.सेन ( रेक्टर, यादवपुर यूनिवर्सिटी), जीन थामस ( यूनेस्को), एस.ए.शुमोवस्की ( मास्को) और सादातोशी इहारा( टोकियो). इसके अलावा दुनिया भर से शिक्षा-विशेषज्ञों के 20 सदस्यों का एक पेनल कंसल्टेंट भी नियुक्त था जिनमें जेम्स ई. एलेन ( यूएसए), सी.ई. बीबी ( हारवर्ड), पीएमएस बलैकेट (यूके), क्रिस्टोफर काक्स (यूके), फिलिप एच.कूम्ब्स (पेरिस), आंद्रे देनीरे ( हावर्ड), स्टेवान देदीजेर ( स्वीडेन), निकोलस डेविट (यूएसए) आदि प्रमुख हैं.
29 जून 1966 को इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और उसके बाद भी हर स्तर पर भरपूर चर्चा के बाद 24 जुलाई 1968 को भारत की यह प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गई. यह पूर्ण रूप से कोठारी आयोग के प्रतिवेदन पर ही आधारित थी. इसका लक्ष्य था सामाजिक दक्षता, राष्ट्रीय एकता एवं समाजवादी समाज की स्थापना. इसमें शिक्षा प्रणाली का रूपान्तरण कर 10+2+3 पद्धति पर कर दिया गया. हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित करने पर विशेष जोर दिया गया. सबके लिए शिक्षा के समान अवसर की उपलब्धता का ख्याल रखा गया. विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के साथ ही नैतिक व सामाजिक मूल्यों के विकास पर जोर दिया गया.
इस शिक्षा नीति की दो बातें बेहद चर्चित रहीं. पहली, समान विद्यालय व्यवस्था (कामन स्कूल सिस्टम) और दूसरी विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा अपनी भाषाओं में देने का प्रस्ताव.
आयोग के सुक्षाव लागू होने के बाद शिक्षा के सभी चरणों में, प्रादेशिक भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने का प्रयास हुआ. प्राथमिक शिक्षा को सिर्फ मातृभाषाओं के माध्यम से देने पर जोर दिया गया. कोठारी शिक्षा आयोग का सुक्षाव था कि प्राथमिक स्तर तक बच्चों को सिर्फ एक भाषा पढ़ाई जानी चाहिए और वह या तो मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा ही होनी चाहिए. आयोग का सुझाव था कि अंग्रेजी भाषा संसार से हमारे संपर्क का मुख्य माध्यम है और आधुनिक वैज्ञानिक युग के बढ़ते हुए ज्ञान को प्राप्त करने का भी मुख्य साधन है. इसलिए अंग्रेजी को प्रोत्साहन मिलना चाहिए और उसपर विशेष बल दिया जाना चाहिए. आयोग ने सुक्षाव दिया था कि गैर हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी के अध्ययन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि वह संघ की राजभाषा के रूप में अपना दायित्व निभा पाने में सक्षम हो सके और भारत की सभी भाषाओं के बीच सम्पर्क स्थापित करने में सहायक हो सके. आयोग ने सुझाव दिया कि पूरे देश में ईमानदारी से त्रिभाषा फार्मूला अपनाया जाना चाहिए.
कोठारी शिक्षा आयोग की शिक्षा नीति में हिन्दी और भारतीय भाषाओं को लेकर स्पष्ट निर्देश है. वहाँ ‘भाषाओं का विकास’ शीर्षक तीसरे अनुच्छेद में क्षेत्रीय भाषाओं, त्रिभाषा फार्मूला, हिन्दी, संस्कृत और अंतरराष्ट्रीय भाषाओं को लेकर अलग- अलग निर्देश है. यहाँ देश में शैक्षिक और सांस्कृतिक विकास के लिए भारतीय भाषाओं और उसके साहित्य के विकास को अनिवार्य शर्त के रूप में रेखांकित किया गया है और कहा गया है कि क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बिना न तो लोगों की रचनात्मक ऊर्जा निखरेगी, न तो शिक्षा का स्तर उन्नत होगा और न ज्ञान का आम जनता तक प्रसार हो सकेगा. बौद्धिक समुदाय और आम जनता के बीच की खाई भी यथावत बनी रहेगी. वहाँ कहा गया है कि देश में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में क्षेत्रीय भाषाएँ पहले से ही प्रयोग में हैं, इन्हें विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है.
त्रिभाषा फार्मूला को लेकर कोठारी शिक्षा आयोग के सुझाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. त्रिभाषा फार्मूला एक ऐसा प्रावधान है जिसके साथ हिन्दी क्षेत्र ने हमेशा से बेईमानी की है. कोठारी शिक्षा आयोग द्वारा हिन्दी भाषी राज्यों के लिए स्पष्ट निर्देश था कि, “हिन्दी भाषी राज्य के लोग हिन्दी और अंग्रेजी के साथ दक्षिण की कोई एक आधुनिक भाषा अपनाएंगे और इसी के साथ अहिन्दी क्षेत्र के लोग एक अपनी राज्य की भाषा, एक अंग्रेजी और एक संघ की राजभाषा हिन्दी अपनाएंगे.“ किन्तु हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी और अंग्रेजी के साथ उर्दू या संस्कृत को अपना लिया और खुद दक्षिण वालों से हिन्दी पढ़ने की अपेक्षा करते रहे. यह गलत था. संस्कृत, चाहे जितनी भी समृद्ध हो किन्तु वह आधुनिक भाषा नहीं है और इसी तरह उर्दू और हिन्दी एक ही भाषा की दो शैलियाँ मात्र हैं. ये अलग- अलग जाति की भाषाएँ नहीं है. कोठारी आयोग द्वारा प्रस्तावित त्रिभाषा फार्मूला हमारे देश की भाषा समस्या को हल करने की दिशा में आज भी सर्वाधिक उपयुक्त फार्मूला है और जरूरत उसपर ईमानदारी से अमल करने की थी किन्तु ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020’ के माध्यम से इसे अब विस्थापित कर दिया गया है.
हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में त्रिभाषा फार्मूले की बात तो बार- बार की गई है किन्तु यहाँ त्रिभाषा से क्या तात्पर्य है- इस संबंध में कुछ भी स्पष्ट नहीं है. हाँ, अनुच्छेद- 4.17 में संस्कृत को ‘महत्वपूर्ण आधुनिक भाषा’ बताते हुए कहा गया है कि, “इस प्रकार संस्कृत को त्रि-भाषा के मुख्यधारा विकल्प के साथ, स्कूल और उच्चतर शिक्षा के सभी स्तरों पर छात्रों के लिए एक महत्वपूर्ण, समृद्ध विकल्प के रूप में पेश किया जाएगा.” ऐसी दशा में यदि बंगाल, गुजरात, केरल या तमिलनाडु के लोग अपने-अपने राज्यों की भाषाएँ क्रमश: बांग्ला, गुजराती, मलयालम और तमिल के साथ संस्कृत और एक विदेशी भाषा (अंग्रेजी) पढ़ें तो त्रिभाषा फार्मूले का समुचित अनुपालन माना जाएगा. इतना ही नहीं, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुच्छेद 4.13 में स्पष्ट कहा गया है कि, “तीन भाषा के इस फार्मूले में काफी लचीलापन रखा जाएगा और किसी भी राज्य पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी.” इस तरह त्रिभाषा फार्मूले में हिन्दी के लिए कोई जगह नहीं है. हिन्दी को उसके स्थान से पदच्युत कर दिया गया है. यह भी उल्लेखनीय है कि थोपी जाने का आरोप हमेशा हिन्दी को लेकर ही लगता रहा है. हम संस्कृत का सम्मान करते हैं. उसमें भारत की सांस्क़तिक विरासत है. उसका अध्ययन होना ही चाहिए किन्तु हिन्दी को हटाकर नहीं. वह हिन्दी का विकल्प नहीं है.
कोठारी शिक्षा आयोग का सुझाव था कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सम्पन्न वर्ग और गरीब जनता के बीच गहरी खाई पैदा हो गई है. इसमें एक ओर तो ऐसी शिक्षण संस्थाएँ हैं जिनमें अमीरों तथा सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से संपन्न लोगों के बच्चे पढ़ते हैं और दूसरी ओर सरकारी शिक्षण संस्थाएँ हैं जिनमें गरीब और दलित लोगों के बच्चे पढ़ते हैं. भारतीय सामाज के सर्वांगीण विकास तथा संविधान द्वारा निर्देशित सबको अवसर की समानता उपलब्ध कराने की दृष्टि से यह स्तर-भेद खत्म होना चाहिए. अत: सरकार को चाहिए कि सभी बच्चों को स्कूलों की एक सामान्य प्रणाली में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध कराए. प्राथमिक शिक्षा के लिए विशेष रूप से इसे पड़ोसी स्कूल का प्रतिमान अपनाना चाहिए, जिसमें सब बच्चे- चाहे वे किसी भी जाति, प्रजाति, धर्म, लिंग या वर्ण के हों- मोहल्ले के एक सामान्य प्राथमिक स्कूल में पढ़ने जाएँ.
राजस्थान के उदयपुर में एक निम्न मध्यवर्गीय जैन परिवार में दौलत सिंह कोठारी का जन्म हुआ था. उनके पिता का नाम फतेहलाल कोठारी और माँ का नाम लहर बाई था. पिता प्राइमरी स्कूल के अध्यापक थे. जब दौलतसिंह कोठारी 12 साल के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया. इसके बाद वे अपने पिता के मित्र के पास इंदौर आ गए. यहीं उनकी माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा हुई. इसके आगे की उनकी शिक्षा मेवाड़ के महाराणा द्वारा दी गई छात्रवृति से हुई. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भौतिकी में एमएससी की. यहाँ उनके गुरु विश्वविख्यात भौतिकविज्ञानी मेघनाथ साहा थे. इसके बाद शोध के लिए वे कैम्ब्रिज चले गए. वहाँ न्यूक्लियर फिजिक्स के फादर कहे जाने वाले लॉर्ड अर्न्स्ट रदरफोर्ड के निर्देशन में उन्होंने डॉक्टोरेट किया. इसके बाद कोठारी भारत लौट आए और 1934 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए.
लार्ड रदरफोर्ड ने दिल्ली विश्वविद्यालय के तत्कालीन वाइस चांसलर सर मॉरिस ग्वायर को लिखा था कि “मैं बिना हिचकिचाहट कोठारी को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त करना चाहता हूँ परंतु यह नौजवान पढ़ाई पूरी करके तुरंत देश लौटना चाहता है.”
डॉ. कोठारी 1961 तक दिल्ली विश्वविद्यालय में रहे. इस दौरान वे कुछ वर्ष तक भौतिकी के विभागाध्यक्ष भी रहे. प्रो. डी.एस. कोठारी भारत के महान वैज्ञानिकों में से थे. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की विज्ञान नीति में जो लोग शामिल थे उनमें होमी भाभा, डॉ. मेघनाथ साहा, सी.वी. रमन के साथ डॉ. डी.एस.कोठारी भी थे. वे 1948 से 1961 तक रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार थे तथा 1961 से 1973 तक यूजीसी के चेयरमैन थे. वे भारत की शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक और स्तरीय बनाने के लिए गठित पहले राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष थे. वे भारत में रक्षा विज्ञान के वास्तुकार थे. वे नवल कैमिकल एंड मेटैलर्जिकल लेबोरेट्री मुंबई, इंडियन नवल फिजिकल लेबोरेट्री कोच्ची, सेंटर फॉर फायर रिसर्च दिल्ली, सॉलिड स्टेट फिजिक्स लेबोरेट्री दिल्ली, डिफेंन्स फूड रिसर्च लेबोरेट्री मैसूर, डिफेन्स इंस्टीच्यूट ऑफ फिजिओलॉजी एंड एलॉयड साइंस चेन्नई, डाइरेक्टोरेट ऑफ साइकॉलाजिकल रिसर्च नई दिल्ली, डिफेन्स इलेक्ट्रॉनिक्स एंड रिसर्च लेबोरेट्री हैदराबाद, साइंटिफिक इवेलुएशन ग्रुप दिल्ली, टेक्निकल बैलिस्टिक रिसर्च लैबोरेट्री, चंडीगढ़ आदि भारत के अधिकाँश डीआरडीओ लैब के संस्थापक थे. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा एनसीईआरटी के गठन और स्थापना में उनकी केन्द्रीय भूमिका थी. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के चांसलर भी थे. इसके अलावा प्रो. कोठारी ने इंडियन साइंस कांग्रेस के गोल्डेन जुबली सेशन 1963 की अध्यक्षता की थी और वे इंडियन नेशनल साइंस अकादमी (1973) के भी अध्यक्ष चुने गए थे.
प्रेमपाल शर्मा ने लिखा है, “गाँधी, लोहिया के बाद आजाद भारत में भारतीय भाषाओं की उन्नति के लिए जितना काम डॉ. कोठारी ने किया उतना किसी अन्य ने नहीं. यदि सिविल सेवाओं की परीक्षा में अपनी भाषाओं में लिखने की छूट न दी जाती तो गाँव, देहात के गरीब और आदिवासी लोग उच्च सेवाओं में कभी नहीं जा पाते ..... शिक्षा आयोग की सिफारिशों के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1971 में यूनेस्को द्वारा डॉ. एडगर फाउर की अध्यक्षता में जब शिक्षा के विकास पर अंतरराष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया तब उन्होंने कोठारी आयोग की रिपोर्ट को ही आधार बनाया था. इस आयोग ने अगले दो दशकों तक दुनिया के विभिन्न देशों में शिक्षा के विकास पर कार्य किया.” ( भाषा का भविष्य, पृष्ठ-112)
प्रो. डी.एस.कोठारी के व्यक्तित्व के बारे में उनकी पौत्री दीपिका कोठारी ने ‘सुनहरी स्मृतियाँ’ नाम से एक पुस्तक लिखी है. इसमें वे अपने दादा के व्यक्तित्व के बारे में कहती हैं कि विश्वविद्यालय में रहते हुए जब भी वेतन बढ़ाने की माँग आती वे अपने सहकर्मियों को यही कहते, “ऐसे अवसर तुम्हें कहाँ मिलेंगे जहाँ तुम्हें अपनी पसंद का कार्य करने के लिए पैसा भी मिलता हो और रुचि का काम भी करने दिया जा रहा हो. उसकी कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी.” शिक्षा को वे अपने जीवन में शायद सबसे उँचा दर्जा देते थे. उन्हीं के शब्दों में “शिक्षण एक उत्कृष्ट कार्य है और किसी विश्वविद्यालय का शिक्षक होना उच्चतम अकादमिक सम्मान है.” इसीलिये जीवन पर्यन्त वे शिक्षा और शिक्षण से जुड़े रहे, कभी गुरू बनकर तो कभी विद्यार्थी बनकर. (उद्धृत, भाषा का भविष्य, पृष्ठ-113)
‘न्यूक्लियर एक्सप्लोजन्स एंड देयर इफेक्ट्स’, ‘ऐटम एंड सेल्फ’, ‘नॉलेज एंड विज्डम’, ‘शिक्षा विज्ञान और मानवीय मूल्य’, ‘विज्ञान और मानवता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं.
अनेक पुरस्कारों के साथ उन्हें भारत सरकार का पद्मभूषण और पद्मविभूषण सम्मान भी प्राप्त हुआ था.
हम प्रो. दौलतसिंह कोठारी की पुण्यतिथि पर उनके द्वारा हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए किए गए उनके कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हे श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.
- डॉ. अमरनाथ
(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)
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