वसंत पञ्चमी : देवकी देवरा वसंत पञ्चमी भारत वर्ष के महत्वपूर्ण त्योंहारों में से एक है, और हो भी क्यों नहीं। जो दिन आर्थिक, सामाजिक , धार्मिक, शारीरिक एवं सभी तरह की आनेवाली खुशियों का सन्देश लेकर आता है, वह महत्वपूर्ण तो होगा ही।चारों तरफ फूलों की महक फैलाने वाली, खुशियाली बिखेरनेवाली वसंत ऋतू का आगमन इसी दिन से होता है।भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने श्रीमुख से जिस ऋतू को अपने समकक्ष बताया हो उसकी महिमा कौन बता सकता है। श्रीमद्भगवत गीता के अध्याय 10 के श्लोक 35 में भगवान् अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को बताते है, "बृहत्साम तथा साम्नाम् गायत्री छन्दसामहं। मासानाम् मार्गशीर्षोअहम्ऋतूनाम् कुसुमाकरः"।।35।। यानि मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ, छन्दों में मैं गायत्री हूँ। महीनों में मैं मार्गशीर्ष और ऋतुओं में मैं फूलों की जननी वसंत हूँ।। मान्यताओं के अनुसार यह देवी सरस्वती का जन्मदिन है। कंही कंही यह भी वर्णन आया है कि यह माँ महालक्ष्मी का भी जन्मदिवस है। इसीलिए इसे सरस्वती पूजन दिवस और श्री पञ्चमी भी कहा जाता है। देवी सरस्वती ज्ञान, विद्या, वाणी और बुद्धि की प्रणेता है। हमारे आचार, व्यवहार और मनोवृत्तयों को संरक्षण प्रदान करती है। इसीलिए वसंत पञ्चमी के दिन माँ सरस्वती के पूजन अर्चन का विशेष महत्व बताया गया है। बहुत से स्कूल कोलेजों में भी आज के दिन विद्यार्थियों को सरस्वती-वंदना करवाई जाती है। छोटे बच्चों के विद्या आरम्भ के लिए आज का दिन सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। वसंत पंचमी के दिन छोटे बच्चों की जीभ पर सहद से ॐ लिख कर औपचारिक़ शिक्षा का शुभ-आरम्भ किया जाता है। सामूहिक पूजाओं का भी आयोजन वसंत पञ्चमी के दिन किया जाता है। बिना माँ सरस्वती के आशीर्वाद के न तो किसी को ज्ञान की प्राप्ति होती है और न ही प्राप्त ज्ञान की अभिव्यक्ति की जा सकती है। इसीलिए वसंत पञ्चमी के दिन माँ सरस्वती का पूजन अर्चन सभी जगह धूम धाम से किया जाता है। धार्मिक दृष्टिकोण से तो यह दिन बहुत ही शुभ एवं समृद्धि -प्रदायक है ही, इस दिन नये कार्य को प्रारम्भ करने के लिए किसी मुहूर्त की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। लेकिन सामाजिक, आर्थिक, स्वास्थ्य और वैज्ञानिक दृष्टि से भी वसंत पञ्चमी का बहुत महत्व है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी को वसंत पञ्चमी कहा जाता है। वसंत ऋतू के आगमन की सूचना देता यह दिन उत्साह और उमंगों से भरा आता है।मार्गशीश और पौष की जकड़न भरी ठण्ड से निज़ाद दिलाकर गुलाबी ठण्ड में परिवर्तित करने वाला मौषम साथ लेकर आता है । शारीरिक दृष्टि से न केवल आनन्द का मौषम बल्कि सर्दी जुखाम बुखार आदि कई बिमारियों के डर से भी छुटकारा दिलाने की शुरुवात इसी दिन से होती है। चारों ओर फूल खिलने लगते है, नयी फसलों की शुरुवात हो जाती है। मानों यह दिन नयी चेतना का ही संचार करने वाला दिन है। हर तरफ हरियाली और खुशियाली बिखेरने के लिए ही इस ऋतू को ऋतुराज वसंत कहा जाता है। वसंत पञ्चमी इस खुशनुमा ऋतू की पूर्व सूचना देने वाली सन्देश वाहक है। इसीलिए इस दिन सभी लोग अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और उम्मीदों को बड़े उत्साह से प्रदर्शित करते है। राजस्थान में ढप (चंग नृत्य) बहुत मशहूर है। यह होलीकोत्सव के समय अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है, लेकिन इसकी शुरुवात वसंत पञ्चमी से ही की जाती है। खिलखिलाते हुए खेतोँ को देख मन प्रसन्नता से झूमने लगता है, और किसान खेत में ही लोक गीत और ढ़प की ताल पर नाच उठता है। किसान को आने वाले दिनों में अपनी फसल से आर्थिक तंगी दूर होती हुयी लगने लगती है। सरसों के फूलों से धरती सोने से आच्छादित हो गयी हो ऐसा प्रतीत होता है । इसीलिए पीले रंग को वसंती भी कहा जाता है। हर जगह इस त्योंहार को मनाने के तरीके अलग होते है लेकिन उत्साह और उमंग सभी जगह भरपूर देखने को मिलते है। जैसे राजस्थान में ढप (चँग ) की विशेषता है, वैसे ही गुजरात में पतंगोत्सव का बहुत महत्व है। मकर सकरान्ति से शुरू हुआ यह पर्व वसंत पञ्चमी के दिन परवान् पर चढ़ जाता है, सभी ओर पतंगे ही पतेंगे दिखाई देती है। पूरे भारत में वसंत पञ्चमी का त्योंहार बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। वसंत पञ्चमी के दिन कोई गाकर, कोई बजाकर, कोई पतंग उड़ाकर और कोई विशेष पूजाओं का आयोजन कर मन में उभरती हुयी आशाओं और उम्मीदों को मूर्तरूप प्रदान करता है।
वसंत पंचमी आजकल सुबह-सुबह जब हम टहलने निकलते हैं, तो गमलों में, पौधों पर नन्हीं नन्हीं कलियाँ, छोटे-छोटे कोमल पत्ते दिखलाई देते हैं। चिड़ियों की चहचहाट सुनाई देती है, जो ठंड के मारे अब तक कहीं दुबकी बैठी थीं। रंग-बिरंगी तितलियाँ फूलों पर मंडराती दिखलाई देती हैं। मौसम सुहावना होने लगता है और हाड़ कंपाती ठंड धीरे-धीरे जाने लगती है। प्रकृति का यही बदलाव बसंत ऋतु के आगमन की सूचना देता है, जिसके स्वागत में हम बसंत पंचमी मनाते हैं। प्रति वर्ष माघ महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी को पूरे भारत में उमंग और उल्लास के साथ यह त्यौहार मनाया जाता है। बसंत को ऋतु राज भी कहा जाता है क्योंकि यह वर्ष का सबसे सुहावना समय होता है न कड़कड़ाती ठंड, न तनमन झुलसाने वाली गर्मी और न हीं जल-थल एक करने वाली वर्षा। हमारे यहाँ प्रायः सभी त्यौहार पर्यावरण में आने वाले बदलाव के सूचक होते हैं। हर तरफ पेड़ पौधों पर नई पत्तियाँ-कलियाँ, फूल खिलने लगते हैं। आम के पेड़ों पर बौर आ जाते हैं और कोयल कूकने लगती है। खेतों में सरसों की फसल लहलहाने लगती है, और सारी धरती पीली नजर आती है। पीला रंग उत्साह, उमंग और उल्लास का रंग है। प्रकृति इस समय अपने पूर्ण श्रृंगार में नजर आती है। झरने, नदियाँ जो भीषण ठंड से जम गये थे, फिर से गतिमान हो जाते हैं। बसंत पंचमी के ही दिन संगीत-कला और ज्ञान की देवी सरस्वती का उद्भव हुआ था, जिनके एक हाथ में वीणा थी और एक हाथ में पुस्तक थी। ऐसा माना जाता है वीणा वादिनी माँ शारदा की वीणा के तारों की झंकार ने ही सृष्टि को वाणी दी, चेतना दी। इस दिन कलाकारों और लेखकों द्वारा सरस्वती की आराधना का उतना ही महत्व है, जितना दीपावली के अवसर पर व्यापारियों द्वारा लक्ष्मी पूजन का माँ सरस्वती की पूजा पीले वस्त्र पहन कर पीले पुष्प अर्पित करके की जाती है। हमारे यहाँ वसंत पंचमी का उत्सव मदनोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है इस दिन गणेश पूजन के पश्चात् रति और प्रेम के देवता कामदेव का भी पूजन किया जाता है, जिससे गृहस्थ जीवन सुखमय होता है और फिर मौसम का सुहावना होना भी मौसम को आशिकाना बना देता है। शायद तभी “बधाई हो" फिल्म जैसी स्थिति प्रौढ़ावस्था में भी आ जाती है। कामदेव के पाँच बाण (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) प्रकृति संसार में अभिसार को आमंत्रित करते हैं, यानि युगल प्रेमियों के मिलन को । लगभग यही समय होता है जब पश्चिमी देशों की देखा-देखी, हमारे देश में भी “वेलंटाईन डे” की धूम मच जाती है। बाजारों में, होटलों में और सड़कों पर। प्रायः बसंत पंचमी और वेलंटाईन डे पास-पास में ही आते हैं और हमारी नई पीढ़ी अपने वसंतोत्सव को भूल पाश्चात्य संस्कृति को अपना रही है। वास्तव में वेलंटाईन डे हमारे पारंपारिक वसंतोत्सव का ही पश्चिमी स्वरूप है। बसंत पंचमी से जुड़ी हुई अनेक कहानियाँ हैं धार्मिक भी और ऐतिहासिक भी। त्रेता युग में जब भगवान राम, सीता को ढूंढ़ते हुए दण्डाकारण्य में पहुँचे तो शबरी के जूठे बेर जिस दिन खाये थे उस दिन बसंत पंचमी ही थी। इसलिये जिस शिला पर बैठकर भगवान ने बेर खाए थे उसका पूजन आज भी मध्य प्रदेश में बसंत पंचमी के दिन किया जाता है। दूसरी ऐतिहासिक कहानी है, जो पृथ्वीराज चौहान की याद दिलाती है, जिस पर मुहम्मद गौरी ने १६ बार हमला किया था और हर बार पराजित हुआ, लेकिन पृथ्वीराज ने उसे उदारता-वश हर बार जीवन दान दिया। लेकिन जब सत्रहवीं बार हमला हुआ तो पृथ्वीराज पराजित हो गये और मुहम्मद गौरी उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और वहाँ उनकी आँखे फोड़ दीं। लेकिन गौरी ने मृत्युदण्ड देने से पहले उनके शब्द भेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चन्द्र बरदाई के परामर्श पर सुलतान ने एक ऊँची चट्टान पर बैठकर एक तवे पर जोर से प्रहार किया, तब चन्द्र बरदाई ने पृथ्वीराज को इस दोहे के रूप में संकेत दिया - चार बांस, चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता उपर सुल्तान है, मत चूको चौहान। इस इशारे को समझकर पृथ्वीराज चौहान ने जो बाण चलाया वो सीधा मुहम्मद गौरी की छाती में लगा। लेकिन चारों ओर दुश्मनों से घिरे हुए दोनों ने एक-दूसरे के पेट में छुरा झोंक कर आत्मबलिदान दिया। यह घटना सन् ११९२ के बसंत पंचमी के दिन घटी थी। शायद इसीलिये तो नहीं है शहीदों का नारा “मेरा रंग दे बसंती चोला..."
मातृभूमि की रक्षा और राष्ट्र निर्माण को समर्पित सुहासिनी गांगुली भारत की आजादी के लिए लगा दिया अपना संपूर्ण जीवन जन्म : 3 फरवरी 1909, मृत्यु : 23 मार्च 1965 भारतवर्ष की स्वतंत्रता का सपना देखने और इसके लिए अपना संपूर्ण जीवन लगा देने वाली महान स्वतंत्रता सेनानी सुहासिनी गांगुली का जन्म 3 फरवरी 1909 को अविभाजित बंगाल के खुलना जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम अविनाशचंद्र गांगुली और माता का नाम सरला सुंदरा देवी था। उन्होंने 1924 में ढाका ईडन स्कूल से अपनी मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की। बाद में वह मूक और बधिर बच्चों के एक विशेष विद्यालय में पढ़ाने के लिए कलकत्ता चली गईं। माना जाता है कि वहां रहने के दौरान वह प्रीतिलता वाड्डेदार और कमला दास गुप्ता के संपर्क में आईं जिन्होंने उन्हें जुगांतर क्रांतिकारी समूह का हिस्सा बनने के लिए प्रोत्साहित किया। जुगांतर समूह में शामिल होने के बाद उन्होंने ‘छात्री संघ’ नामक एक संगठन के लिए भी काम करना शुरू कर दिया। इसी दौरान समान विचारधारा और भारत की स्वतंत्रता की इच्छा रखने वाले लोगों से उनका परिचय हुआ। इस बीच सुहासिनी गांगुली की सक्रियता के कारण अंग्रेज उन पर कड़ी नजर रखने लगे थे। ऐसे में उनके लिए कलकत्ता से बाहर काम करना बहुत मुश्किल हो गया था। चटगांव विद्रोह के बाद जुगांतर पार्टी के कई सदस्यों को छिपने के लिए मजबूर होना पड़ा। ऐसे में सुहासिनी गांगुली को भी गिरफ्तारी के डर से चंदननगर में शरण लेनी पड़ी, जो फ्रांसीसियों के नियंत्रण में था। वहां वह क्रांतिकारी शशिधर आचार्य की छद्म धर्मपत्नी के तौर पर रहने लगीं। वहां वह एक स्कूल में नौकरी करने लगी और सभी क्रांतिकारियों के बीच सुहासिनी दीदी के तौर पर पहचानी जाने लगी। हालांकि, अंग्रेजों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और चंदननगर के उनके घर पर ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों की एक टीम ने छापा मारा। इसके बाद, सुहासिनी गांगुली, शशिधर आचार्य और गणेश घोष को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें खड़गपुर के पास हिजली कारावास शिविर में छह साल तक रखा गया। आगे चलकर यही हिजली डिटेंशन कैंप खड़गपुर आईआईटी का कैंपस बना। हिजली से अपनी रिहाई के बाद, गांगुली ने देश की आजादी के लिए अपना संघर्ष जारी रखा। वह आधिकारिक तौर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़ गईं और उन्होंने पार्टी के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया। भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले एक क्रांतिकारी हेमंत तराफदार को आश्रय देने की वजह से सुहासिनी गांगुली को फिर से जेल में डाल दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद वह धनबाद के एक आश्रम में रहने लगी और आजादी के बाद अपना सारा जीवन सामाजिक, आध्यात्मिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। 23 मार्च 1965 को एक सड़क दुर्घटना में सुहासिनी गांगुली का निधन हो गया। अब्बास तैयबजी डांडी मार्च के नायक ‘छोटा गांधी’ जन्म : 1 फरवरी, 1854, मृत्यु : 9 जून 1936 अब्बास तैयबजी के बारे में कहा जाता है कि वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बहुत करीबी थे। यही कारण है कि उन्होंने महात्मा गांधी के साथ वर्षों काम किया और लोग उन्हें प्यार से ‘छोटा गांधी’ कह कर बुलाते थे। स्वतंत्रता सेनानी और महान देशभक्त अब्बास तैयबजी का जन्म 1 फरवरी, 1854 को गुजरात के वडोदरा में हुआ था। पढ़ाई के लिए अब्बास तैयबजी इंग्लैंड गए और वहां से वकालत की डिग्री लेकर भारत लौटे। इसके बाद वह वकालत करने लगे और फिर वडोदरा के चीफ जस्टिस बनाए गए। 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड की जांच के लिए कांग्रेस ने एक जांच समिति गठित की जिसका अध्यक्ष अब्बास तैयबजी को नियुक्त किया गया। कहा जाता है कि वह एक संपन्न परिवार से आते थे लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड का प्रभाव उनके मन मस्तिष्क पर ऐसा पड़ा कि उन्होंने अपने सारे पश्चिमी परिधान जला दिए। साथ ही, उन्होंने अंग्रेजों की बनाई वस्तुओं का भी बहिष्कार कर दिया और राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। अब्बास तैयबजी के बारे में माना जाता है कि वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बहुत करीबी थे। यही कारण है कि उन्होंने महात्मा गांधी के साथ वर्षों काम किया और लोग उन्हें प्यार से ‘छोटा गांधी’ कह कर बुलाते थे। उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों को फैलाने का संकल्प लिया। विचारों के प्रसार के इसी संकल्प के तहत उन्होंने बैलगाड़ी से भ्रमण शुरू किया और खादी के कपड़े तक बेचे। महात्मा गांधी के उन पर भरोसे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने डांडी मार्च निकालने का निर्णय लिया तब उनकी गिरफ्तारी की स्थिति में उस मार्च के नेतृत्व के लिए जिस व्यक्ति को नामित किया गया वह कोई और नहीं बल्कि अब्बास तैयबजी ही थे। अब्बास तैयबजी की गिरफ्तारी के बाद सरोजिनी नायडू को सत्याग्रह के नेतृत्व के लिये नामित किया गया था। अब्बास तैयबजी दांडी मार्च नमक सत्याग्रह में सक्रिय रूप से शामिल हो कर ब्रिटिश सरकार का जमकर विरोध किया था। इतना ही नहीं, अब्बास तैयबजी ने महात्मा गांधी के आह्वान पर देश में होने वाले सभी छोटे-बड़े आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की और अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे। उन्होंने 1928 में, बारडोली सत्याग्रह में सरदार वल्लभभाई पटेल का भी समर्थन किया था। वह हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर रहे और यही कारण है कि उन्होंने हमेशा इनकी एकता पर बल दिया। इस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने 9 जून 1936 को मसूरी में अंतिम सांस ली। महात्मा गांधी ने उनकी याद में “हरिजन” अखबार में “ग्रांड ओल्ड मैन ऑफ गुजरात” नाम की हेडिंग से एक लेख लिखा था जिसमें उन्हें मानवता का दुलर्भ सेवक कहा था। दांडी मार्च की याद में दिल्ली के सरदार पटेल मार्ग-मदर टेरेसा क्रिसेंट पर 'ग्यारह मूर्ति' स्थापित की गई थी। ग्यारह मूर्ति में महात्मा गांधी, मातंगीनी हजरा, सरोजनी नायडू के साथ-साथ अब्बास तैयबजी को भी दिखाया गया है। बद्रीदत्त पांडेय जिन्होंने उत्तरायणी मेले में कुली बेगार प्रथा का किया अंत जन्म : 15 फरवरी 1882, मृत्यु : 13 जनवरी 1965 पत्रकारिता से जन आंदोलन शुरू करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बद्रीदत्त पांडेय का जन्म 15 फरवरी 1882 को वर्तमान उत्तराखंड के हरिद्वार जिले में हुआ था। उन्होंने अल्मोड़ा में रहकर देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और कई बार जेल गए। जब वह केवल सात साल के थे तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया था। इसके बाद वह अपनी पढ़ाई पूरी होने तक अल्मोड़ा में रहे और 1903 में नैनीताल में एक शिक्षक के रूप में कार्य करना शुरू किया। साथ ही उन्होंने पत्रकारिता शुरू की और 1903 से 1910 के बीच ‘लीडर’ अखबार में काम किया। स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान देने के लिए उन्होंने 1913 में ‘अल्मोड़ा अखबार’ की स्थापना की। हालांकि, ब्रिटिश-विरोधी खबरें छपने के कारण अधिकारियों ने अखबार को जबरन बंद करा दिया। 15 अक्टूबर 1918 को उन्होंने ‘शक्ति’ नाम से एक क्रांतिकारी अखबार की शुरुआत की। 1921 में बागेश्वर कस्बे में रहने वाली कुमाऊं की आम जनता ने एक अहिंसात्मक आंदोलन शुरू किया जिसे ‘कुली बेगार’ के नाम से जाना गया। कुली बेगार एक ऐसा कानून था जिसमें कुमाऊं की पहाड़ियों में रहने वाले स्थानीय लोगों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया था कि वह यात्रा करने आए अंग्रेज अधिकारियों, सैनिकों, सर्वेक्षकों आदि का सामान मुफ्त में ढोएंगे। यह शोषक प्रथा लोगों को बिना किसी भुगतान के बेगार करने पर मजबूर करती थी। ग्राम प्रधान से यह उम्मीद की जाती थी कि वह खास समयावधि में कई कुली मुहैया कराएगा। इसके लिए एक खाता बनाया जाता था जिसमें ग्रामीणों के नाम दर्ज किए जाते थे। अंग्रेज शारीरिक और मानसिक शोषण कर रहे थे। ऐसे में गांव के लोगों ने इस अपमानजनक प्रथा के खिलाफ विद्रोह करना शुरू कर दिया। 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी त्योहार के दौरान, सरयू और गोमती नदी के संगम पर कुली बेगार आंदोलन की शुरुआत हुई। सरयू मैदान में एक सभा हुई जिसमें, बद्रीदत्त पांडेय ने शपथ ली कि हम प्रतिज्ञा करते हैं कि हम कुली उतार, कुली बेगार और कुली बरदायश को अब बर्दाश्त नहीं करेंगे। एकत्रित हुए सभी लोगों ने प्रतिज्ञा ली और भारत माता का नारा लगाते हुए गांव के बुजुर्गों ने बेगार के खातों को नदियों के संगम में बहा दिया। इस प्रकार अंग्रेजों पर दबाव बनाया गया और यह परंपराएं खत्म कर दी गईं। इस आंदोलन की सफलता के बाद बद्रीदत्त पांडेय को ‘कुमाऊं केसरी’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। कहा जाता है कि महात्मा गांधी ने इस आंदोलन को 'रक्तहीन क्रांति' का नाम दिया था। 30 दिसंबर 2021 को हल्द्वानी में कई परियोजनाओं के उद्घाटन और शिलान्यास समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बद्रीदत्त पांडेय को याद किया था। उन्होंने कहा था, “देश की आजादी में भी कुमाऊं ने बहुत बड़ा योगदान दिया है। यहां पंडित बद्रीदत्त पांडेय जी के नेतृत्व में, उत्तरायणी मेले में कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ था।” 1955 में बद्रीदत्त पांडेय अल्मोड़ा के सांसद बने। 13 जनवरी 1965 को उनका निधन हो गया। दामोदर स्वरूप सेठ बांस बरेली के सरदार थे स्वतंत्रता सेनानी जन्म : 11 फरवरी 1901, मृत्यु 1965 प्रसिद्ध क्रांतिकारी एवं देशभक्त दामोदर स्वरूप सेठ का जन्म उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में 11 फरवरी 1901 को हुआ था। देश को आजाद कराने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया और आजादी की लड़ाई में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। वह शुरू से क्रांतिकारी विचार के थे और जब वह पढ़ाई के लिए इलाहाबाद गए तो वहीं क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। पढ़ाई के बाद वह चंद्रशेखर आजाद की हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी से जुड़ गए। दामोदर स्वरूप सेठ के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद भी उनका बहुत सम्मान करते थे। माना जाता है कि बनारस षड्यंत्र केस और काकोरी षड्यंत्र मामले में भी उनका नाम आया था और अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार भी किया था। हालांकि, सरकार उन पर अभियोग सिद्ध नहीं कर पाई और ऐसे में उन्हें रिहा कर दिया गया। बाद में वह कांग्रेस पार्टी से जुड़ गए। कहा जाता है कि सेठ दामोदर स्वरूप छरहरे बदन के थे। ऐसे में अंग्रेज सरकार के खिलाफ पर्चे चिपकाने का काम इन्हें ही मिलता था। अंग्रेज उन्हें पकड़ने आते तो दुबले-पतले होने की वजह से बचकर भाग निकलते थे। दामोदर स्वरूप सेठ ने असहयोग आंदोलन में भी भाग लिया था और जेल गए थे। स्वतंत्रता सेनानियों के सिरमौर माने जाने वाले क्रांतिकारी सेठ दामोदर स्वरूप को लोग बांस बरेली के सरदार के नाम से भी जानते हैं। एक समय था जब बरेली में नारा गूंजता था, “बांस बरेली का सरदार, सेठ दामोदर जिंदाबाद।” दामोदर स्वरूप सेठ संयुक्त प्रांत से भारतीय संविधान निर्मात्री परिषद के सदस्य थे। सभा में वह काफी मुखर वक्ता थे। माना जाता है कि सदस्य के रूप में उनका योगदान अहम था और उन्होंने संविधान के प्रारूप पर बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर को कई विषयों पर सुझाव दिया था जिसे स्वीकार भी किया गया। आजादी के बाद भी वह निरंतर देश सेवा में लगे रहे और देश की उन्नति एवं विकास के लिए ईमानदारी से कार्य करते रहे। साल 1965 में उनका निधन हो गया। व्यक्तित्व: शंभूनाथ डे जन्म : 1 फरवरी 1915 मृत्यु : 15 अप्रैल 1985 जिनके शोध ने बचाई हैजा के मरीजों की जान ‘ब्लू डेथ’ यानि ‘कॉलरा’ जिसे हिंदुस्तान में एक नया नाम दिया गया ‘हैजा’। एक समय था जब यह बीमारी जानलेवा समझी जाती थी। देखते ही देखते यह महामारी का रूप धारण कर लेती थी और गांव के गांव इस बीमारी के चपेट में आ जाते थे। साल 1884 में रॉबर्ट कॉख नामक वैज्ञानिक ने उस जीवाणु का पता लगाया जिसकी वजह से हैजा होता है लेकिन इस बीमारी का इलाज नहीं खोजा जा सका। 75 साल बाद इस बीमारी से होने वाली वाली मौत के सही कारण की खोज एक भारतीय वैज्ञानिक शंभूनाथ डे ने की। उनके इस प्रयास ने लाखों लोगों की बचाई जान…... ओरल डिहाइड्रेशन सॉल्यूशन (ओआरएस) आज बहुत सामान्य दवाई है जिसे कोई भी आसानी से अपने घर पर भी बना सकता है। जिस वैज्ञानिक के शोध के आधार पर ओआरएस का इजाद हुआ वह शोध करने वाला कोई और नहीं बल्कि शंभूनाथ डे थे जिनका जन्म 1 फरवरी 1915 को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम दशरथी डे और माता का नाम चित्रेश्वरी देवी था। कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण शुरूआती दिनों में उन्हें पढ़ाई करने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। बावजूद इसके उन्होंने हार नहीं मानी और पढ़ाई जारी रखी। बाद में कोलकाता मेडिकल कॉलेज में उनका चयन हो गया और शोध में दिलचस्पी रहने के कारण वह पढ़ाई के लिए लंदन चले गए। वहां से वह 1949 में भारत लौटकर आए और कलकत्ता के एक मेडिकल कॉलेज में सेवा देने लगे। माना जाता है कि साल 1817 से सामने आई इस बीमारी से उस समय लगभग 1 करोड़ 80 लाख लोगों की मौत हुई थी। इसके बाद भी अलग-अलग समय पर इसका प्रकोप भारत और अन्य देशों को झेलना पड़ा। हैजे के जीवाणु की खोज वैसे तो 1884 में कर ली गई थी लेकिन वैज्ञानिक उसके उचित इलाज की खोज करने में असफल रहे थे। ऐसे में शंभूनाथ डे ने हैजा का उचित इलाज ढूंढ निकालने का प्रण लिया। स्वतंत्रता पूर्व भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी की नींव रखने में अहम योगदान देने वाले शंभूनाथ डे कॉलेज में अपना काम खत्म करने के बाद हैजा पर शोध करने लगे। उन्होंने पता लगाया कि जीवाणु द्वारा पैदा किया गया ऐसा जहर शरीर में पानी की कमी और खून के गाढ़े होने का कारण बनता है, जिसके कारण आखिरकार हैजे के मरीज की जान चली जाती है। साधनों की कमी के बावजूद भी उन्होंने हैजा के जीवाणु द्वारा पैदा किए जाने वाले जानलेवा टॉक्सिन के बारे में पता लगाया। साल 1953 में उनका शोध को प्रकाशित हुआ जो एक ऐतिहासिक शोध था। उनकी इस खोज के बाद ही ओआरएस का इजाद हुआ। शंभूनाथ डे की खोज के कारण दुनिया भर में अनगिनत हैजा के मरीजों की जान मुंह के रास्ते तरल पदार्थ देकर बचाई गई। अपने काम के लिए शंभूनाथ डे को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया। हैजा पर शोध करने वाले वैज्ञानिक शंभूनाथ डे का 15 अप्रैल 1985 को निधन हो गया। लोगों को हैजे के कारणों और बचाव के प्रति जागरूक करने के लिए हर साल 23 सितंबर को विश्व भर में हैजा दिवस मनाया जाता है।
परिवार सही तो राष्ट्र सही : विनोद त्रिवेदी प्रत्येक राष्ट्र की अपनी संस्कृति और संस्कार होते हैं । किसी भी देश की संस्कृति की उस देश में रहने वाले नागरिकों पर स्पष्ट रूप से प्रभाव होता है । व्यक्ति जिस देश, समाज व परिवार में जन्म लेता है उसी के अनुरूप व्यक्ति के जीवन में संस्कृति और संस्कारों का बीजारोपण होता है। संस्कृति का अर्थ प्राचीन काल से चले आ रहे संस्कारों से है। भारतीय संस्कृति व्यक्ति में सुसंस्कार उत्पन्न करती है, मानवता और धर्म को दृढ़ बनाती है। लेकिन दुर्भाग्य से आज इसका ह्रास हो रहा है। एक समय था जब शिक्षा में इसका समावेश था। आज की शिक्षा मशीनी मानव बनाने की दिशा में सिर्फ व्यावसायिक शिक्षा तक सीमित रह गयी है । आज की शिक्षा यह बताती है कि कौन से कोर्से करने से क्या नौकरी या क्या जॉब मिलेगी। डॉ. इंजिनियर या सी ए, कौन सी पढाई करने से बनेंगे । वह यह नहीं बताती कि कौन से कोर्से से उसमे मानवीय गुण ( कर्तव्यनिष्ठा, विनम्रता, चरित्रवान, उदारता, परिश्रमी ) आयेंगे। आज पाठ्यक्रम से यह विषय गायब है । व्यक्ति दुनिया में आता है जीवन जीने के लिए लेकिन वास्तव में वह अनावश्यक अन्य उलझनों में उलझ जाता है । मनुष्य और पशु, पक्षी जानवर में अंतर है तो सिर्फ मस्तिष्क का। मनुष्य महत्वाकांक्षी होता है, सोच सकता है। अपने जीने के लिए सामान इकठ्ठा करता है जबकि पशु पक्षी इकठ्ठा नहीं करते । मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है वह समाज में कुटुंब बनाकर रहता है ।अपने लिए कुछ नीति और नियम तय करता है । व्यक्ति जब जीवन जीता है तो उसमे सुख दुःख के कई पड़ाव आते हैं । न तो हमेशा सुख रहता है और न ही हमेशा दुःख रहता है । संस्कृति और संस्कारों का महत्व यहीं समझा जा सकता है । संस्कार जीवन की कठिन परिस्थितियों में हमारा साथ देते हैं । संस्कार ही व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करते हैं। यही वह मार्ग है, जिस को अपनाकर मनुष्य जीवन में आतंरिक सुख, शान्ति, धैर्य और मान-सम्मान को प्राप्त करता है । नैतिकता, जीवन मूल्य,नीति नियम व्यक्ति को संस्कार ही सिखाते हैं । संस्कार किसी शाला में नहीं बल्कि दादा दादी,नाना नानी,माता पिता के प्रतिदिन के नित कार्यों को देखकर बच्चों में आता है । मंदिर, अध्यात्म केंद्र हमारे संस्कारों की पाठशाला हैं। माता पिता अक्सर यह शिकायत करते हैं हमारा बच्चा सुनता ही नहीं । वह वही सीखते हैं जो देखते हैं । वे माता -पिता की नक़ल करते हैं। ३-४ साल की उम्र से ही शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह हमें बच्चों में संस्कार पर भी विशेष जोर देना चाहिए ताकि उनकी जड़ें मजबूत रहे। आज प्रायः छोटी छोटी बातों पर लोग मरने मारने पर उतारू हो जा रहे हैं, नवयुवक जरा सी बात पर आत्महत्या करने लग जा रहे हैं । उनमे घोर निराशा, कुंठा भरा हुआ है । जीवन सदैव एक समान नहीं रहता, उसमे कई चुनौतियाँ आती हैं । उन चुनौतियों का सामना करने के लिए संस्कृति और संस्कार ही काम आता है । जिस तरह व्यक्तिगत जीवन में संस्कार एक ताकत के रूप में काम करता है, उसी तरह यह परिवार, समाज और देश पर भी लागू होता है। हम पर शासन करने के लिए आक्रमणकारी ने सबसे पहले हमारी संस्कृति और संस्कार पर ही हमला किया था। सपने देखना और उसे साकार करना अच्छी बात है लेकिन लगातार धैर्य पूर्वक और मेहनत के साथ । व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से देश बनता है । इसलिए जैसा हमारा परिवार होगा हमारा देश भी वैसा ही बनेगा ।
समय से आगे थे विवेकानंद जी -प्रेम नारायण अग्रवाल स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मठ, रामकृष्ण मिशन और वेदांत सोसाइटी की नींव रखी। 1893 में अमेरिका के शिकागो में हुए विश्व धार्मिक सम्मलेन में उन्होंने भारत और हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व किया था। हिंदुत्व को लेकर उन्होंने जो व्याख्या दुनिया के सामने रखी, उसकी वजह से इस धर्म को लेकर काफी आकर्षण बढ़ा। विवेकानंद ने भारत में भ्रमण करके भारतियों को भारतीय संस्कृति और तत्वज्ञान का सदुपदेश दिया और अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों को दूर हटाकर उन्हें समाज सेवा का उपदेश दिया। स्वामी विवेकानंद जी समय के साथ चलने वाले या समय से आगे सोचने वाले व्यक्तित्व थे । जितने भी महापुरुष हुए हैं उनके पास एक अलौकिक शक्ति होती है , वे समय से आगे की सोच लेते है,उन्हें आभास होता है की आगे किस तरह की परिस्थितियां निर्माण होने वाली है । विवेकानंद उनमे से एक थे । अल्प समय में विवेकानंद जी ने जो कार्य किया वह एक साधारण व्यक्ति का कृतित्व नहीं हो सकता । उनके बारे में यही कहा जाता है कि उनके प्रसंशक कम या ज्यादा हो सकता है लेकिन उनका कोई आलोचक नहीं था । उन्होंने दुनिया के सामने जो वेदांत दर्शन रखा वो वाकई धर्म की सही विवेचना करता है; स्वामीजी कहते थे कि हम लोग वेदांत के बिना सांस तक नहीं ले सकते हैं । जीवन में जो भी हो रहा है, सभी में वेदांत का प्रभाव है. स्वामी विवेकानंद कहते थे कि वेदांत ही सिखाता है कि कैसे धार्मिक विचारों की विविधता को स्वीकार करना चाहिए ।
मानवता को भारत का उपहार : भारतीय लोकतंत्र का मंदिर कही जाने वाली संसद में लगभग डेढ़ महीने पहले यानी 20 दिसंबर को एक अनोखे सहभोज का आयोजन किया गया था। देश के उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा के अध्यक्ष, पूर्व प्रधानमंत्री, संसद के दोनों सदनों के नेता, विभिन्न राजनैतिक दलों के अध्यक्ष, सांसदगण और अधिकारी मौजूद थे। यह कोई राजनैतिक आयोजन या भोजन पर मिलन का कार्यक्रम भर नहीं था, बल्कि इसका उद्देश्य जन-जन के पोषण और स्वास्थ्य से जुड़ाव था। इसके पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोच रही है कि भारत के प्राचीन पोषक अनाज को भोजन की थाली में पुन: सम्मानजनक स्थान मिले। जिसकी प्रतीकात्मक पहल संसद भवन से हुई जहां शीर्ष स्तरीय नीति-निर्माता स्वयं शामिल हुए। इस आयोजन का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि 2023 के इस वर्ष को दुनिया अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष के रूप में मना रही है, जिसकी पहल भारत ने की है। मोटा अनाज (मिलेट्स) मानवजाति के लिए प्रकृति की अनमोल देन है तो 2023 को अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष के तौर पर मनाना विश्व मानवता के लिए किसी उपहार से कम नहीं है। भारतीय भोजन में मोटे अनाज का उपयोग करने की परंपरा रही है, लेकिन 1960 के दशक में हरित क्रांति के जरिए खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के कारण मोटे अनाज की तरफ ध्यान कम हुआ। धीरे-धीरे इसकी तरफ ध्यान इतना कम हुआ कि यह न सिर्फ थाली से गायब हुआ बल्कि खपत में कमी के कारण उत्पादन भी कम हो गया। हरित क्रांति के पहले सभी फसली अनाजों में मोटा अनाज लगभग 40 प्रतिशत होता था, जो आने वाले वर्षों में गिरकर लगभग 20 प्रतिशत रह गया। पहले जितने क्षेत्र में उसका उत्पादन होता था, उसकी जगह वाणिज्यिक फसलों, दलहन, तिलहन और मक्के ने ले ली। यह वाणिज्यिक फसलें फायदेमंद हैं और उनके उत्पादन को कई नीतियों से समर्थन मिलता है, जैसे सब्सिडी, सरकारी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में उन्हें शामिल करना। इस सबके बीच खानपान की आदत बदलने के साथ कैलोरी से भरपूर महीन अनाज को थाली में प्राथमिकता दी जाने लगी। मिलेट्स देश में कोई नई चीज नहीं है। पहले कम सुविधाओं के बीच ग्रामीण परिवेश में इस तरह का ताना-बाना होता था कि छोटे किसान भी अपनी जरूरत के हिसाब से अनाज का उत्पादन करते थे। पारिवारिक जरूरत पूरी करने के बाद जो अनाज बचता था, उसे बाजार में ले जाते थे। खेती में धीरे-धीरे ज्यादा लाभ की प्रतिस्पर्धा हुई। खेती आमदनी के साधन के रूप में बदल गई और इस बीच किसानों की गेहूं व धान पर निर्भरता अधिक हो गई। भारतीय किसान देश को पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध कराने में सक्षम हैं, वहीं दुनिया को भी आपूर्ति कर रहे हैं। अब जब देश खाद्यान्न व बागवानी की अधिकांश उपज के मामले में अग्रणी है तो पोषक-अनाज की ओर ध्यान दिया जाना जरूरी है। आज पोषकता की आवश्यकता है, अनुसंधान भी काफी गहराई से हो रहा है, बारीकी से उसका विश्लेषण किया जा रहा है। जगह-जगह व्याख्यान हो रहे हैं, विद्वान चिंतन कर रहे हैं और कहा जा रहा है कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए मिलेट्स जरूरी है। इस संबंध में प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि मिलेट्स के लिए हमें काम करना चाहिए। उनकी पहल पर योग की तरह देश-दुनिया में मिलेट्स को बढ़ावा दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान पर मिलेट्स की खपत बढ़ रही है तो उत्पादन भी बढ़ रहा है। इस पृष्ठभूमि में भारत सरकार को देश में पोषण सुरक्षा के निर्माण में मोटे अनाज के महत्व का अनुभव हुआ और उसने इस दिशा में कई प्रयास किए। जैसे- मोटे अनाज को पोषक अनाज के रूप में मान्यता, वर्ष 2018 में राष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष समारोह, संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष का प्रस्ताव करना और कई अन्य छोटे पैमाने की नीतियां। कोविड महामारी और मोटे अनाज का महत्व कोविड महामारी ने सभी को स्वास्थ्य व पोषण सुरक्षा के महत्व का अहसास कराया है। तीन-सी यानी कोविड, कॉन्फ्लिक्ट (संघर्ष) और क्लाइमेट (जलवायु) ने, किसी न किसी रूप में खाद्य सुरक्षा को प्रभावित किया है। ऐसे में खाद्य वस्तुओं में पोषकता का समावेश होना अत्यंत आवश्यक है। अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष मनाए जाने से मिलेट्स की घरेलू एवं वैश्विक खपत बढ़ेगी, जिससे रोजगार में भी वृद्धि होगी एवं अर्थव्यवस्था और मजबूत होगी। भारतीय परंपरा, संस्कृति, चलन, स्वाभाविक उत्पाद व प्रकृति द्वारा जो कुछ भी दिया गया है, वह निश्चित रूप से किसी भी मनुष्य को स्वस्थ रखने में परिपूर्ण है, लेकिन कई बार समय निकलता जाता है और आधुनिकता के नाम पर, व्यस्तता के कारण हम अच्छी चीजों को शनैः शनैः भूलते जाते हैं और प्रगति के नाम पर बहुत-सारी दूसरी चीजों को अपने जीवन में अपनाते जाते है। प्रगति तो आवश्यक है लेकिन प्रकृति के साथ अगर प्रगति का सामंजस्य रहे तो यह मानव जीवन व देश के लिए ज्यादा अच्छा होता है। आज बहुत-सारी चीजों को ढूंढते हैं और महंगे दामों पर भी खरीदते हैं। उनमें कई ऐसी हैं, जिनके बीज कोई संजोकर नहीं रखता या जिन्हें किसान बोते भी नहीं है लेकिन आज भी प्राकृतिक रूप से, मौसम के अनुसार वह पैदा होती है। जिन लोगों को उनकी गुणवत्ता मालूम हो गई, वह उन्हें उपयोग करते हैं। ईश्वर ने भी संतुलन का ध्यान रखा है। सोचने वाली बात है कि कोविड कोई पहली महामारी नहीं थी, यह निश्चित रूप से आखिरी महामारी भी नहीं होगी। अगर भविष्य में महामारियां होती हैं तो यह महामारी और भी बुरी हो सकती है, ऐसे में महामारियों के दौरान खाद्य सुरक्षा की तैयारी में अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष का महत्व और बढ़ जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि बाजरा, मानव द्वारा सबसे पहले उगाई जाने वाली फसलों में से एक है। पोषक तत्वों के एक महत्वपूर्ण स्रोत के तौर पर बाजरा को भविष्य के लिए भोजन का विकल्प बनाने पर जोर देना जरूरी है। मोटा अनाज नहीं पोषक अनाज कहिए… मिलेट्स, इसे प्राय: एक प्राचीन अनाज माना जाता है। इसका एक इतिहास है, जो हमारे द्वारा उपभोग किए जाने वाले आधुनिक अनाजों से पहले का है। वास्तव में, सिंधु घाटी सभ्यता से बरामद की गई कुछ कलाकृतियों के अनुसार, सिंधु घाटी में मोटा अनाज पाया जाता था और जहां तक भारत का संबंध है, हम विश्व के सबसे बड़े उत्पादक हैं। भारत में लगभग 1.80 करोड़ टन मिलेट्स का उत्पादन होता है जो वैश्विक उत्पादन का लगभग 20% है। दुनिया के 200 में से लगभग 130 देश किसी न किसी रूप में पोषक अनाज का उत्पादन करते हैं। भारत नौ प्रकार का पोषक अनाज पैदा करता है। खाद्य प्रसंस्करण में पोषण सुरक्षा के समाधान भी हैं। उदाहरण के लिए मोटे अनाज और बाजरा में उच्च पोषक तत्व हैं। वह प्रतिकूल कृषि-जलवायु परिस्थितियों का सामना भी कर सकते हैं। उन्हें ‘पोषण समृद्ध और जलवायु समर्थ’ फसल भी कहा जा सकता है। मोटे अनाज का मतलब पोषक तत्व वाले अनाज, इसमें पोषकता कहीं ज्यादा पाई जाती है। जो अनाज अभी हम खाते हैं उससे कहीं बेहतर है। स्वास्थ्य के लिहाज से सबसे उम्दा है। इसके अलावा जहां इसे उगाया जाता है वहां के किसान छोटे हैं, असिंचित क्षेत्र में पैदा होता है। विशुद्ध रूप से इसे जैविक खेती भी कह सकते हैं क्योंकि रसायनिक खाद, कीटनाशकों का प्रयोग न के बराबर होता है। मोटा अनाज कहकर जिसे नकार दिया गया था, वह अवधारणा अब बदल रही है। सुपर फूड के रूप में इसकी पहचान बन रही है। इसकी मांग बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है ताकि किसानों को बेहतर मूल्य मिले। शाकाहारी खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग के लिए बाजरा एक वैकल्पिक खाद्य प्रणाली प्रदान करता है। बाजरा संतुलित आहार के साथ-साथ एक सुरक्षित वातावरण के निर्माण में योगदान देता है। यह मानव जाति के लिए एक प्राकृतिक उपहार है। भारतीय बाजरा पौष्टिकता से भरपूर समृद्ध, सूखा सहिष्णु फसल का एक समूह है जो ज्यादातर भारत के शुष्क एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह एक छोटे बीज वाली घास के प्रकार का होता है जो वनस्पति प्रजाति “पोएसी” से संबंधित है। यह लाखों संसाधन रहित गरीब किसानों के लिए भोजन और उनके मवेशियों के चारे का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। भारत की पारिस्थितिक और आर्थिक सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस बाजरे को ‘मोटा अनाज’ या ‘गरीबों के अनाज’ के रूप में भी जाना जाता है। भारतीय बाजरा में प्रोटीन, विटामिन और खनिजों की भरपूर मात्रा होती है। यह ग्लूटेन-मुक्त भी होते हैं और इनका ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम होता है, जो इन्हें सीलिएक रोग या मधुमेह रोगियों के लिए आदर्श बनाता है। महामारी ने छोटे और सीमांत किसानों की आय में बढ़ोत्तरी करने की आवश्यकता पर ध्यान आकर्षित किया है और बाजरा इसके लिए सबसे अच्छे विकल्पों में से एक साबित हो सकता है। बाजरा एक जलवायु अनुकूल फसल है जिसका उत्पादन पानी की कम खपत, कम कार्बन उत्सर्जन और सूखे में भी किया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष, खाद्य सुरक्षा और पोषण के लिए बाजरे के योगदान में जागरूकता फैलाएगा, बाजरे का उत्पादन निरंतर करने और इसकी गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए हितधारकों को प्रेरित करेगा। साथ ही यह अनुसंधान और विकास कार्यों में निवेश को बढ़ावा देने के लिए ध्यान आकर्षित करेगा। मिलेट्स में पथ प्रदर्शक बन रहा भारत भारत सरकार ने मिलेट्स यानी पोषक अनाज को देश-विदेश में लोकप्रिय बनाने के लिए पहल शुरू की है। इसका जायका इसकी विशेषता है। भारत का उद्देश्य मिलेट्स का केवल निर्यात करना नहीं, बल्कि यह जन-जन तक पहुंचे और उनकी सेहत का ध्यान रखे। भारत ने ऐसे समय में उसके बारे में सोचा है जब दुनिया कोविड जैसी महामारी से ग्रस्त थी। भारत सरकार इसे दुनिया में फैलाने के लिए आयोजन कर रही है। सरकार की कोशिश है कि सभी एजेंसी और दूतावास के सभी आयोजन में भारत के पोषक अनाज के व्यंजनों को बेहतर तरीके से परोसा जाए। इसकी विशेषता लोगों को बताई जाए, यह प्रक्रिया पूरे साल चलेगी। जी-20 की अध्यक्षता कर रहा भारत अपने सभी आयोजन में भी कम से कम एक व्यंजन मोटे अनाज से बना हुआ परोसेगा। शुरुआती बैठक में तो मिलेट्स के कई व्यंजन मेहमानों के सामने मेन कोर्स मैन्यू में रखे गए। दुनिया भर में मोटे अनाज के प्रति झुकाव बढ़ता जा रहा है। पिछले कुछ समय से जब भी कोई विदेशी मेहमान या राष्ट्राध्यक्ष भारत आते हैं तो प्रधानमंत्री मोदी की कोशिश रहती है कि भारतीय मोटे अनाज से बने हुए व्यंजन परोसे जाएं। विदेशी मेहमानों को भी यह व्यंजन बेहद पसंद आ रहे हैं। भारत सरकार की यह पहल सतत कृषि में बाजरा की महत्वपूर्ण भूमिका, स्मार्ट और सुपरफूड के रूप में इसके लाभों के बारे में दुनिया भर में जागरूकता पैदा करने में मदद करेगी। भारत 1.80 करोड़ टन से अधिक उत्पादन के साथ बाजरा के लिए वैश्विक हब बनने की ओर अग्रसर है। भारत, एशिया में उत्पादित 80 प्रतिशत से अधिक बाजरे का उत्पादन करता है। यह भोजन के लिए उपयोग किए जाने वाले पहले पौधों में से एक था। इसे लगभग 131 देशों में उगाया जाता है और एशिया एवं अफ्रीका में लगभग 60 करोड़ लोगों के लिए पारंपरिक भोजन है। भारत सरकार की पहल पर इसे जन आंदोलन बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष मनाया जा रहा है, ताकि भारतीय बाजरा, व्यंजनों और मूल्य वर्धित उत्पादों को विश्व स्तर पर स्वीकार किया जा सके। यह वर्ष वैश्विक उत्पादन बढ़ाने, कुशल प्रसंस्करण और खपत सुनिश्चित करने, फसल चक्र के बेहतर उपयोग को बढ़ावा देने और खाद्य वस्तुओं के प्रमुख घटक के रूप में बाजरा को बढ़ावा देने के साथ् संपूर्ण खाद्य प्रणालियों में बेहतर संपर्क को प्रोत्साहित करने के लिए एक अनूठा अवसर प्रदान करने में सक्षम है। दीर्घकालिक रणनीति के साथ बढ़ावा बाजरा और अन्य पोषक अनाज को लोकप्रिय बनाने के लिए सरकार देश और विदेश में कई कार्यक्रम आयोजित कर रही है। इसके अलावा, भारत सरकार के सभी मंत्रालय/विभाग, राज्य सरकारों के साथ, कृषि और किसान कल्याण विभाग (डीए एंड एफडब्ल्यू) एवं कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग (डीएआरई) के समन्वय से पोषक अनाज को बढ़ावा देंगे। अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष की कार्ययोजना उत्पादन, खपत, निर्यात, ब्रांडिंग आदि को बढ़ाने की रणनीतियों पर केंद्रित है। प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत अभियान घोषणा के हिस्से के रूप में, सरकार ने 31 मार्च 2021 को 10,900 करोड़ रुपये के परिव्यय के साथ खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के लिए उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना को मंजूरी दी है। इस योजना को 2021-22 से सात साल की अवधि 2026-27 तक लागू किया जाना है। इस योजना के प्राथमिक उद्देश्यों में वैश्विक खाद्य निर्माण चैंपियन बनाने और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में खाद्य उत्पाद के भारतीय ब्रांडों का सहयोग करना शामिल है। योजना के तहत सहायता प्रदान करने के लिए उच्च विकास क्षमता वाले विशिष्ट खाद्य उत्पादों की पहचान की गई है। इनमें बाजरे पर आधारित उत्पादों सहित पकाने के लिए तैयार/खाने के लिए तैयार (आरटीसी/आरटीई) खाद्य पदार्थ शामिल हैं। पोषक अनाज को लोकप्रिय बनाने के कार्यक्रमों और नीतियों की निगरानी के लिए कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में सचिवों की एक समिति और सचिव, डीए एंड एफडब्ल्यू और सचिव डीएआरई की अध्यक्षता में एक कोर समिति का गठन किया गया है। सरकार ने बाजरा को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए हैं। घरेलू और वैश्विक मांग पैदा करने और लोगों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने के लिए 2018 में राष्ट्रीय बाजरा वर्ष मनाया गया। बाजरे के पोषण मूल्य को देखते हुए सरकार ने अप्रैल 2018 में बाजरे को पोषक अनाज के रूप में अधिसूचित किया और बाजरे को पोषण मिशन अभियान के तहत शामिल किया गया। 500 से अधिक स्टार्टअप बाजार मूल्य श्रृंखला में काम कर रहे हैं वहीं, भारतीय बाजरा अनुसंधान संस्थान ने आरकेवीवाई-रफ्तार के तहत 250 स्टार्टअप को साथ लिया है। 66 से अधिक स्टार्टअप को 6.2 करोड़ रुपये से अधिक की राशि दी गई है जबकि 25 से अधिक स्टार्टअप को भविष्य में वित्त पोषण की मंजूरी दी गई है। वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने अपनी कृषि निर्यात संवर्धन संस्था, कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीईडीए) के माध्यम से दिसंबर 2022 से पूरे विश्व में भारतीय मोटे अनाजों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए एक विस्तृत रणनीति तैयार की है। केंद्र सरकार अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष का आयोजन घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कर रही है, ताकि मोटे अनाजों तथा इसके उत्पादों को पूरे विश्व में लोकप्रिय बनाया जा सके और इसे जन आंदोलन बनाया जा सके। अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष में मिलेट्ल का उत्पादन, उपभोग और मांग भी बढ़ेगी। भारत इसका बहुत बड़ा निर्यातक बनकर उभरेगा जो विश्व मानवता के लिए किसी उपहार से कम नहीं है। मोटे अनाज, प्राचीन काल से ही भारतीय कृषि, संस्कृति और सभ्यता का हिस्सा रहे हैं। वेदों में भी मोटे अनाज का उल्लेख मिलता है। देश के किसी भी कोने में जाएं तो खानपान में मिलेट्स देखने को मिलेंगे। संस्कृति की तरह ही मिलेट्स में भी बहुत विविधताएं पाई जाती हैं। ऐसे में जब भारत की पहल पर दुनिया अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष मना रही है, तब यह समूचे देशवासियों की जिम्मेदारी बन जाती है कि इसे जन आंदोलन बनाएं।
"बसंत अर बुढ़ापा रो फेरौ " : पूजाश्री म्हारै साथहाळी सगळी पाड़ोसना, बुढ़ापा री ओर जाबा लागी है। अब ई मं तो आपसी जळण री कोई बात कोनी पण, कोई, कोई इस्सी भी है, जीपर हालताणी बुढ़ापा रो असर कोनी हुयौ है। मूंडा पर अक भी सळ कोनी दीखै । गाल भी गुलाब जियां रा लागे । ओक आद पाड़ोसन इस्सी भी है जीने केस-काळा करबारै साथ-साथ आँख्यां रा बुंआरा भी काळा करणा पड़े है। ओक दूजी पाड़ोसन घणी आधुनिक है। बाल-काळा करबा री जगां बा तो, माथो ही मूंडा लियौ। माथो तो मुंडा लियौ पण, बुंवारा काळा करबा मंडर लागै, क्यूँ कै बा पढ़ी-लिखी है, जाणै है के खिज़ाब आँख्याँ रै आस-पास नी आणी चाईजै है। अब घणी पछतारी है कै "न तो बा लुगाई दीखै अर न बा मोट्यार दीखै। अब पछताबारै सिवाय कै बचौ । ओक और पाड़ोसन है जो 60 बरस रे ऊपर व्हैगी, पण बुढ़ापा सूं ज़रा भी कोनी डरै । हालताणी वसंत बीप र घणौ महरबान है। लोग कैवता रैवै कै, जाणै किसी चक्की रो आटो खावै है? पण जठाताणी मैं जाणूं हूं-, बा खुशमिजाज लुगाई है। जदै भी, बी-सूं बातचीत होवै तद बा कदैई मूंडो सुजायर बात कोनी करै, सदा ही हंसती रैवे पण, जद, बी सूं कोई इतिहास अर खाण-पाण रै बारा मं बात करल्यौ तो, फेरूं, जाणकारी री सगळी किताबां खुल जावै।" म्हारी ओक पाड़ोसन तो घणा चोखा-चोखा पकवान खावती रैवे है, फैरूं भी सदा ही खाट पर मांदी पड़ी रैवे है । ई पाड़ोसन री बात जदै भी, मैं, खुशमिजाज -हाळी पाड़ोसन सूं करूं, तद बा झट अपणौ ग्यान बगारबा लाग जावै-"देख पूजा सगळा ओक ही बात रोवै कै- पैल्यां रो जमानो घणो चोखो हो । चीजां घणी सस्ती ही । खाण-पाण घणौ उम्दा हो, ई खातर पैल्यांरा लोग बेगा बूढ़ा कोनी होता हा पण "पूजा बी जमाना मं भी कितरा लोगां नै चोखा खावण नै मिलतो हो । सेठां रै काम करण हाळा दास तो दास ही हुया करता हा । तनखा दस या पंदरा-रूप्या हुया करती ही। अब इतरा सा रूप्या मं कितरो खाणो पीणो होतो हो?" आजकाल रा जमाना मं महंगाई बढ़ी है तो तनखा भी तो ओक हजार री जगां, दस हजार व्हैगी है। कुआवत है के "सकळ पदारथ है- जग माही, करमहीन नर पावत नाही । " आ बात पैल्यां भी लागू हौ, अर आज भी है । म्हारी आ पाड़ोसन जद बोलबा लागै तद बी नै चुप कराणो घणो कठिन काम है। ख़ुशमिजाज पाड़ोसन नै, मैं एक दिन पूछ बैठी कि, बैणजी, थे सदा निरोगी रैवो हो आ घणी सुखद बात है, पण मन्नै भी थां रा जीवण मूल्यां बारा मं थोड़ो बतावो ।" "देख पूजा ई मं बतावण री कोई बात कोनी, अब देख मैं कदै भी, बारै री चीज़ कोनी खाऊँ, अर कदै भी ठंडा पेय पदारथ कोनी पीऊं। किराया रा घर मं रैऊ हूं, जो म्हारा बाप-दादा रा, जमाना रो किरायो ही, हालताणी देणौ पड़े है । पाणी रो बिल अर बिजळी रो बिल ही भरणौ पड़ै है। नै तो मन्नै कोई घर रो टैक्स देणौ पड़ै अर न ही म्हारै घरां कोई नौकर-चाकर है। मैं ही सगळा काम करलिया करूं हूं, अब ई बात मं कीं रो नुस्खौ ? ओक दिन अचूकच ही बा मांदी व्हैगी। मैं बीरी तबीयत पूछण नै गई। थोड़ी अठी, - बठी री बातां रै बाद, बा म्हारा सूं अचानक केवण लागी - "देख पूजा, बुढ़ापा रो फेरो' कोई न, कोनी छोड़ै, अर, अब ओ बुढ़ापा रो फेरो हो कै ब्याव रो फेरो, मैं बी नै पूच्छौ अब ई बात मं ब्याव रो फेरो कठांसू " आग्यौ ।” बा मूंडो लटकायर बोली "पूजा मं बुढ़ापा सूं घणी डरती ही, ई खातर ही मैं ब्याव कोनी कर्यो, पण आज मैं पछतारी हूं- जद बुढ़ापो आणौ ही हो, तद ब्याव कर'र ही बुढापो आतो तो चोखो हो। म्हारै बाद म्हारो नाम लेण हाळो बसंत तो रैवतो । बसंत रेवणौ घणौ जरूरी है, पण अब कै करूं, जद "चिड़कल्यां पूरै खेत ही चुग्गी है" मैं बुढ़ापारी बात करणहाळां सू सदा ही राड़ कर बैठती ही । आज म्हारी पाड़ोसन मन्नै घरां ही कोनी जाबा दे री ही । मैं भी बी री तबीयत ज्यादा खराब देख'र घरां फोन कर दियो- "कै मैं आज थोड़ी, मोड़ी हो जाऊँला घरां आबा मं / थे कोई चिंता मत करज्यौ । मोड़ी आवण रो, कारण भी घरहाळां नै बतादियौ, पौ-फाटतां ही मैं बेगी-बेगी ऊठी अर पाड़ोसन न ै जगायर कयौ कै, अब मैं घरां चालूं हूं दिन उग आयो है। बा मूंडा मं बड़बड़ाती कैवगी, कै, "मैं जाणूं हूं बुढ़ापा रा फेरा रै सागै कोई कोनी चालै। सगळा बसंत रै ही सागै चाल्या करै है । पाछै रैग्यो म्हारो बसंत |