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MUMBAI
11 मार्च 2023
- देवमणि पांडेय
घर-आंगन, दहलीज़, दुआरी
तुम हो घर की दुनिया सारी
छोड़ गए क्यूं तुम्हें अकेला
जिन बच्चों की तुम महतारी
ख़ुद से पूछो क्यूं कहती है
ये दुनिया तुमको बेचारी
सात समंदर आंख में फिर भी
सूखी है मन की फुलवारी
किसे पड़ी है जो ये देखे
कैसे तुमने उम्र गुजारी
सुख बैरी है जनम जनम का
दुख से गहरी रिश्तेदारी
होठों पर मुस्कान है,दिल को
काट गई है ग़म की आरी
तनहा बैठी सोच रही हो
सुख-दुख आते बारी-बारी
सात जनम की क़ैद से निकलो
एक जनम है तुम पर भारी
सदियां गुज़रीं मगर अभी तक
सीख न पाई दुनियादारी
रोते रोते हंस पड़ती हो
तब लगती हो कितनी प्यारी
तुम चाहोगी तभी किसी दिन
बदलेगी तक़दीर तुम्हारी
- देवमणि पांडेय
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